Tuesday, 10 May 2016

उपदेशप्रद कहानी: सत्य की महिमा



एक सत्यवादी धर्मात्मा राजा थ। उनके नगर में कोई भी साधारण मनुष्य बिक्री करने के लिए बाजार में अन्न, वस्त्र आदि कोई वस्तु लाता और वह वस्तु यदि सायंकाल तक नहीं बिकती तो उसे राजा खरीद लिया करते थे। लोकहित के लिए राजा की यह सत्य प्रतिज्ञा थी। अत: सायंकाल होते ही राजा के सेवक शहर में भ्रमण करते और किसी को कोई वस्तु लिए बैठे देखते तो वे उससे पूछकर और उसके संतोष के अनुसार कीमत देकर उस वस्तु को खरीद लेते थे।

एक दिन की बात है। स्वयं धर्मराज ब्राह्मण का वेष धारण करके घर की टूटी-फूटी व्यर्थ की चीजें, जो बाहर फेंकने योग्य कूड़ा-करकट थीं, एक पेटी में भरकर उन सत्यवादी धर्मात्मा राजा की परीक्षा करने के लिए उनके नगर में आए और बिक्री के लिए बाजार में बैठ गए, किंतु कूड़ा-करकट कौन लेता? जब सायंकाल हुआ, तब राजा के सेवक नगर में सदा की भांति घूमने लगे। नगर में बेचने के लिए लोग जो वस्तुएं लाए थी, वे सब बिक चुकी थीं। केवल ये ब्राह्मण अपनी पेटी लिए बैठे थे। राजसेवकों ने इनके पास जाकर पूछा - ‘क्या आपकी वस्तु नहीं बिकी?’ उन्होंने उत्तर दिया - ‘नहीं।’ राजसेवकों ने पुन: पूछा - ‘आप इस पेटी में बेचने के लिए क्या चीज लाए हैं? और उसका मूल्य क्या है?’ ब्राह्मण ने कहा - ‘इसमें दारिद्र्य (कूड़ा-करकट) भरा हुआ है। इसका मूल्य है एक हजार रुपए।’ यह सुनकर राजसेवक हंसे और उन्होंने कहा - ‘इस कूड़ा-करकट को कौन लेगा, जिसका एक पैसा भी मूल्य नहीं है?’ ब्राह्मण ने कहा - ‘यदि इसे कोई नहीं लेगा तो मैं इसे वापस अपने घर ले जाऊंगा।’ राजसेवकों ने तुरंत राजा के पास जाकर इसकी सूचना दी। इस पर राजा ने कहा - ‘उन्हें वस्तु वापस न ले जाने दो। मूल्य जो कम-से-कम हो सके, उन्हें संतोष कराकर वस्तु खरीद लो।’

राजसेवकों ने आकर ब्राह्मण से उस पेटी के दो सौ रुपए मूल्य कहा, किंतु ब्राह्मण ने एक हजार से एक पैसा भी कम लेना स्वीकार नहीं किया। राजसेवकों ने पांच सौ रुपए तक देना स्वीकार कर लिया, परंतु ब्राह्मण ने इंकार कर दिया। तब राजसेवकों में से कुछ व्यक्ति उत्तेजित होकर राजा के पास आए और बोले - ‘महाराज! उनकी पेटी में दारिद्र्य (कूड़ा-करकट) भरा हिआ है, एक पैसे की भी चीज नहीं है और पांच सौ रुपए देने पर भी वे नहीं दे रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में आपको उनकी वस्तु नहीं खरीदनी चाहिए।’ राजा ने कहा - ‘नहीं, हमारी सत्य प्रतिज्ञा है, हम सत्य का त्याग कभी नहीं करेंगे, इसलिए ब्राह्मण को, वे जो मांगे, देकर उस वस्तु को खरीद लो।’ यह सुनकर राजसेवक राजा के इस आग्रह को देखकर हंसे और लौट आए। उन्होंने निरुपाय होकर ब्राह्मण को एक हजार रुपए दे दिए और उनकी पेटी ले ली। ब्राह्मण रुपए लेकर चले गए और राजसेवक पेटी को राजा के पास ले आए। राजा ने उस दारिद्र्य से भरी पेटी को रामहल में रखवा दिया।

रात्रि में जब शयन का समय हुआ, तब राजमहल के द्वार से वस्त्राभूषणों से सुसज्जित एक बहुत सुंदर युवती निकली। राजा बाहर बैठक में बैठे हुए थे। उस स्त्री को देखकर राजा ने पूछा - ‘आप कौन हैं? किस कार्य से आई हैं? और क्यों जा रही हैं?’ उस स्त्री ने कहा - ‘मैं लक्ष्मी हूं। आप सत्यवादी धर्मात्मा हैं, इस कारण मैं सदा से आपके घर में निवास करती रही हूं, पर अब तो आपके घर में दारिद्र्य आ गया है, जहां दारिद्र्य रहता है वहां लक्ष्मी नहीं रहती। इसलिए आज मैं आपके यहां से जा रहीं हूं।’ राजा बोले - ‘जैसी आपकी इच्छा।’

थोड़ी देर बाद राजा ने एक बहुत ही सुंदर युवा पुरुष राजमहल के दरवाजे से निकलते देखा तो उससे पूछा - ‘आप कौन हैं? कैसे आए हैं और कहां जा रहे हैं?’ उस सुंदर पुरुष ने कहा - ‘मेरा नाम दान है। आप सत्यवादी धर्मात्मा हैं, इस कारण सदा मैं आपके यहां निवास करता रहा हूं। अब जहां लक्ष्मी गई हैं, वहीं मैं जा रहा हूं; क्योंकि जब लक्ष्मी चली गई तब आप दान कहां से करेंगे?’ तब राजा बोले - ‘बहुत अच्छा।’

उसके बाद फिर एक सुंदर पुरुष निकलता दिखाई दिया। राजा ने उससे भी पूछा - ‘आप कौन हैं? कैसे आए हैं और कहां जा रहे हैं?’ उसने कहा - ‘मैं यज्ञ हूं। आप सत्यवादी धर्मात्मा हैं, अत: आपके यहां मैं सदा निवास करता रहा। अब आपके यहां से लक्ष्मी और दान चले गए तो मैं भी वहीं जा रहा हूं; क्योंकि बिना संपत्ति के आप यज्ञ का अनुष्ठान कैसे करेंगे?’ राजा बोले - ‘बहुत अच्छा।’

तदनंतर फिर एक युवा पुरुष दिखाई दिया। राजा ने पूछा - ‘आप कौन हैं? कैसे आए हैं और कहां जा रहे हैं?’ उसने कहा - ‘मेरा नाम यश है। आप धर्मात्मा सत्यवादी हैं, अत: मैं आपके यहां सदा से रहता आया हूं; किंतु आपके यहां से लक्ष्मी, दान, यज्ञ सब चले गए तो उनके बिना आपका यश कैसे रहेगा? इसलिए मैं भी वहीं जा रहा हूं, जहां वे गए हैं।’ राजा ने कहा - ‘ठीक है।’

तत्पश्चात एक सुंदर पुरुष फिर निकला। उसे देखकर उससे भी राजा ने पूछा - ‘आप कौन हैं? कैसे आए हैं और कहां जा रहे हैं?’ उसने कहा - ‘मेरा नाम सत्य है। आप धर्मात्मा हैं, अत: मैं सदा अपके यहां रहता आया हूं; किंतु अब आपके यहां से लक्ष्मी, दान, यज्ञ, यश - सब चले गए तो मैं भी वहीं जा रहा हूं।’ राजा ने कहा - ‘मैंने तो आपके लिए ही इन सबका त्याग किया है, आपका तो मैंने कभी त्याग किया ही नहीं, इसलिए आप कैसे जा सकते हैं? मैंने लोकोपकार के लिए यह सत्य प्रतिज्ञा कर रखी थी कि कोई भी व्यक्ति मेरे नगर में बिक्री करने के लिए कोई वस्तु लेकर आएगा और सायंकाल तक उसकी वह वस्तु नहीं बिकेगी तो मैं खरीद लूंगा। आज एक ब्राह्मण दारिद्र्य लेकर बिक्री करने आए जो एक पैसे की भी चीज नहीं; किंतु सत्य की रक्षा के लिए ही मैंने विक्रेता ब्राह्मण को एक हजार रुपए देकर उस दारिद्र्य (कूड़ा-करकट) को खरीद लिया। तब लक्ष्मी ने आकर कहा कि आपके घर में दारिद्र्य का वास हो गया, इसलिए मैं नहीं रहूंगी। इसी कारण मेरे यहां से लक्ष्मी आदि सब चले गए। ऐसा होने पर भी मैं आपके बल पर डटा हुआ हूं।’ यह सुनकर सत्य ने कहा - ‘जब मेरे लिए ही आपने इन सबका त्याग किया है, तब मैं नहीं जाऊंगा।’ ऐसा कहकर वह राजमहल में वापस प्रवेश कर गया।

कुछ ही देर बाद ‘यश’ लौटकर राजा के पास आया। राजा ने पूछा - ‘आप कौन हैं और क्यों आए हैं?’ उसने कहा - ‘मैं वही यश हूं, आपमें सत्य विराजमान है। चाहे कोई कितना ही यज्ञकर्ता, दानी और लक्ष्मीवान क्यों न हो, किंतु बिना सत्य के वास्तविक कीर्ति नहीं हो सकती। इसलिए जहां सत्य है, वहीं मैं रहूंगा।’ राजा बोले - ‘बहुत अच्छा।’

तदनंतर यज्ञ आया। राजा ने उससे पूछा - ‘आप कौन हैं और किसलिए आए हैं?’ उसने कहा - ‘मैं वही यज्ञ हूं, जहां सत्य रहता है, वहीं मैं रहता हूं, चाहे कोई कितना भी दानशील और लक्ष्मीवान क्यों न हो, किंतु बिना सत्य के यज्ञ शोभा नहीं देता। आपमें सत्य है, अत: मैं यहीं रहूंगा।’ राजा बोले - ‘बहुत अच्छा।’

तत्पश्चात दान आया। राजा ने उससे भी पूछा - ‘आप कौन हैं और कैसे आए हैं?’ उसने कहा - ‘मैं वही दान हूं। आपमें सत्य विराजमान है और जहां सत्य रहता है वहीं मैं रहता हीं; क्योंकि कोई कितना ही लक्ष्मीवान क्यों न हो, बिना सद्भाव के दान नहीं दे सकता। आपके यहां सत्य है, इसलिए मैं यहीं रहूंगा।’ राजा बोले - ‘बहुत अच्छा।’

इसके अनंतर लक्ष्मी आई। राजा ने पूछा - ‘आप कौन हैं और क्यों आई है?’ उसने कहा - ‘मैं वही लक्ष्मी हूं। आपके यहां सत्य विराजमान है। आपके यहां यश, यज्ञ, दान भी लौट आए है। इसलिए मैं भी लौट आई हूं।’ राजा बोले - ‘देवि! यहां तो दारिद्र्य भरा हुआ है, आप कैसे निवास करेंगी? लक्ष्मी ने कहा - राजन्! जो कुछ भी हो, मैं सत्य को छोड़कर नहीं रह सकती।’ राजा बोले - ‘जैसी आपकी इच्छा।’

तदनंतर वहां स्वयं धर्मराज उसी ब्राह्मण के रूप में आए। राजा ने पूछा- ‘आप कौन हैं और कैसे आए हैं?’ धर्मराज बोले - ‘मैं साक्षात धर्म हूं, मैं ही ब्राह्मण का रूप धारण करके एक हजार रुपए में आपको दारिद्र्य दे दया था। आपने सत्य के बल से मुझ धर्म को जीत लिया। मैं आपको वर देने के लिए आया हूं, बतलाइए, मैं आपका कौन-सा अभीष्ट कार्य करूं?’ राजा ने कहा - ‘आपकी कृपा है। मुझको कुछ भी नहीं चाहिए। आप जिस प्रकार सदा करते आए हैं, उसी प्रकार करते रहिए।’

इस दृष्टांत से यह सिद्ध हो गया कि जहां सत्य है, वहां सब कुछ है। वहां कभी संपत्ति, दान, यज्ञ, यश की कमी भी हो जाए तो मनुष्य को घबराना नहीं चाहिए। यदि सत्य कायम रहेगा तो ये सभी आप ही लौट आएंगे और ये न आएं तो भी कोई हानि नहीं, उसका परम कल्याण है। अत: कल्याणकामी पुरुष को सत्य का कभी त्याग नहीं करना चाहिए, बल्कि निष्काम भाव से उसका अवश्य दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए।

यथार्थ भाषण, सद्गुण और सदाचार का नाम ही सत्य है। भगवान ने गीता में कहा है -

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्द: पार्थ युज्यते।।
यज्ञे तपसि दाने च स्थिति: सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते।।

‘सत्-इस प्रकार यह परमात्मा का नाम सत्यभाव (परमात्मा के अस्तित्व) में और श्रेष्ठभाव (सद्गुण) में प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ! उत्तम कर्म (सदाचार) में भी सत् शब्द का प्रयोग किया जाता है तथा यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति (निष्ठा) है वह भी ‘सत्’ इस प्रकार कही जाती है और उस परमात्मा के लिए किया हुआ (भगवदर्थ) कर्म तो निश्चय ही ‘सत्’ ऐसे कहा जाता है।’

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