सागर-मंथन की कथा से शिव (shiva) का रूप निखरता है। ऋग्वेद में जहाँ सूर्य, वरूण,वायु, अग्नि, इंद्र आदि प्राकृतिक शक्तियों की उपासना है वहीं ‘रूद्र’ का भी उल्लेख है। पर विनाशकारी शक्तियों के प्रतीक ‘रूद्र’ गौण देवता थे।
सागर- मंथन के बाद शायद ‘रूद्र’ नए रूप में ‘शिव’ बने। ‘शिव’ तथा ‘शंकर’ दोनों का अर्थ कल्याणकारी होता है। अंतिम विश्लेषण में विध्वंसक शक्ति कल्याणकारी भी होती है – यदि वह न हो तो जिंदगी भार बन जाय और दुनिया बसने के योग्य न रहे। आखिर कालकूट पीनेवाले ने समाज का महान् कल्याण किया।
भगवान शिव का रूप विचित्र अमंगल है। नंग – धड़ंग, शरीर पर राख मले, जटाजूटधारी, सर्प लपेटे, गले में हडिडयों एवं नरमूंडों की माला और जिसके भूत – प्रेत, पिशाच आदि गण हैं। ये औघड़दानी सभी के लिए सुगम्य थे।
देव तथ असुर सभी को बिना सोचे – समझे वरदान दे बैठते। एक बार भस्मासुर ने वरदान प्राप्त कर लिया कि वह जिसके ऊपर हाथ रखे वह भस्म हो जाय।
तब यह सोचकर कि शिव कहीं दूसरे को ऐसा वरदान न दें, वह उन्हीं पर हाथ रखने दौड़ा । शिव सारे संसार में भागते फिरे। अंत में भगवान् सुंदरी ‘तिलोत्तमा’ का रूप धरकर नृत्य करने लगे। भस्मासुर मोहित होकर साथ में उसी प्रकार नाचने लगा।
तिलोत्तमा ने नृत्य की मुद्रा में अपने सिर पर हाथ रखा, दूसरा हाथ कटि पर रखना नृत्य की साधारण प्रारंभिक मुद्रा है। भस्मासुर ने नकल करते हुए जैसे ही हाथ अपने सिर पर रख, वह स्वयं वरदान के अनुसार भस्म हो गया।
शायद किसी असुर ने अग्नि के ऊपर यांत्रिक सिद्धि प्राप्त की और उससे संहारक शक्ति को नष्ट करने की सोची। पर संहारक शक्ति को नष्ट करने की सोची।
पर संहारक शक्ति को इस प्रकार नष्ट नहीं किया जा सकता और वह स्वयं नष्ट हो गया। शिव का उक्त रूप उस समय के सभी अंधविश्वासों से युक्त सामान्य लोगों का प्रतीक है। असुर भी शिव के उपासक थे।
संभवतया समाज – मंथन के समय साधारण लोगों को तुष्ट करने के लिए उनके रूप में ढले ‘रूद्र’ को ‘महादेव’ तथा ‘महेश’ कहकर पुकारने लगे। इस प्रकार ‘महा’ उपसर्ग लगाकर संतुष्ट करना है।
कुछ पुरातत्वज्ञ यह मानते हैं कि शंकर दक्षिण के देवता थे, इसीलिए घोषित किया गया कि वह कैलास पर रम रहे। पार्वती उत्तर हिमालय की कन्या थी। उसने शिव की प्राप्ति के लिए कन्याकुमारी जाकर तपस्या की।
आज भी कुमारी अंतरीप में, जहाँ सागर की ओर मुंह करके खड़े होने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, उनकी मूर्ति उत्तर की, अपने आराध्य देव कैलास आसीन शिव की ओर मुंह करके खड़ी है। यह भारत की एकता का प्रतीक है। मानो शिव – पार्वती की विवाह से दक्षिण – उत्तर भारत एक हो गया।
शिव का चिन्ह मानकर शिवलिंग की पूजा बुद्ध के कालखंड के पूर्व आई । वनवासी से लेकर सभी साधारण व्यक्ति जिस चिन्ह की पूजा कर सकें,उस पत्थर के ढेले, बटिया को शिव का चिन्ह माना।
विक्रम संवत् के कुछ सहस्राब्दी पूर्व उल्कापात का अधिक प्रकोप हुआ। आदि मानव को यह रूद्र का आविर्भाव दिखा।
"शिव पुराण के अनुसार उस समय आकाश से ज्योति पिंड पृथ्वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया । यही उल्का पिंड बारह ज्योतिर्लिंग कहलाए।" इसी कारण उल्का पिंड से आकार में मिलती बटिया रूद्र या शिव का प्रतीक बनी।
किंवदंती है कि शिव का पहला विवाह दक्ष प्रजापति की कन्या सती से हुआ था। प्रजापतियों के यज्ञ में दक्ष ने घमंड में शाप दिया,
'अब इंद्रादि देवताओं के साथ इसे यज्ञ का भाग न मिले।'
और क्रोध में चले गये। तब नंदी (शिव के वाहन) ने दक्ष को शाप देने के साथ-साथ यज्ञकर्ता ब्राम्हणों को, जो दक्ष की बातें सुनकर हँसे थे, शाप दिया,
'जो कर्मकांडी ब्राम्हण दक्ष के पीछे चलने वाले हैं वे केवल पेट पालने के लिए विद्या, तप, व्रतादि का आश्रय लें तथा धन, शरीर और इंद्रिय-सुख को ही सुख मानकर इन्हीं के गुलाम बनकर दुनिया में भीख मांगते भटकें।'
इस पर भृगु ने शाप दिया,
'जो शौचाचारविहीन, मंदबुद्वि तथा जटा, राख और हड्डियों को धारण करने वाले हों वे ही शैव संप्रदाय में दीक्षित हों, जिनमें सुरा और आसव देवता समान आदरणीय हों। तुम पाखंड मार्ग में जाओ, जिनमें भूतों के सरदार तुम्हारे इष्टदेव निवास करते हैं।'
जैसे कर्मकांडी ब्राम्हण या जैसी तांत्रिक क्रियाएँ शैव संप्रदाय में बाद में आई, ये शाप उनका संकेत करते है।
अधिक समय बीतने पर दक्ष ने महायज्ञ किया। उसमें सभी को बुलाया, पर अपनी प्रिय पुत्री सती एवं शिव को नहीं। सती का स्त्री-सुलभ मन न माना और मना करने पर भी अपने पिता दक्ष के यहाँ गई। पर पिता द्वारा शिव की अवहेलना से दु:खित होकर सती ने प्राण त्याग दिए। जब शिव ने यह सुना तो एक जटा से अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हजारों भुजाओं वाले रूद्र के अंश-वीरभद्र –को जन्म दिया।
उसने दक्ष का महायक्ष विध्वंस कर डाला।भगवान शिव ने अपनी प्रिया सती के शव को लेकर भयंकर संहारक तांडव किया। "जब संसार जलने लगा और किसी का कुछ कहने का साहस न हुआ तब भगवान ने सुदर्शन चक्र से शव का एक-एक अंश काट दिया। शव विहीन होकर शिव शांत हुए। जहाँ भिन्न-भिन्न अंक कटकर गिरे वहाँ शक्तिपीठ बने।"
ये १०८ शक्तिपीठ, जो गांधार (आधुनिक कंधार और बलूचिस्तान) से लेकर ब्रम्हदेश (आधुनिक म्याँमार) तक फैले हैं, देवी की उपासना के केंद्र हैं।
माता सती के शरीर के टुकड़े मानो इस मिट्टी से एकाकार हो गए-सती मातृरूपा भरतभूमि है। यही माता सती अगले जन्म में हिमालय की पुत्री पार्वती हुई (हिमालय की गोद में बसी यह भरतभूमि मानो उसकी पुत्री है)।
भगवान शिव के उपासक शैव,भगवान विष्णु के उपासक वैष्णव तथा शक्ति (देवी) के उपासक शाक्त कहलाए। शिव और सती को लोग पुसत्व एवं मातृशक्ति के प्रतीक के रूप में भी देखते हैं। इस प्रकार का अलंकार प्राय: सभी प्राचीन सभ्यताओं में आता है। यह शिव-सती की कहानी शैव एवं शाक्त मतों का समन्वय भी करती है।
शैव एवं वैष्णव मतों के भेद भारत के ऎतिहासिक काल में उठे हैं। इसकी झलक रामचरितमानस में मिलती है। शिव ने माता पार्वती को राम का परिचय 'भगवान' कहकर दिया,भगवान राम के द्वारा रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना हई। दोनों ने कहा कि उनका भक्त दूसरे का द्रोही नहीं हो सकता। यह शैव एवं वैष्णव संप्रदायों के मतभेद (यदि रहे हों) की समाप्ति की घोषणा है।
शिव को तंत्र का अधिष्ठाता कहा गया है। इसी से शैव एवं शाक्त संप्रदायों में तांत्रिक क्रियायें आईं। तंत्र का शाब्दिक अर्थ ‘तन को त्राण देने वाला’ है, जिसके द्वारा शरीर को राहत मिले। वैसे तो योगासन भी मन और शरीर दोनों को शांति पहुँचाने की क्रिया है।
तंत्र का उद्देश्य भय, घृणा, लज्जा आदि शरीर के सभी प्रारंभिक भावों पर विजय प्राप्त करना है। मृत्यु का भय सबसे बड़ा है। इसी से श्मशान में अथवा शव के ऊपर बैठकर साधना करना, भूत-प्रेत सिद्ध करना, अघोरपंथीपन, जटाजूट, राख मला हुआ नंग-धड़ंग, नरमुंड तथा हडिड्ओं का हार आदि कल्पनायें आईं।
तांत्रिक यह समझते थे कि वे इससे चमत्कार करने की सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। देखें – बंकिमचंद्र का उपन्यास ‘कपाल-कुंडला’। यह विकृति ‘वामपंथ’ में प्रकट हुई जिसमें मांस-मदिरा, व्यसन और भोग को ही संपूर्ण सुख माना।
ययाति की कहानी भूल गए कि भोग से तृष्णा बढ़ती है, कभी शांत नहीं होती। जब कभी ऐसा जीवन उत्पन्न हुआ तो सभ्यता मर गई। भगवान शिव जी का रूप विरोधी विचारों के दो छोर लिये है।
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