Sunday, 29 May 2016

॥ वज्रसूचिका उपनिषत् ॥


वज्रसूच्युपनिषत् (वज्रसूचिका उपनिषत्) यह उपनिषद सामवेद से सम्बद्ध है ! इसमें कुल ९ मंत्र हैं !
सर्वप्रथम चारों वर्णों में से ब्राह्मण की प्रधानता का उल्लेख किया गया है तथा ब्राह्मण कौन है, इसके लिए कई प्रश्न किये गए हैं !
क्या ब्राह्मण जीव है ? शरीर है, जाति है, ज्ञान है, कर्म है, या धार्मिकता है ?
इन सब संभावनाओं का निरसन कोई ना कोई कारण बताकर कर दिया गया है , अंत में ‘ब्राह्मण’ की परिभाषा बताते हुए उपनिषदकार कहते हैं कि जो समस्त दोषों से रहित, अद्वितीय, आत्मतत्व से संपृक्त है, वह ब्राह्मण है ! चूँकि आत्मतत्व सत्, चित्त, आनंद रूप ब्रह्म भाव से युक्त होता है, इसलिए इस ब्रह्म भाव से संपन्न मनुष्य को ही (सच्चा) ब्राह्मण कहा जा सकता है !
॥ वज्रसूचिका उपनिषत् ॥
॥ श्री गुरुभ्यो नमः हरिः ॐ ॥
यज्ञ्ज्ञानाद्यान्ति मुनयो ब्राह्मण्यं परमाद्भुतम् ।
तत्रैपद्ब्रह्मतत्त्वमहमस्मीति चिन्तये ॥
ॐ आप्यायन्त्विति शान्तिः ॥
चित्सदानन्दरूपाय सर्वधीवृत्तिसाक्षिणे ।
नमो वेदान्तवेद्याय ब्रह्मणेऽनन्तरूपिणे ॥
ॐ वज्रसूचीं प्रवक्ष्यामि शास्त्रमज्ञानभेदनम् ।
दूषणं ज्ञानहीनानां भूषणं ज्ञानचक्षुषाम् ॥ १॥
अज्ञान नाशक, ज्ञानहीनों के दूषण, ज्ञान नेत्र वालों के भूषन रूप वज्रसूची उपनिषद का वर्णन करता हूँ !!
ब्राह्मक्षत्रियवैष्यशूद्रा इति चत्वारो वर्णास्तेषां वर्णानां ब्राह्मण एव
प्रधान इति वेदवचनानुरूपं स्मृतिभिरप्युक्तम् ।
तत्र चोद्यमस्ति को वा ब्राह्मणो नाम किं जीवः किं देहः किं जातिः किं
ज्ञानं किं कर्म किं धार्मिक इति ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं ! इन वर्णों में ब्राह्मण ही प्रधान है, ऐसा वेद वचन है और स्मृति में भी वर्णित है !
अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि ब्राह्मण कौन है ? क्या वह जीव है अथवा कोई शरीर है अथवा जाति अथवा कर्म अथवा ज्ञान अथवा धार्मिकता है ?
तत्र प्रथमो जीवो ब्राह्मण इति चेत् तन्न । अतीतानागतानेकदेहानां
जीवस्यैकरूपत्वात् एकस्यापि कर्मवशादनेकदेहसम्भवात् सर्वशरीराणां
जीवस्यैकरूपत्वाच्च । तस्मात् न जीवो ब्राह्मण इति ॥
क्या जीव ब्राह्मण (हो सकता) है?
इस स्थिति में यदि सर्वप्रथम जीव को ही ब्राह्मण मानें ( कि ब्राह्मण जीव है), तो यह संभव नहीं है; क्योंकि भूतकाल और भविष्यतकाल में अनेक जीव हुए होंगें ! उन सबका स्वरुप भी एक जैसा ही होता है !
जीव एक होने पर भी स्व-स्व कर्मों के अनुसार उनका जन्म होता है और समस्त शरीरों में, जीवों में एकत्व रहता है, इसलिए केवल जीव को ब्राह्मण नहीं कह सकते !
तर्हि देहो ब्राह्मण इति चेत् तन्न ।
आचाण्डालादिपर्यन्तानां मनुष्याणां
पञ्चभौतिकत्वेन देहस्यैकरूपत्वात्
जरामरणधर्माधर्मादिसाम्यदर्शनत् ब्राह्मणः श्वेतवर्णः क्षत्रियो
रक्तवर्णो वैश्यः पीतवर्णः शूद्रः कृष्णवर्णः इति नियमाभावात् ।
पित्रादिशरीरदहने पुत्रादीनां ब्रह्महत्यादिदोषसम्भवाच्च ।
तस्मात् न देहो ब्राह्मण इति ॥
क्या शरीर ब्राह्मण (हो सकता) है?
नहीं, यह भी नहीं हो सकता ! चांडाल से लेकर सभी मानवों के शरीर एक जैसे ही अर्थात पांचभौतिक होते हैं,
उनमें जरा-मरण, धर्म-अधर्म आदि सभी सामान होते हैं ! ब्राह्मण- गौर वर्ण, क्षत्रिय- रक्त वर्ण , वैश्य- पीत वर्ण और शूद्र- कृष्ण वर्ण वाला ही हो,
ऐसा कोई नियम देखने में नहीं आता तथा (यदि शरीर ब्राह्मण है तो ) पिता, भाई के दाह संस्कार करने से पुत्र आदि को ब्रह्म हत्या का दोष भी लग सकता है !
अस्तु, केवल शरीर का ब्राह्मण होना भी संभव नहीं है !!
तर्हि जाति ब्राह्मण इति चेत् तन्न । तत्र
जात्यन्तरजन्तुष्वनेकजातिसम्भवात् महर्षयो बहवः सन्ति ।
ऋष्यशृङ्गो मृग्याः, कौशिकः कुशात्, जाम्बूको जाम्बूकात्, वाल्मीको
वाल्मीकात्, व्यासः कैवर्तकन्यकायाम्, शशपृष्ठात् गौतमः,
वसिष्ठ उर्वश्याम्, अगस्त्यः कलशे जात इति शृतत्वात् । एतेषां
जात्या विनाप्यग्रे ज्ञानप्रतिपादिता ऋषयो बहवः सन्ति । तस्मात्
न जाति ब्राह्मण इति ॥
क्या जाति ब्राह्मण है?
( अर्थात ब्राह्मण कोई जाति है )? नहीं, यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि विभिन्न जातियों एवं प्रजातियों में भी बहुत से ऋषियों की उत्पत्ति वर्णित है !
जैसे – मृगी से श्रृंगी ऋषि की, कुश से कौशिक की, जम्बुक से जाम्बूक की, वाल्मिक से वाल्मीकि की, मल्लाह कन्या (मत्स्यगंधा) से वेदव्यास की, शशक पृष्ठ से गौतम की, उर्वशी से वसिष्ठ की, कुम्भ से अगस्त्य ऋषि की उत्पत्ति वर्णित है ! इस प्रकार पूर्व में ही कई ऋषि बिना (ब्राह्मण) जाति के ही प्रकांड विद्वान् हुए हैं, इसलिए केवल कोई जाति विशेष भी ब्राह्मण नहीं हो सकती है !
तर्हि ज्ञानं ब्राह्मण इति चेत् तन्न ।
क्षत्रियादयोऽपि
परमार्थदर्शिनोऽभिज्ञा बहवः सन्ति ।
तस्मात् न ज्ञानं ब्राह्मण इति ॥
क्या ज्ञान को ब्राह्मण माना जाये?
ऐसा भी नहीं हो सकता; क्योंकि बहुत से क्षत्रिय (रजा जनक) आदि भी परमार्थ दर्शन के ज्ञाता हुए हैं (होते हैं) ! अस्तु, केवल ज्ञान भी ब्राह्मण नहीं हो सकता है !
तर्हि कर्म ब्राह्मण इति चेत् तन्न ।
सर्वेषां प्राणिनां
प्रारब्धसञ्चितागामिकर्मसाधर्म्यदर्शनात्कर्माभिप्रेरिताः सन्तो जनाः
क्रियाः कुर्वन्तीति ।
तस्मात् न कर्म ब्राह्मण इति ॥
तो क्या कर्म को ब्राह्मण माना जाये?
नहीं ऐसा भी संभव नहीं है; क्योंकि समस्त प्राणियों के संचित, प्रारब्ध और आगामी कर्मों में साम्य प्रतीत होता है
तथा कर्माभिप्रेरित होकर ही व्यक्ति क्रिया करते हैं !
अतः केवल कर्म को भी ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता है !!
तर्हि धार्मिको ब्राह्मण इति चेत् तन्न ।
क्षत्रियादयो हिरण्यदातारो बहवः
सन्ति ।
तस्मात् न धार्मिको ब्राह्मण इति ॥
क्या धार्मिक, ब्राह्मण हो सकता है?
यह भी सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि क्षत्रिय आदि बहुत से लोग स्वर्ण आदि का दान-पुण्य करते रहते हैं !
अतः केवल धार्मिक भी ब्राह्मण नहीं हो सकता है !!
तर्हि को वा ब्रह्मणो नाम ।
यः कश्चिदात्मानमद्वितीयं जातिगुणक्रियाहीनं
षडूर्मिषड्भावेत्यादिसर्वदोषरहितं सत्यज्ञानानन्दानन्तस्वरूपं
स्वयं निर्विकल्पमशेषकल्पाधारमशेषभूतान्तर्यामित्वेन
वर्तमानमन्तर्यहिश्चाकाशवदनुस्यूतमखण्डानन्दस्वभावमप्रमेयं
अनुभवैकवेद्यमपरोक्षतया भासमानं करतळामलकवत्साक्षादपरोक्षीकृत्य
कृतार्थतया कामरागादिदोषरहितः शमदमादिसम्पन्नो भाव मात्सर्य
तृष्णा आशा मोहादिरहितो दम्भाहङ्कारदिभिरसंस्पृष्टचेता वर्तत
एवमुक्तलक्षणो यः स एव ब्राह्मणेति शृतिस्मृतीतिहासपुराणाभ्यामभिप्रायः
अन्यथा हि ब्राह्मणत्वसिद्धिर्नास्त्येव ।
सच्चिदानान्दमात्मानमद्वितीयं ब्रह्म भावयेदित्युपनिषत् ॥
ॐ आप्यायन्त्विति शान्तिः ॥
॥ इति वज्रसूच्युपनिषत्समाप्ता ॥
॥ भारतीरमणमुख्यप्राणन्तर्गत श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
तब ब्राह्मण किसे माना जाये?
(इसका उत्तर देते हुए उपनिषत्कार कहते हैं ) –
जो आत्मा के द्वैत भाव से युक्त ना हो; जाति गुण और क्रिया से भी युक्त ण हो; षड उर्मियों और षडभावों आदि समस्त दोषों से मुक्त हो; सत्य, ज्ञान, आनंद स्वरुप, स्वयं निर्विकल्प स्थिति में रहने वाला , अशेष कल्पों का आधार रूप , समस्त प्राणियों के अंतस में निवास करने वाला , अन्दर-बाहर आकाशवत संव्याप्त ; अखंड आनंद्वान , अप्रमेय, अनुभवगम्य , अप्रत्येक्ष भासित होने वाले आत्मा का करतल आमलकवत परोक्ष का भी साक्षात्कार करने वाला; काम-रागद्वेष आदि दोषों से रहित होकर कृतार्थ हो जाने वाला ; शम-दम आदि से संपन्न ; मात्सर्य , तृष्णा , आशा,मोह आदि भावों से रहित; दंभ, अहंकार आदि दोषों से चित्त को सर्वथा अलग रखने वाला हो, वही ब्राह्मण है;
ऐसा श्रुति, स्मृति-पूरण और इतिहास का अभिप्राय है ! इस (अभिप्राय) के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार से ब्राह्मणत्व सिद्ध नहीं हो सकता ! आत्मा सत्-चित और आनंद स्वरुप तथा अद्वितीय है ! इस प्रकार ब्रह्मभाव से संपन्न मनुष्यों को ही ब्राह्मण माना जा सकता है ! यही उपनिषद का मत है !

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