Saturday, 14 May 2016

हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद


अमृत-मंथन से अंकुरित, विभिन्‍नताओं के बीच अनेक उपासना पद्धतियों का समन्‍वय करते हुए, सभी प्रकार के मत-मतांतरों को समेटकर एक सहिष्‍णु सामाजिक जीवन देवों के उपासकों के देश में प्रारंभ हुआ। पर असुरों के उपासक भारत से गए नहीं। अगली कहानी असुर राजा हिरण्‍यकशिपु की है।

‘हिरण्‍यकशिपु तथा हिरण्‍याक्ष दो जुड़वां भाई थे। जिस समय वे पैदा हुए, पृथ्‍वी एवं अंतरिक्ष में अनेक उत्‍पात होने लगे। पृथ्‍वी और पर्वत काँपने लगे, सब दिशाओं में दाह होने लगा। उल्‍कापात होने लगा और बिजलियाँ गिरने लगीं। घटायें छा गईं। समुद्र कोलाहल करने लगा। बिना बादलों के गरजने का शब्‍द होने लगा तथा गुफाओं से रथ की घरघराहट-सा शब्‍द निकलने लगा।

पशु अमंगल शब्‍द करते, रेंकते, पागल होकर इधर-उधर दौड़ने लगे और मल-मूत्र त्‍याग करने लगे। ये दोनों दैत्‍य सहसा अपने फौलाद के समान कठोर शरीर से पर्वताकार हो गए। उनका हेमकिरीट स्‍वर्ग को छूता था। जब वे कदम रखते तब भूकंप आता।‘

श्रीमद्भागवत का यह वर्णन ज्‍वालामुखी पर्वतों के जन्‍म का है। हिरण्‍याक्ष तो वाराह के समय नष्‍ट हो गया, हिरण्‍यकशिपु सहस्‍त्रों शताब्दियों तक जीवित रहा। हिरण्‍यकशिपु का शाब्दिक अर्थ ‘स्‍वर्ण कछुआ’ या ‘स्‍वर्ण पर्वत’ है।

कालांतर में एक असुर राजा हुआ जो ‘हिरण्‍यकशिपु’ अर्थात् उस ज्‍वालामुखी का पुजारी या प्रवक्‍ता बना। इसी से वह स्‍वयं हिरण्‍यकशिपु कहलाया। असुरों को इस प्रकार शक्ति दिखाने की माया आती थी। कहते हैं, हिरण्‍यकशिपु राजा ने तप किया।

(ज्‍वालामुखी का आगे वर्णन चलता है) जब बहुत दिनों तक तपस्‍या करते वह मिट्टी के ढेर में छिप गया तब उसके सिर से अग्नि धुएँ के साथ निकलने लगी और लोगों को जलाने लगी। उसकी लपट से नदी और समुद्र खौलने लगे। द्वीप एवं पर्वतों सहित पृथ्‍वी डगमगाने लगी। दसों दिशाओं में आग लग गई। तब ब्रम्‍हा वहाँ गये । हिरण्‍यकशिपु ने वर माँगा—

'आपके बनाए किसी प्राणी, मनुष्‍य, पशु, देवता, दैत्‍य, नागादि किसी से मेरी मृत्‍यु न हो। मैं समस्‍त प्राणियों पर राज्‍य करूं।‘

ब्रम्‍हा से वरदान पाकर दैत्‍यराज ने समस्‍त प्राणियों को जीतकर अपने वश में कर लिया। पृथ्‍वी के सातों द्वीपों पर उसका अखंड राज्‍य था। ऐश्‍वर्य के मद में मतवाला और घमंड में चूर होकर उसने अपने को ‘भगवान’ प्रसिद्ध किया और अत्‍याचारी बना।

जब हिरण्‍यकशिपु तप के द्वारा शक्ति बटोर रहा था, उसकी रानी ने नारद के आश्रम में शरण ली। वहाँ प्रहलाद नामक पुत्र पैदा हुआ। आश्रम के संस्‍कारों के कारण वह समस्‍त प्राणियों के साथ समता का बरताव करने वाला, सबका प्रिय, हितैषी एवं गुणी हुआ। हिरण्‍यकशिपु के लौटने पर प्रहलाद ने कहा,

‘अपने-पराए का भेदभाव झूठा है। इसे अज्ञानी करते हैं। भगवान सबके अन्‍दर, सब जगह है।‘

प्रहलाद ने अपने पिता को भगवान मानने से इंकार किया और समझाने में न आया। अपने साथियों को भी आसुरी प्रवृत्ति और विषयों में आसक्ति त्‍याग सबकी भलाई करने की सलाह दी। हिरण्‍यकशिपु ने पहले ताड़ना दी, फिर उसके मरवाने के यत्‍न किए। उसे मतवाले हाथी के सामने डाला गया, पर हाथी ने उठा लिया। विषधर साँपों का उस पर कोई असर नहीं हुआ। पहाड़ की चोटी से नीचे गिराने तथा चट्टान से दबाने पर भी वह बच गया।

हिरण्‍यकशिपु को चिंति‍त देख उसकी बहन होलिका ने प्रहलाद को लेकर अग्नि में प्रवेश करने का प्रस्‍ताव रखा। होलिका को वर प्राप्‍त था कि वह स्‍वयं अग्नि में न जलेगी। पर जब होलिका प्रहलाद को गोद में ले चिता पर बैठी तो एक चमत्‍कार हुआ।

होलिका जल गई—दूसरे के साथ, हृदय में पाप लेकर जो बैठी थी। पर प्रहलाद को अग्नि ने छुआ भी नहीं। प्रहलाद रूपी संस्‍कृति बच गई। तभी फाल्‍गुन की पूर्णिमा को इसी स्‍मृति में प्रति वर्ष पतझड़ के पत्‍ते और डाल इकट्ठा कर होली जलाते हैं। और अगले दिन प्रहलाद के जीवित निकलने के उपलक्ष्‍य में रंग और गुलाल डालकर तथा गले मिलकर बधाई देते और खुशियाँ मनाते हैं।

तब हिरण्‍यकशिपु ने प्रहलाद से पूछा,

‘किसके बलबूते पर तू मेरी आज्ञा के विरूद्ध कार्य करता है ?’
प्रहलाद ने कहा,

‘आप अपना असुरभाव छोड़ दें । सबके प्रति समता का भाव लाना ही भगवान की पूजा है।‘

हिरण्‍यकशिपु क्रोध में कहा,

'तू मेरे सिवा किसी और को जगत का स्‍वामी बताता है। कहाँ है वह तेरा जगदीश्‍वर ? क्‍या इस खंभे में है जिससे तू बँधा है ?’

कह कर खंभे में घूँसा मारा। तभी खंभा भयंकर शब्‍द के साथ फट गया और उसमें से एक डरावना रूप प्रकट हुआ। सिर सिंह का और धड़ मनुष्‍य का, पीली आँखें, जम्‍हाई लेते समय लहराती अयाल, विकराल डाढ़ें, तलवार-सी लपलपाती जीभ। सिंह का भयानक मुख और अनेक बड़े नखों से युक्‍त हाथ कँपकँपी पैदा करते थ। यही ‘नृसिंह अवतार’ है।

वेग से नृसिंह ने हिरण्‍यकशिपु को पकड़ लिया और द्वाभा की वेला में (न दिन में, न रात में), सभा की देहली पर (न बाहर, न भीतर), अपनी जाँघों पर रखकर (न भूमि पर, न आकाश में), अपने नखों से (न अस्‍त्र से, न शास्‍त्र से) उसका कलेजा फाड़ डाला। हजारों सैनिक जो प्रहार करने आए, उन्‍हें नृसिंह ने हजारों भुजाओं और नख रूपा शस्‍त्रों से खदेड़कर मार डाला।

फिर क्रोध से उद्दीप्‍त नृसिंह सिंहासन पर जा बैठा। किसी को पास जाने का साहस न हुआ। तब प्रहलाद ने दंडवत हो उसकी प्रार्थना की। प्रहलाद का राजतिलक करने के बाद नृसिंह चले गये।

नृसिंह अपने सहस्‍त्रों हाथों सहित समाज का क्रोधित अर्द्ध जंगली स्‍वरूप है। उस समय समाज पशुभाव से पूर्णरूपेण उठ नहीं पाया था। प्रहलाद रूपी संस्‍कृति ने समता का – सभी वस्‍तुओं में भगवान के दर्शन का-संदेश दिया। उसकी रक्षा समाज ने सत्‍ता के विरूद्ध विद्रोह करके और अपना क्रोध दिखाकर की। उस अत्‍याचारी का, जो लगता था कि अमर है, हनन किया। संस्‍कृति की रक्षा हुई और समाज का कार्य संपन्‍न हुआ।

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