Saturday 14 May 2016

कृष्ण लीला :-


दु:ख और जोखिम से भरा कृष्‍ण का बहुआयामी जीवन अगले अवतार की कहानी है। इस दुनिया का कौन सा ऐसा कष्‍ट है जो कृष्‍ण ने मुसकराते न झेला हो; कौन सा संकट है जिसका युक्ति से निराकरण न किया हो।

क्‍या कहा जाय उसे, जिसके माता-पिता यौवन की दहलीज पर कारागार में डाल दिए गए हों ! जिसके छह अग्रज जन्मते ही मार डाले गए। जन्‍म के समय जिसकी आँखें कारागार में खुलीं। जिसने माता-पिता का सुख कभी देखा नहीं आर उनके रहते लालन-पालन पराए घर में हुआ।

गोप-गोपियों के बीच गौएँ चराकर जिसका बचपन बीता। और ऐसे समय मृत्‍यु के घाट उतारने में जिसके मामा ने कोई कसर बाकी न रखी। जिसके भाग्‍य मेंजन्‍म-स्‍थान और लालन-पालन के स्‍थान छोड़कर दूर द्वारका में शरण लेना बदा था। रण छोड़कर भागना पड़ा, इसी से ‘रणछोड़’ कहलाया।

मणि चुराने का झूठा अपवाद सहन करना पड़ा। सारा जीवन अन्‍याय के विरूद्ध संघर्ष करते बीता। राजसूय यज्ञ में अपने लिए जिसने जूते रखने का कार्य चुना। सर्वगुण-संपन्‍न होने के बाद भी अर्जुन के रथ को हाँकने वाला सारथि बना। सदा विजय होने के बाद भी कभी राजा बनना नहीं स्‍वीकारा।

महाभारत में जिसने चार अक्षौहिणी सेना विरूद्ध पक्ष को देकर नष्‍ट होने दी। जिसने गांधारी के क्रोध और ‘तुम्‍हारे भी कुल का सर्वनाश हो जाय’, इस दारूण शाप को हँसते हुए सिर-माथे पर लगाया, कहा,

‘तुम्‍हारे ज्ञान चक्षु होते तो तुम समझतीं कि हर बार मैं ही मरा हूँ।‘

उसके बाद अपने यादव वंश को अपने सामने नष्‍ट होते देखा। कुल की ललनाओं का अपहरण हो गया, उन्‍हें महाबली अर्जुन भी न बचा सके और जिस परम वीर की मृत्‍यु जंगली जंतु की भाँति व्‍याध के हाथों हुई।

इस संकटापन्‍न जीवन में सदा धर्म की मर्यादा बनाए रखी, उसी के अनुगामी बने। सर्वदा उसी का समर्थन। हँसते-हँसते महाविपत्तियों को झेला। मानो महाकाल को भी चुनौती दी। युद्ध न हो, यही सतत प्रयत्‍न; पर जब युद्ध अवश्‍यंभावी दिखा तो विजय की कामना ही मूल मंत्र बनी।

जिसने ‘गीता’ में समस्‍त वेद- उपनिषदों का सारतत्‍व गाया, भारतीय दर्शन का चरम सत्‍य समझाया। नृत्‍य, गान आदि ललित कलाओं का प्रवर्तक; सौंदर्य, माधुर्य, भक्ति और प्रेम रस की खान, वह योगेश्‍वर बना।

कितना विरोधाभास और विसंगतियाँ आईं, द्वंदात्‍मक परिस्थितियाँ उभरीं; पर उनके बीच से निष्‍पाप निकलने का मार्ग बनाया। रामावतार विष्‍णु की बारह कलाओं का था पर सभी सोलह कलाओं से युक्‍त विष्‍णु का पूर्णावतार, ऐसा था श्रीकृष्‍ण का चमत्‍कारिक जीवन।

उनके बचपन में ब्रज में इंद्र की पूजा होती थी, जो वर्षा से पृथ्‍वी को सिंचित करता था। बालक कृष्‍ण ने कहा,

‘होंगे इंद्र स्‍वर्ग के राजा, उनसे बड़ी तो हमारी गोवर्द्धन पहाड़ी है, जिसने हमारी गायों को बड़ा किया। पूजा करनी है तो उसी की करो।‘

फिर क्‍या था, ब्रज में उस वर्ष इंद्र के स्‍थान पर गोवर्द्धन की पूजा हुई। तब इंद्र ने कुपित होकर घनघोर वर्षा की। सारी पृथ्‍वी जल-प्‍लावित हो गई। सब भागकर कृष्‍ण के पास गए। तब कृष्‍ण ने कहा,

‘चलो, गोवर्द्धन के पास चलें। उसकी पूजा की है, वही रक्षा करेगा।‘

कहते हैं कि सबने मिलकर उठाया तो पर्वत भी उठ गया। उसके नीचे सबने शरण ली। उस एक सप्‍ताह की घटाटोप वर्षा और कीचड़ से गोवर्द्धन ने ब्रजवासियों तथा उनकी गायों को त्राण दिया। इस प्रकार कृष्‍ण ने जीवन में कृति से बताया कि स्‍वर्ग के राजा से अपनी मातृभूमि की छोटी सी वस्‍तु भी बड़ी है। यदि मिलकर काम करें तो पहाड़ भी उठ जाए; कौन सा ऐसा दु:साध्‍य कार्य है जो सरल नहीं हो जाता।

कृष्ण गोवर्धन पर्वत उठाये हुऐ

कृष्ण की सोलह हजार एक सौ रानियों की की कथा

श्रीमद्भागवत में उस समय का रूपक है—

‘लाखों दैत्‍यों के दल ने घमंडी राजाओं का रूप धारण कर अपने भार से धरती को आक्रांत कर रखा था। उसने गौ का रूप धारण किया। (संस्‍कृत में गो का अर्थ पृथ्‍वी भी होता है।) उसके नेत्रों से आंसू बहकर मुँह में आ रहे थे। मन खिन्‍न था और शरीर कृश हो गया था। वह करूण स्‍वर से रँभा रही थी।‘

परंतु एक-एक कर सभी कष्‍ट- बाधाओं का कृष्‍ण के द्वारा, स्‍वयं अथवा किसी को उपकरण बनाकर, निराकरण हुआ और धर्म का राज्‍य आया।

उनके जीवन में ‘धर्म’ अर्थात विधि (कानून) के प्रवर्तन का शुभ कार्य अनेक कल्पनाओं में फँसकर एक-दो बार निंदा-अपवाद बना। भौमासुर (नरकासुर) ने सोलह हजार एक सौ सुंदरी राजकन्याओं को पकड़कर अपनी राजधानी प्राज्योतिषपुर के बंदीगृह में डाल रखा था।

कृष्ण ने चारों ओर पहाड़ों की किलेबंदी विदीर्ण कर, शस्त्रों की मोरचाबंदी को छिन्न-भिन्न कर, जल से भरी खाई पार कर, अग्नि, बिजली और गैस की चारदीवारियों को तहस-नहस कर, उस नगर के चारो ओर दस हजार फंदों और यंत्रों को काटकर नगर के परकोटे का घ्वंस कर दिया। घनघोर युद्घ में भौमासुर को मारकर उन स्त्रियों का उद्घार किया। उन स्त्रियों ने कहा,

'जैसे हम कोई संपत्ति हो, भौमासुर ने पाशविक बल से हमारा अपहरण किया। समाज की दृष्टि में हम पतित हैं। हम कहां जाएं?'
तब कृष्ण ने उत्तर दिया,

'यदि भौमासुर तुम्हें संपत्ति समझता था तो उसकी पराजय पर तुम मेरी हो। कौन कहेगा कि मेरे द्वारा अंगीकार करने पर तुम पवित्र और सम्मान के योग्य नहीं हो?'

समाज में उनको उचित स्थान दिलाने का कार्य कृष्ण ने किया। यह कृष्ण की कथित सोलह हजार एक सौ रानियों का प्रवाद है।

महाभारत में, कृष्ण की धर्म शिक्षा

महाभारत युद्घ को लेकर ऎसा ही एक वितंडा है। कृष्ण ने कहा,

'धर्म की संस्थापना के लिए मैंने जन्म लिया है।' ('परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।')

इसलिए महाभारत युद्घ धर्मयुद्घ कहा जाता है। उसमें पांडवों का धर्म का पक्ष है और कौरवों का अधर्म का।

धर्म और अधर्म, पाप और पुण्य- ये सनातन प्रश्न हैं। पर कृष्ण का एक उत्तर है। जिन्होंने व्यक्तिगत अहम्मन्यता के वश होकर, जिसके द्वारा समाज की धारणा हो, उस धर्म की अवहेलना की उन्होंने आचार-व्यवहार के एक छोटे व्यक्तिगत अंश का पालन किया होगा।

भीष्म पितामह ने कहा, मैं स्त्री के विरूद्घ हाथ नहीं उठाऊंगा । द्रोणाचार्य, यह जानकर भी कि अश्वत्थामा चिरजीवी है, पुत्र-शोक में विह्वल वेशधारी इंद्र को कवच-कुंडल के दान से कैसे इनकार करते।

दुर्योधन भीम से ही लड़ेगा, इस घमंड ने भीम को चुनौती देने के लिए प्रेरित किया। युद्घ में अधर्म पनपता है। आततायी का हनन और धर्म पक्ष की विजय-कामना-यह समाज-धर्म है और यही शाश्वत है।

युद्घ के श्रीगणेश के समय कृष्ण ने कहा,

'जिधर धर्म है उधर मैं रहता हूं।'
पर अंत में जो करके दिखाया,

'जिधर मैं हूं (अर्थात् जिधर भगवान् का व्यक्त स्वरूप समाज की जीवनी शक्ति है) उधर धर्म है।'
कृष्ण ने बताया,

'जो व्यक्तिगत भावना के वश कार्य करते हैं, पर-समाज की हानि करते हैं वे अधर्म के राही हैं। पांडवों का पक्ष धर्म का था, क्योंकि वह मानव-कल्याण का मार्ग था।'


कृष्ण की मृत्यु और कलियुग की प्रारम्भ

महाभारत के युद्घ में अठारह अक्षौहिणी सेना नष्ट हो गई। (एक अक्षौहिणी में २१,८७० रथ, २१,८७० हाथी, १,०९,३५० पैदल और ६५,६१० घुड़सवार होते थे।) कहते हैं, इसमें ज्ञात संसार के अनेक देशों और जातियों ने भाग लिया। धरती का वह भाग श्मशान तथा मरूभूमि हो गया। ब्रम्हास्त्र (आणविक अस्त्र) तथा आग्नेय अस्त्रों के प्रयोग ने धरती और उस पर सभी कुछ जला डाला।

यह भयानक संहार का मूक साक्षी संभवतया थार का मरूस्थल है। जो भी हो, उसके बाद राजस्थान (भारत) के क्षेत्र में भौमिकीय उथल-पुथल होती रही। सरस्वती नदी, जो पश्चिम की ओर बहकर प्रभाकर प्रभासक्षेत्र में समुद्र में मिलती थी और लहलहाती वनस्पति से भरी शस्य-श्यामला उर्वरा भूमि सूख गई और रेगिस्तान निकल आया।

कृष्ण ने कहा,

'मेरा अभी एक काम शेष है। ये यदुवंशी बल-विक्रम,वीरता-शूरता और धन-संपत्ति से उन्मत्त होकर सारी पृथ्वी ग्रस लेने पर तुली हैं। यदि मैं घमंडी और उच्छृंखल यदुवंशियों का यह विशाल वंश नष्ट किए बिना चला जाऊंगा तो ये सब मर्यादाओं का उल्लंघन कर सब लोकों का संहार कर डालेंगे।'

अंत में कृष्ण के परामर्श से सब प्रभासक्षेत्र में गए। वहां मदिरा में मस्त हो एक-दूसरे से लड़ते 'यादवी' संघर्ष में वे नष्ट हो गए। मानवता का अंतिम कार्य भी पूरा हुआ। बचे लोगों ने कृष्ण के कहने के अनुसार द्वारका छोड़ दी और हस्तिनापुर की शरण ली।

यादवों और उनके भौज्य गणराज्यों के अंत होते ही कृष्ण की बसाई द्वारका सागर में डूब गई। आज भी आधुनिक द्वारका रेलमार्ग से जाया जा सकता है।और वहां से जलयान द्वारा 'बेट द्वारका' पहुंचते हैं। तब द्वीप के पहले, यदि सागर शांत हो तो, तल में डूबी कृष्ण की द्वारका देखी जा सकती है।

कृष्ण की जीवन-लीला समाप्त होते ही कलियुग आया। यह घटना विक्रमी संवत् से ३०४४ वर्ष पहले की है। युधिष्ठिर के राज्य का अंत होते कलिकाल का पदार्पण हो चुका था। उसके उत्पात भी प्रारंभ हो गए।

अपशकुनों के बीच जब युधिष्ठिर को कृष्ण के निधन का समाचार मिला तब पांडवों ने अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को राज्य सौंपकर द्रौपदी सहित स्वर्ग (त्रिविष्टप : आधुनिक तिब्बत) पहुंचने के लिए मानसरोवर की यात्रा की। कुत्ता मानव का साथी रहा है, उसी प्रकार धर्म हिमालय यात्रा में वह उनके साथ चला।

परीक्षित ने कलियुग को बांधने और उसके उत्पातों को क्षीण करने का यत्न किया। अंत में सर्पदंश से उनकी मृत्यु हो गई। इसलिये उनके पुत्र जन्मेजय ने मानवता के कल्याण के लिए सर्प-संहारक 'नागयज्ञ' किया।

भ्रामक पूर्व धारणाएं कैसी कल्पनाओं को जन्म देती हैं, इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। 'आर्य कहीं बाहर से आए' इस भूमिका ने इस नागयज्ञ की एक विचित्र व्याख्या को जन्म दिया, जो हिंदी के प्रसिद्घ साहित्यकार जयशंकर प्रसाद के नाटक 'जन्मेजय का नागयज्ञ' में देखी जा सकती है।

यह 'मथुरा' शत्रुघ्न ने बसाई होगी, पर यह कंस की मथुरा नहीं है।

वह किंवदंतियों से अरब प्रायद्वीप के उत्तर-पूर्व की नदी, जो पास में रत्नाकर (सिंधु सागर) में गिरती है, के तट पर बसे नगर को कंस की मथुरा बताते थे। प्राचीन भू-चित्रावली में यह नगर और नदी 'मथुरा' और 'यमन' के नाम से प्रसिद्घ थे। संसार की किंवदंतियां इसी प्रकार ग्रथित हैं।

ऎसा भी हो सकता है कि भारतीय संस्कृति से प्रभावित इन क्षेत्रों के निवासियों ने अपनी मथुरा और यमुना बना ली हो। सागर तट पर बसी द्वारका पश्चिम से भारत आने का द्वार थी ही।

संसार में फैले राम और कृष्ण की लीला के चिन्ह अभी अनखोजे हैं। ये चिन्ह भारत में ही नहीं, संपूर्ण एशिया में, मध्य-पूर्व में, भूमध्य सागर के चारों ओर और सुदूर मध्य एवं दक्षिण अमेरिका के उत्तरी भाग में-जो प्राचीन सभ्यताओं की पृथ्वी को घेरती मेखला थी-में किसी-न-किसी रूप में फैले हैं।

ये विष्णु के अथवा अन्य मंदिरों के रूप में हैं, अथवा प्राचीन मंदिरों में उत्कीर्ण कहानियों में विष्णु के प्रारंभिक अवतारों की झलक मिलती है। दुर्भाग्य से उनका संबंध उनके मूल और अखंड प्रेरणा के स्त्रोत भारत से छूट गया।

दुर्दैव से कालांतर में भारत गुलाम होकर संकुचित हो गया। आज सारे संसार में फैली मेखला में भारतीय संस्कृति के अवशिष्ट चिन्हों का अर्थ, हेतु और व्याख्या यूरोपीय विद्वान खोजते हैं; पर भारतीय लोक-गाथाओं से अनभिज्ञ होने के कारण, स्पष्ट होने के बाद भी वे सांस्कृतिक प्रतीक एवं चिन्ह उनकी समझ से बाहर हैं।

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