वेदव्यास के पुत्र शुकदेव के मुख से विष्णु के अवतारों की गाथा परीक्षित ने सुनी थी। वह 'भागवत पुराण' में संगृही है। यह बुद्घ के जन्म से पहले कही गई। इसलिए इसमें केवल उल्लेख है,
'फिर आगे चलकर भगवान् ही बुद्घ के रूप में प्रकट होंगे और यज्ञ के अनधिकारियों को यज्ञ करते देख अनेक प्रकार तर्क-वितर्क से उन्हें मोहित कर लेंगे।'
महाभारत के जागतिक युद्घ के बाद संसार में शांतिपर्व आया, जिसमें सभ्यता के चरण अबाध आगे बढ़े। लगभग २५०० वर्ष बाद विक्रम संवत् पूर्व सातवीं तथा छठी शताब्दी को विश्व इतिहास में 'जागरण काल' कहा जाता है।
भारत में यह गहन विचार-मंथन का युग था। इस समय महत्वपूर्ण आध्यात्मिक प्रवृत्तियों का जन्म हुआ। अनेक विद्वान् (ब्राम्हण) तथा श्रमण हुए, जिन्होंने आमूल चिंतन कर विभिन्न मतों का प्रतिपादन किया।
उनमें कई ने परिव्राजक अथवा यायावर जीवन अपनाया। इन श्रमण संप्रदायों का उल्लेख प्राचीन बौद्घ तथा जैन आगम (मान्य ग्रंथ) में है और जैन तथा बौद्घ मतों के प्रणेता महावीर एवं बुद्घ के प्रवचनों में उनकी आलोचना। वास्तव में जैन तथा बौद्घ दो प्रमुख श्रमण संप्रदाय माने जाते हैं।
उस समय के दर्शन में विभिन्न मतों का वर्णन करते समय दो शब्दों का प्रयोग आता है। आज उनके अर्थ भिन्न हो गए हैं। 'आस्तिक' उस परंपरा को कहते थे जो वेद को अकाट्य प्रमाण माने।
मनु ने 'नास्तिक' वेद निंदक को कहा है। उसका अर्थ 'निरीश्वरवादी' नहीं था। परंतु स्व-अनुभव अथवा तर्क के आधार पर अपने मत का प्रतिपादन करने वाले संप्रदायों ने भी वेद आदि ब्राम्हण (अर्थात् विद्वानों के) ब्रम्ह विषयक ग्रंथों से कुछ अंश ग्रहण कर अपने पंथ में प्रमुखता दी। ब्राम्हण ग्रंथ अर्थात् विद्वानों द्वारा रचित ब्रम्ह विषयक ग्रंथ।
इसका अर्थ कोई जाति विशेष (ब्राम्हण) द्वारा अथवा उनके लिखित ग्रंथ नहीं हैं। वास्तव में प्राचीन स्मृतिकारों में विरले ने ही, जिसे आज ब्राम्हण कुल कहा जाय, में जन्म लिया। इसलिये मंशा समझे बिना और उस समय का अर्थ जाने बिना शब्दों का ठप्पा लगाना गलत है। वैसे इन श्रमण संप्रदायों को बुद्घ ने 'अनधिकृत' (heretic) कहा है।
इन श्रमण धार्मिक प्रवृत्तियों में कुछ समान लक्षण पाए जाते हैं। यह बौद्घिक विकास का समय था, इसलिये केवल वेद-वाक्यों को प्रमाण न मानकर तर्क से तथा अनुभूति से समझने का यत्न हुआ। अपने संप्रदाय में उन्होंने सभी लोगों को बिना वर्ण या आश्रम का विचार कर सम्मिलित किया।
इसी से कुछ लोग जैन एवं बौद्घ पंथों को सुधारवादी कहते हैं, जो उनकी स्वयं की धारणाओं के विपरीत हैं। श्रमण संप्रदाय विशिष्ट नैतिक सिद्घांतों का पालन करते थे। साधारणतया ये सांसारिक जीवन से दूर निवृत्ति मार्ग के अनुगामी थे। इनमें कोई भी वयस्क घर-द्वार त्याग परिव्राजक बन सकता था। ब्रह्मचर्य (वेदाध्ययन एवं ज्ञानार्जन का समय) का अर्थ भिक्षाटन रह गया। ये श्रमण संप्रदाय अपने प्रणेता के नाम से जाने जाते हैं।
चिंतन के अनेक फलक प्रदर्शित करते, जैन एवं बौद्घ दर्शन की भूमिका समझने के लिए, ये इतिहास के विशिष्ट पन्ने हैं।
वैदिक चिंतन जगत् के मूल तत्व की खोज है। एक 'पुरूष' तत्व है, निष्क्रिय, पर जिसके बिना सृष्टि संभव नहीं। दूसरी ओर पदार्थ (matter) अथवा प्रकृति का मूल तत्व या उपादान, जिससे यह सारी सृष्टि रचित है, कौन है?
इसकी खोज। तीसरी दिशा है सृष्टि में परिवर्तन की नियमितता देखकर आत्मा-शरीर तथा कर्मफल के संबंधों का निरूपण। इसलिए कर्मवाद इस चिंतन का एक अभिन्न भाग बना। पर कर्मवाद से अनेक जटिल प्रश्न उठते हैं। इसका हल श्रमण संप्रदायों में मुक्त चिंतन द्वारा खोजने का यत्न हुआ। संसार का यह विचार-मंथन का समय, इसमें कितने प्रकार की विचारधाराएं श्रमण संप्रदायों द्वारा फली-फूलीं, इसे देख आश्चर्य होता है।
इन विचाराधाराओं और प्रवर्तकों के नाम व जानकारी, साधारणतया उनके आलोचकों की, जैन-बौद्घ साहित्य अथवा तमिल एवं चीनी साहित्य की देन है। कैसे निर्भीक चिंतक थे। अपने तर्क पर विश्वासी, सिद्घांतवादी और अपने नैतिक मूल्यों के पालनकर्ता। अपने चिंतन की छाप उन्होंने छोड़ी। इस प्रकार के छह (अथवा दस?) प्रमुख श्रमण संप्रदाय
श्रमण संप्रदाय कहे जाते हैं, जिनका चीनी अथवा तमिल साहित्य में भी वर्णन है। उसमें इन श्रमण आचार्यों के दर्शनों के अनेक नाम दिए गए। 'कालवाद', 'भौतिकवाद' (materialism), 'नियतिवाद', 'ज्ञानवाद', 'शाश्वतवाद', 'उच्छेदवाद', 'संशयवाद' (scepticism) आदि।
ऐसा है यह बहुदर्शी बौद्घिक पट। अधिकांश विचारक जन्म से पुनर्जन्म के संचरण को दु:खमय तथा कर्मफल के अधीन मानते थे। किंतु जीव, कर्म, मोक्ष आदि सभी विषयों में अनेक उलझे मतभेद थे।
पूर्ण काश्यप 'अक्रियावाद' अथवा 'अहेतुवाद' के प्रवक्ता थे। वैसे आज के वैज्ञानिक विकास की प्रक्रिया को 'अहेतुक' ही कहते हैं। फिर 'आजीविक' थे, जिस संप्रदाय में 'शील' के अनुपालन पर विशेष बल दिया जाता था। 'आजीविक' संभवतया इसलिए कि गृहविहीन होकर भी आजीविका कमाने को महत्व देते थे, जिसमें फलित ज्योतिष, शकुन-अपशकुन, फलाफल का विचार और मार्गदर्शन सम्मिलित था -और थे घोर भौतिकवादी।
केशकंबली अर्थात् (केशों का कंबल धारण करने वाले) का विश्वास पुनर्जन्म पर न था। बेलद्विपुत्र 'संशयवाद' के आचार्य थे, जिसमें सापेक्षवाद का जन्म हुआ। 'चार्वाकपंथी' अथवा जिन्हें 'लोकायत' (केवल इस लोक पर विश्वास रखने वाले) कहते हैं, वे भी बुद्घ के समय थे। इसलिए बुद्घ ने 'धम्म' (धर्म) का, बीच का मार्ग अपनाने को कहा।
इनके अतिरिक्त जैन एवं बौध मत भी श्रमण परंपरा के अंग कहे जाते हैं। वर्द्घमान (जो बाद में महावीर कहलाए) और सिद्घार्थ ( जो बुद्घ कहलाए) जैसे मत-प्रवर्तकों ने इसी कालखंड में जन्म लिया। इनके दर्शन ने एशिया और अंत्तोगत्वा सारे संसार को प्रभावित किया। बौद्घ ग्रंथों ने जैनियों के अंतिम तीर्थंकर (जो भवसागर को पार करने के लिए तीर्थ अर्थात् घाट बनाए) महावीर को 'निर्ग्रंथ ज्ञतृपुत्र' कहा है।
निर्ग्रंथ (सब प्रकार की गांठों-बंधनों से मुक्त) मार्गी, जिन्होंने ज्ञातृवंशीय क्षत्रिय कुल में जन्म लिया।
विचार-स्वतंत्रता का यह अद्भुत प्रस्फुटन एक जीवंत, प्रखर तथा बुद्घिमान समाज की निशानी थी, जैसा संभवतया संसार की किसी अन्य सभ्यता में नहीं हुआ (सुकरात को ऐसी परिस्थिति में मृत्युदंड दिया गया)। इससे भी बढ़कर सभी विचारों के प्रति सहिष्णुता तथा उदारता, उन्हें समझने का यत्न।
एक-दूसरे के प्रति मत-भिन्नता रहते हुए भी द्वेषरहित भाव। आपस में बिना कोई दुर्भाव लाए विचार-विनिमय तथा मंथन, परस्पर विरोधी विचारों एवं मान्यताओं का सह-अस्तित्व। यह सभ्यता का चरमोत्कर्ष है। ऐसे समय में इन श्रमण संप्रदायों के विचार-आलोड़न के बीच उनकी परंपराओं के घ्रुवीकरण में दो प्रमुख मतों-जैन और बौद्घ का जन्म हुआ। यह उनका नवनीत था।
एक समृद्घ, समुन्नत और शांति के वातावरण में जहां मानव-मानव एवं मानव-प्रकृति के संबंधों को समझने और निर्धारण करने की अखंड परंपरा तथा व्यवहार चला आया वहां ही महावीर तथा गौतम बुद्घ सरीखे महापुरूषों का जन्म हो सकता था।
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