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ऋद्धिं ‘दे’ वणर्देवीं तु गणेशं देवतां तथा ।।
बीजं ‘गं’ च कणाद तं ऋषिमृद्धिं च यन्त्रकम् ॥
तुष्टिं भद्रां विभूती च कथयन्ति द्वयं पुनः ।।
प्रतिफलं गुणवत्तां तां तुष्टिं च सुखदायिनीम्॥
अर्थात – ‘दे’ अक्षर की देवी- ‘ऋद्धि’, देवता- गणेश, बीज- ‘गं’ ऋषि- ‘कणाद’, यन्त्र ‘ऋद्धियन्त्रम्,’ विभूति- ‘तुष्टा एवं भद्रा’ तथा प्रतिफल -‘तुष्टि एवं गुणवत्ता ” है ।।
सिद्धिं ‘व’ देवीं च क्षेत्रपालं च देवताम् ।।
बीजं’क्षं’ कथयन्त्येवं अगस्तयमृषिमस्य तु ॥
सिद्धिं यन्त्रं विभूती च सूक्ष्मां तां योगिनीं तथा ।।
फलं तन्मयतामाद्यं द्वितीयं कायर्कौशलम्॥
अर्थात – ‘व’ अक्षर की देवी- ‘सिद्धि’, देवता- ‘क्षेत्रपाल’, बीज ‘क्षं’, ऋषि- ‘अगस्त्य’, यन्त्र- ‘सिद्धियन्त्रम्’, विभूति- ‘सूक्ष्मा एवं योगिनी’ और प्रतिफल- ‘तन्मयता एवं कार्यकुशलता हैं ।।
गायत्री महाशक्ति की गरिमा, महत्ता, एवं प्रतिक्रिया क्या हो सकती है, इसका उत्तर विभिन्न देवताओं के स्वरूप, वाहन, आयुध, स्वभाव आदि पर दृष्टि डालने से मिल जाता है ।। देवता और देवियों को गायत्री महाशक्ति का विशिष्ट प्रवाह ही समझा जा सकता है ।।
गायत्री के २४ देवताओं में एक गणेश भी है ।। गणेश अर्थात विवेक बुद्धि के देवता ।। जहाँ दूरदर्शी विवेक का बाहुल्य दिखाई पड़े, समझना चाहिए कि वहाँ गणेश की उपस्थिति और अनुकम्पा प्रत्यक्ष है ।। सद्ज्ञान ही गणेश है ।। गायत्री मन्त्र की मूल धारणा सद्ज्ञान ही है ।। अस्तु, प्रकारान्तर से गणेश को गायत्री की प्रमुख शक्ति धारा कहा जा सकता है ।।
गणेश के साथ दो दिव्य सहेली- सहचरी रहती हैं ।। एक का नाम ऋद्धि और दूसरी का सिद्धि है ।। ऋद्धि अर्थात आत्मिक विभूतियाँ ।। सिद्धि अर्थात सांसारिक सफलताएँ ।। विवेक की ये दो उपलब्धियाँ सहज स्वाभाविक हैं ।।
ब्रह्म के साथ जिस प्रकार गायत्री, सावित्री को दो सहचरी माना गया है, उसी प्रकार गणेश के साथ भी ऋद्धि और सिद्धि हैं ।। ऋद्धि आत्म बल और सिद्धि समृद्धि बल है ।। परब्रह्म की दो सहेलियाँ परा और अपरा प्रकृति हैं, उन्हीं के सहारे जड़- चेतन विश्व का गति चक्र घूमता है ।।
विवेक रूपी गणेश का स्वरूप निर्माण करते समय तत्त्वदर्शियों ने उसकी दो सहेलियों का भी चित्रण किया है ।। आत्म बल और भौतिक सफलताओं का सारा क्षेत्र विवेक पर आधारित है ।। इसी तथ्य को गणेश और उनकी सहचरी ऋद्घि- सिद्घि के रूप में प्रस्तुत किया गया है ।।
ऋद्धि अर्थात आत्मज्ञान- आत्मबल आत्म संतोष, अन्तरंग उल्लास, आत्म- विस्तार, सुसंस्कारिता एवं ऐश्वर्य ।। सिद्धि अर्थात प्रतिभा, स्फूर्ति , साहसिकता, समृद्धि, विद्या, समर्थता, सहयोग सम्पादन एवं वैभव ।। लगभग यही विशेषताएँ गायत्री और सावित्री की हैं ।। दोनों एक साथ जुड़ी हुई हैं ।। जहाँ ऋद्धि है वहाँ सिद्धि भी रहेगी ।।
गणेश पर दोनों को चँवर डुलाना पड़ता है ।। विवेकवान् आत्मिक और भौतिक दोनों दृष्टियों से सुसम्पन्न होते हैं ।। संक्षेप में गणेश के साथ अविच्छिन्न रूप में जुड़ी हुई ऋद्धि- सिद्धियों के चित्रण का यही तात्पर्य है ।।
गणेश के एक हाथ में अंकुश, दूसरे में मोदक हैं ।। अंकुश अर्थात अनुशासन- मोदक अर्थात सुख साधन ।। जो अनुशासन साधते हैं वे अभीष्ट साधन भी जुटा लेते हैं ।। गणेश से संबद्ध इन- दो उपकरणों का यही संकेत है ।। ऋद्धि अर्थात् आत्मिक उत्कृष्टता ।। सिद्धि अर्थात् भौतिक समर्थता ।।
मर्यादाओं का अंकुश मानने वाले और संयम साधने वाले, हर दृष्टि से समर्थ बनते हैं ।। उन्हें सुख- साधनों की- सुविद्या की- कमी नहीं रहती ।। उत्कृष्ट व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्ति सदा मुदित रहते हैं- प्रसन्नता बाँटते, बखेरते देखे जाते हैं ।। यही मोदक हैं जिससे हर घड़ी संतोष, आनन्द का रसास्वादन मिलता है ।।
विवेकवान का चुम्बकीय व्यक्तित्व दृश्य और अदृश्य जगत् से वे सब उपलब्धियाँ खींच लेता हैं, जो उसकी प्रगति एवं प्रसन्नता के लिए आवश्यक हैं ।।
ऋद्धि- सिद्धियों के सम्बन्ध में एक भ्रान्ति यह है कि यह कोई जादुई चमत्कार दिखाने में काम आने वाली विशेषताएँ हैं ।। आकाश में उड़ना, पानी पर चलना, अदृश्य हो जाना, रूप बदल लेना, कहीं से कुछ वस्तुएँ मँगा देना या उड़ा देना, भविष्य- कथन जैसी आश्चर्यजनक बातों को सिद्धि कहा जाता है ।।
यह जादुई खेल- मेल है, जो हाथ की सफाई, चालाकी या हिप्नोटिज्म जैसे उथले भावात्मक प्रयोगों से भी सम्पन्न किये जा सकते हैं ।। इन्हें दिखाने का उद्देश्य प्रायः लोगों को चमत्कृत करके अपने चंगुल में फँसा लेना एवं अनुचित लाभ उठाना ही होता है ।।
इसलिए ऐसे प्रदर्शनों की साधना का शास्त्रों में पग- पग पर मनाही की गई है ।। उनमें विशेषताएँ हों भी तो भी, उन्हें प्रदर्शन से रोका गया है ।। फिर जो हाथ की सफाई के चमत्कार दिखाते और उसकी संगति अध्यात्म सामर्थ्य से जोड़ते हैं, उन्हें तो हर दृष्टि से निन्दनीय कहा जा सकता है ।।
वास्तविक ऋद्धि यही है कि साधक अपने उत्कृष्ट व्यक्तित्व के सहारे आत्म संतोष, लोक- श्रद्धा एवं दैवी अनुकम्पा के विविध लाभ पाकर मनुष्यों के बीच देवताओं जैसी महानता प्रस्तुत करे और अपनी आदर्शवादी साहसिकता से जन- जन को प्रभावित करे ।।
वास्तविक सिद्धि यह है कि उपार्जन तो पर्वत जितना करे, पर अपने लिए औसत नागरिक जितना निर्वाह लेकर शेष को सत्प्रयोजनों के लिए उदारता पूर्वक समर्पित कर दे ।। ऐसे अनुकरणीय आदर्श उपस्थित कर सकना उच्च स्तर का चमत्कार ही है ।। जो इस मार्ग पर जितना आगे बढ़ सके, उसे उतना ही बड़ा सिद्ध पुरुष माना जा सकता है ।।
गायत्री का एक नाम ऋद्धि है दूसरा सिद्धि ।। प्रयत्न पूर्वक सत्प्रवृत्तियों को अपनाने वाले इन दोनों को उपलब्ध करते और हर दृष्टि से धन्य बनते हैं ।। सच्ची गायत्री उपासना का प्रतिफल भी ऋद्धियों और सिद्धियों के रूप में सामने आता है ।। गायत्री प्रत्यक्ष सिद्धि है ।। जिसके अन्तराल पर वह उतरती है उसे ऋद्धि- सिद्धियों से -विभूतियों और समृद्धियों से भरा−पूरा सफल जीवन बनाने का अवसर देती है ।।
संक्षेप में ऋद्धि एवं सिद्धि का तात्त्विक स्वरूप इस प्रकार है-
ऋद्धि के एक मुख, दो हाथ हैं ।। दायें में चँवर- विकारों का निवारण- प्रमुख ।। बायें में मोदक- भौतिक लाभ- गौण ।। खड़ी मुद्रा- स्वावलम्बी तत्परता की प्रतीक है ।।
ऋद्धिं ‘दे’ वणर्देवीं तु गणेशं देवतां तथा ।।
बीजं ‘गं’ च कणाद तं ऋषिमृद्धिं च यन्त्रकम् ॥
तुष्टिं भद्रां विभूती च कथयन्ति द्वयं पुनः ।।
प्रतिफलं गुणवत्तां तां तुष्टिं च सुखदायिनीम्॥
अर्थात – ‘दे’ अक्षर की देवी- ‘ऋद्धि’, देवता- गणेश, बीज- ‘गं’ ऋषि- ‘कणाद’, यन्त्र ‘ऋद्धियन्त्रम्,’ विभूति- ‘तुष्टा एवं भद्रा’ तथा प्रतिफल -‘तुष्टि एवं गुणवत्ता ” है ।।
सिद्धिं ‘व’ देवीं च क्षेत्रपालं च देवताम् ।।
बीजं’क्षं’ कथयन्त्येवं अगस्तयमृषिमस्य तु ॥
सिद्धिं यन्त्रं विभूती च सूक्ष्मां तां योगिनीं तथा ।।
फलं तन्मयतामाद्यं द्वितीयं कायर्कौशलम्॥
अर्थात – ‘व’ अक्षर की देवी- ‘सिद्धि’, देवता- ‘क्षेत्रपाल’, बीज ‘क्षं’, ऋषि- ‘अगस्त्य’, यन्त्र- ‘सिद्धियन्त्रम्’, विभूति- ‘सूक्ष्मा एवं योगिनी’ और प्रतिफल- ‘तन्मयता एवं कार्यकुशलता हैं ।।
गायत्री महाशक्ति की गरिमा, महत्ता, एवं प्रतिक्रिया क्या हो सकती है, इसका उत्तर विभिन्न देवताओं के स्वरूप, वाहन, आयुध, स्वभाव आदि पर दृष्टि डालने से मिल जाता है ।। देवता और देवियों को गायत्री महाशक्ति का विशिष्ट प्रवाह ही समझा जा सकता है ।।
गायत्री के २४ देवताओं में एक गणेश भी है ।। गणेश अर्थात विवेक बुद्धि के देवता ।। जहाँ दूरदर्शी विवेक का बाहुल्य दिखाई पड़े, समझना चाहिए कि वहाँ गणेश की उपस्थिति और अनुकम्पा प्रत्यक्ष है ।। सद्ज्ञान ही गणेश है ।। गायत्री मन्त्र की मूल धारणा सद्ज्ञान ही है ।। अस्तु, प्रकारान्तर से गणेश को गायत्री की प्रमुख शक्ति धारा कहा जा सकता है ।।
गणेश के साथ दो दिव्य सहेली- सहचरी रहती हैं ।। एक का नाम ऋद्धि और दूसरी का सिद्धि है ।। ऋद्धि अर्थात आत्मिक विभूतियाँ ।। सिद्धि अर्थात सांसारिक सफलताएँ ।। विवेक की ये दो उपलब्धियाँ सहज स्वाभाविक हैं ।।
ब्रह्म के साथ जिस प्रकार गायत्री, सावित्री को दो सहचरी माना गया है, उसी प्रकार गणेश के साथ भी ऋद्धि और सिद्धि हैं ।। ऋद्धि आत्म बल और सिद्धि समृद्धि बल है ।। परब्रह्म की दो सहेलियाँ परा और अपरा प्रकृति हैं, उन्हीं के सहारे जड़- चेतन विश्व का गति चक्र घूमता है ।।
विवेक रूपी गणेश का स्वरूप निर्माण करते समय तत्त्वदर्शियों ने उसकी दो सहेलियों का भी चित्रण किया है ।। आत्म बल और भौतिक सफलताओं का सारा क्षेत्र विवेक पर आधारित है ।। इसी तथ्य को गणेश और उनकी सहचरी ऋद्घि- सिद्घि के रूप में प्रस्तुत किया गया है ।।
ऋद्धि अर्थात आत्मज्ञान- आत्मबल आत्म संतोष, अन्तरंग उल्लास, आत्म- विस्तार, सुसंस्कारिता एवं ऐश्वर्य ।। सिद्धि अर्थात प्रतिभा, स्फूर्ति , साहसिकता, समृद्धि, विद्या, समर्थता, सहयोग सम्पादन एवं वैभव ।। लगभग यही विशेषताएँ गायत्री और सावित्री की हैं ।। दोनों एक साथ जुड़ी हुई हैं ।। जहाँ ऋद्धि है वहाँ सिद्धि भी रहेगी ।।
गणेश पर दोनों को चँवर डुलाना पड़ता है ।। विवेकवान् आत्मिक और भौतिक दोनों दृष्टियों से सुसम्पन्न होते हैं ।। संक्षेप में गणेश के साथ अविच्छिन्न रूप में जुड़ी हुई ऋद्धि- सिद्धियों के चित्रण का यही तात्पर्य है ।।
गणेश के एक हाथ में अंकुश, दूसरे में मोदक हैं ।। अंकुश अर्थात अनुशासन- मोदक अर्थात सुख साधन ।। जो अनुशासन साधते हैं वे अभीष्ट साधन भी जुटा लेते हैं ।। गणेश से संबद्ध इन- दो उपकरणों का यही संकेत है ।। ऋद्धि अर्थात् आत्मिक उत्कृष्टता ।। सिद्धि अर्थात् भौतिक समर्थता ।।
मर्यादाओं का अंकुश मानने वाले और संयम साधने वाले, हर दृष्टि से समर्थ बनते हैं ।। उन्हें सुख- साधनों की- सुविद्या की- कमी नहीं रहती ।। उत्कृष्ट व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्ति सदा मुदित रहते हैं- प्रसन्नता बाँटते, बखेरते देखे जाते हैं ।। यही मोदक हैं जिससे हर घड़ी संतोष, आनन्द का रसास्वादन मिलता है ।।
विवेकवान का चुम्बकीय व्यक्तित्व दृश्य और अदृश्य जगत् से वे सब उपलब्धियाँ खींच लेता हैं, जो उसकी प्रगति एवं प्रसन्नता के लिए आवश्यक हैं ।।
ऋद्धि- सिद्धियों के सम्बन्ध में एक भ्रान्ति यह है कि यह कोई जादुई चमत्कार दिखाने में काम आने वाली विशेषताएँ हैं ।। आकाश में उड़ना, पानी पर चलना, अदृश्य हो जाना, रूप बदल लेना, कहीं से कुछ वस्तुएँ मँगा देना या उड़ा देना, भविष्य- कथन जैसी आश्चर्यजनक बातों को सिद्धि कहा जाता है ।।
यह जादुई खेल- मेल है, जो हाथ की सफाई, चालाकी या हिप्नोटिज्म जैसे उथले भावात्मक प्रयोगों से भी सम्पन्न किये जा सकते हैं ।। इन्हें दिखाने का उद्देश्य प्रायः लोगों को चमत्कृत करके अपने चंगुल में फँसा लेना एवं अनुचित लाभ उठाना ही होता है ।।
इसलिए ऐसे प्रदर्शनों की साधना का शास्त्रों में पग- पग पर मनाही की गई है ।। उनमें विशेषताएँ हों भी तो भी, उन्हें प्रदर्शन से रोका गया है ।। फिर जो हाथ की सफाई के चमत्कार दिखाते और उसकी संगति अध्यात्म सामर्थ्य से जोड़ते हैं, उन्हें तो हर दृष्टि से निन्दनीय कहा जा सकता है ।।
वास्तविक ऋद्धि यही है कि साधक अपने उत्कृष्ट व्यक्तित्व के सहारे आत्म संतोष, लोक- श्रद्धा एवं दैवी अनुकम्पा के विविध लाभ पाकर मनुष्यों के बीच देवताओं जैसी महानता प्रस्तुत करे और अपनी आदर्शवादी साहसिकता से जन- जन को प्रभावित करे ।।
वास्तविक सिद्धि यह है कि उपार्जन तो पर्वत जितना करे, पर अपने लिए औसत नागरिक जितना निर्वाह लेकर शेष को सत्प्रयोजनों के लिए उदारता पूर्वक समर्पित कर दे ।। ऐसे अनुकरणीय आदर्श उपस्थित कर सकना उच्च स्तर का चमत्कार ही है ।। जो इस मार्ग पर जितना आगे बढ़ सके, उसे उतना ही बड़ा सिद्ध पुरुष माना जा सकता है ।।
गायत्री का एक नाम ऋद्धि है दूसरा सिद्धि ।। प्रयत्न पूर्वक सत्प्रवृत्तियों को अपनाने वाले इन दोनों को उपलब्ध करते और हर दृष्टि से धन्य बनते हैं ।। सच्ची गायत्री उपासना का प्रतिफल भी ऋद्धियों और सिद्धियों के रूप में सामने आता है ।। गायत्री प्रत्यक्ष सिद्धि है ।। जिसके अन्तराल पर वह उतरती है उसे ऋद्धि- सिद्धियों से -विभूतियों और समृद्धियों से भरा−पूरा सफल जीवन बनाने का अवसर देती है ।।
संक्षेप में ऋद्धि एवं सिद्धि का तात्त्विक स्वरूप इस प्रकार है-
ऋद्धि के एक मुख, दो हाथ हैं ।। दायें में चँवर- विकारों का निवारण- प्रमुख ।। बायें में मोदक- भौतिक लाभ- गौण ।। खड़ी मुद्रा- स्वावलम्बी तत्परता की प्रतीक है ।।
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