Tuesday, 26 July 2016

कुण्डलिनी

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‘धि’ वणर्स्य च देवी तु प्रोक्ता कुण्डलिनी तथा ।।
देवता भैरवो बीजं ‘लं’ ऋषिः कण्व एव च॥
भैरवं यन्त्रमेतस्य धृतिः सा प्रतिभा तथा ।।
विभूती फलमोजस्वितोन्नतिः कथितानि च॥
अर्थात् — ‘धि’ अक्षर की देवी — ‘कुण्डलिनी’, देवता- ‘भैरव’, बीज- ‘लं’, ऋषि- ‘कण्व’, यन्त्र — ‘भैरवयन्त्रम्’, विभूति- ‘धृति एवं प्रतिभा’ और प्रतिफल — ‘ओजस्विता एवं उन्नति’ है ।।
गायत्री की एक शक्ति कुण्डलिनी है ।।
कुण्डलिनी वह भौतिक ऊर्जा है जो जीवात्मा के साथ लिपटकर अत्यंत घनिष्ठ हो गई है ।। इसे प्राण- विद्युत्, वॉयटल फोर्स- (जीवनी) प्राण ऊर्जा, योगाग्नि, सपेर्न्टाइन पावर आदि नामों से जाना जाता है ।। नस- नाड़ियों में एक चैतन्य विद्युत गतिशील रहती है ।। इसके दो सिरे हैं जिन्हें ध्रुव केन्द्र माना जाता है ।।
यह केन्द्र पृथ्वी के उत्तरी- दक्षिणी ध्रुवों की तरह हैं ।। उत्तरी ध्रुव है- मस्तिष्क का मध्य बिन्दु- ब्रह्मरंध्र ।। इसी स्थान पर सहस्रार चक्र है ।। इसका सीधा संबंध ब्रह्म चेतना से है ।। जिस प्रकार उत्तरी ध्रुव केन्द्र का चुम्बकत्व अपने लिए आवश्यक शक्तियों तथा पदार्थों को ब्रह्माण्ड के अंर्तग्रही भाण्डागार से उपलब्ध करता रहता है ।।
उसी प्रकार सहस्रार चक्र में वह सामर्थ्य है कि व्यापक ब्रह्म चेतना के भाण्डागार में संव्याप्त दिव्य शक्तियों में से अपने लिए आवश्यक क्षमताएँ अभीष्ट मात्रा में उपलब्ध कर सके ।। ब्रह्म- रंध्र में कुण्डलिनी का एक सिरा है जिसे ‘महासर्प’ कहते हैं ।। इसकी आकृति कुण्डलाकार है ।। शेषनाग, शिव, सर्प आदि इसी के नाम हैं ।। गायत्री उपासना से इस महासर्प की मूर्छना जागृत की जाती है और उसकी प्रचण्ड क्षमता के सहारे अध्यात्म क्षेत्र में असंख्य विभूतियों का लाभ उठाया जाता है ।।
कुण्डलिनी का दूसरा सिरा मूलाधार चक्र है ।। यह यह मल- मूत्र छिद्रों के मध्य एक छोटा शक्ति भँवर है, इसे दक्षिणी ध्रुव के समतुल्य कहा गया है ।। मानवी काया में पदार्थ ऊर्जा का उत्पादन और वितरण यहीं से होता है ।। प्रजनन की सामर्थ्य यहीं है ।। स्फूर्ति, उल्लास, और साहस जैसी विशिष्टताएँ यहीं से उद्भूत होती हैं ।। मानवी- काया में काम करने वाली अनेकों शक्तियों का उद्गम केन्द्र यही है ।। स्थूल शरीर में मस्तिष्क और हृदय को प्रधान अवयव माना गया है ।। सूक्ष्म शरीर का मस्तिष्क सहस्रार चक्र ‘महासर्प’ है और हृदय ‘मूलाधार चक्र’ ।।
मूलाधार को कुण्डलिनी का दक्षिणी ध्रुव माना गया है ।। दोनों ध्रुवों का मध्यवर्ती प्रवाह प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है ।। फलतः मनुष्य अन्य प्राणियों की तरह पेट, प्रजनन, जैसे शरीर निर्वाह के तुच्छ काम ही कर पाता है ।।
कुण्डलिनी जागरण से दिव्य ऊर्जा जागृत होती है और मनुष्य की सामर्थ्य असामान्य बन जाती है ।। मूलाधार स्थित सपिर्णी अर्थात प्राण ऊर्जा और सहस्रार स्थित महासर्प- ब्रह्म चेतना के मध्य आदान- प्रदान का द्वार खुल जाना ही कुण्डलिनी जागरण है ।। भौतिक और आत्मिक क्षमताओं का मिलन- सम्पर्क वैसा ही चमत्कारी परिणाम उत्पन्न करता है, जैसा बिजली के दोनों तार परस्पर मिलते ही शक्तिशाली प्रवाह उत्पन्न करते हैं ।।
मस्तिष्कीय सामर्थ्य को परिष्कृत बनाने का काम योग साधनाओं द्वारा किया जाता है ।। प्राण ऊर्जा में प्रचण्डता उत्पन्न करना और उसकी सामर्थ्य से भौतिक एवं आत्मिक शक्तियों को बलवती बनाना तंत्र- विज्ञान है ।। कुण्डलिनी तंत्र विद्या की अधिष्ठात्री है ।। भूलोक का प्रतिनिधि मूलाधार है और ब्रह्मलोक का सहस्रार ।। दोनों का मध्यवर्ती आवागमन देवयान मार्ग से होता है ।। मेरुदण्ड ही देवयान- मार्ग है ।। इस लम्बे मार्ग में षटचक्र अवस्थित हैं ।। सातवां लक्ष्य बिन्दु सहस्रार है ।।
इन्हीं का सप्त लोक, सप्तसिंधु, सप्तगिरि, सप्तऋषि, सदापुरी, सप्ततीथर्, सप्तस्वर, सप्तद्वीप, सप्ताह, सप्त धातु आदि के रूप में विस्तार हुआ है ।। कुण्डलिनी के जागरण से देवयान मार्ग के यह सभी सप्त सोपान जागृत होते हैं और साधक की सत्ता दिव्य क्षमताओं से सुसम्पन्न हो भर जाती है ।।
मनुष्य में प्राण- ऊर्जा की प्रचण्ड शक्ति मूलाधार चक्र के केन्द्रबिन्दु में अवलम्बित है और वहीं से समस्त शरीर में परिभ्रमण करती हुई सामान्य जीवन के अनेकानेक प्रयोजन पूरे करती रहती है ।। इसकी असाधारण क्षमता का पता इससे लगता है कि यह केन्द्र जननेन्द्रिय के माध्यम से सक्रिय होकर एक नया मनुष्य उत्पन्न करने में समर्थ होता है ।।
मनुष्य में शौर्य, साहस, पराक्रम, उत्साह, उल्लास, स्फूर्ति, उमंग जैसी अनेक विशेषताएँ- क्षमताएँ यहीं से स्फुरित होती रहती है ।। कामोत्तेजना में इसी क्षमता की हलचलों का आभास मिलता है ।। प्रजनन प्रयोजनों में प्रायः उसका बड़ा भाग नष्ट होता रहता है ।।
सामान्य प्राण को महाप्राण में परिणित करके ब्रह्म रंध्र तक पहुँचा देना और वहाँ के प्रसुप्त शक्ति- भण्डार को जगाकर मनुष्य को देवोपम बना देना कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य है ।। समुद्र- मंथन से १४ रतन निकले थे, कुण्डलिनी के शक्ति- सागर का मंथन भी दिव्य शक्ति की रत्न राशि का द्वार साधक के लिए खोलता है ।। यही अधोगति को ऊर्ध्व गति में परिणित करने की प्रक्रिया कुण्डलिनी जागरण है ।।
इस साधना में काम बीज को शक्ति बीज में परिवर्तित किया जाता है ।। काली का महाकाल से, शिव का शक्ति से, प्राण का महाप्राण से मिलन होने पर उनकी संयुक्त शक्ति से चमत्कारी परिणाम उत्पन्न होते हैं ।। इसी को कुण्डलिनी जागरण कहते हैं ।। गायत्री के ही एक प्रवाह कुण्डलिनी जागरण को गायत्री की तंत्र पक्षीय उपलब्धि कहा गया है ।।
कुण्डलिनी- जागरण की प्रक्रिया गायत्री साधना के अंतर्गत ही सरल पड़ती है ।। हठयोग, प्राणयोग, तंत्रयोग आदि के माध्यम से भी उसे एक सीमा तक जागृत किया जाता है, किन्तु परिपूर्ण उपयोग शक्ति और जागरण गायत्री के माध्यम से ही हो सकता है ।। गायत्री की २४ शक्तियों में से एक कुण्डलिनी भी है ।।
गायत्री साधना की सौम्य प्रक्रिया अपना कर साधकों को कुण्डलिनी जागरण का लाभ अधिक निश्चिन्तता पूर्वक, बिना किसी प्रकार का जोखिम उठाए सरल रूप से मिल सकता है ।।
कुण्डलिनी के स्वरूप, आयुध एवं वाहन आदि का संक्षिप्त विवेचन इस तरह है —
कुण्डलिनी के एक मुख है ।। चार हाथों में क्रमशः बाँसुरी- सुप्त को जाग्रत् करने वाली क्षमता का, सर्प- कुण्डलिनी में सामान्य दिखते हुए भी असामान्य शक्ति का, कमण्डलु- धारण करने की क्षमता का तथा आशिर्वाद मुद्रा- से लोकहित के लिए प्रतिबद्धता का बोध होता है ।। वाहन कूर्म- संयम और दीर्घ आयु का प्रतीक है 

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