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‘नः’ वणर्स्य भवानी च देवी रुद्रश्च देवता ।
बीजं ‘हुं’ चैवमस्यषिर्ः स वैशम्पायनस्तथा॥
यन्त्रं दुगार् धु्रवामोघे भूती द्वे फलमस्य च ।
अजेयताऽथ संकल्पसिद्धिः प्रोक्तानि च क्रमात् ॥
अर्थात्-‘नः’ अक्षर की देवी -‘भवानी’ ,देवता-‘रुद्र’,बीज-‘हुं’ ,ऋषि-‘वैशम्पायन’,यन्त्र-‘दुगार्यन्त्रम् ‘विभूति-‘ध्रुवा एवं अमोघा’ और प्रतिफल-‘संकल्पसिद्धि एवं अजेयता’ हैं ।
गायत्री का एक नाम भवानी है । इस रूप में आद्य शक्ति की उपासना करने से उस भर्ग-तेज की अभिवृद्धि होती है, जो अवांछनीयताओं से लड़ने और परास्त करने के लिए आवश्यक है, इसे एक शक्ति-धारा भी कह सकते हैं ।
भवानी के पर्याय वाचक , दुर्गा, चण्डी,भैरवी, काली आदि नाम हैं । इनकी मुख मुद्रा एवं भाव चेष्टा में विकरालता है । संघर्ष में उनकी गति-विधियाँ नियोजित हैं । उनका वाहन सिंह है । सिंह पराक्रम का-आक्रमण का प्रतीक है । हाथों में ऐसे आयुध हैं जो शत्रु को विदीर्ण करने के ही काम आते हैं । लोक व्यवहार में भवानी तलवार को भी कहते हैं ।
उसका प्रयोजन भी अवांछनीयता का प्रतिरोध करना है । असुरों के शस्त्र उत्पीड़न के लिए प्रयुक्त होते हैं । उनके लिए भवानी शब्द का प्रयोग तभी होगा जब उनका उपयोग की अनीति के विरोध और नीति के समर्थन में किया जा रहा हो ।
धर्म का एक पक्ष सेवा, साधना, करुणा,सहायता, उदारता के रूप में प्रयुक्त होता है । यह विद्यायक-सृजनात्मक पक्ष है । दूसरा पक्ष अनीति का प्रतिरोध है, इसके बिना धमर् न तो पूर्ण होता है, न सुरक्षित रहता है । सज्जनता की रक्षा के लिए दुष्टता का प्रतिरोध भी अभीष्ट है । इस प्रतिरोधक शक्ति को ही भवानी कहते हैं ।
दुर्गा एवं चण्डी के रूप में उसी की लीलाओं का वणर्न किया जाता है । ‘देवी भागवत’ में विशिष्ट रूप से और अन्यान्य पुराणों, उपपुराणों में सामान्य रूप से इसी महाशक्ति की चर्चा हुई है और उसे असुर विदारिणी, संकट निवारिणी के रूप में चित्रित किया गया है । अवतारों के दो उद्देश्य हैं- एक धर्म की स्थापना, दूसरा अधर्म का विनाश । दोनों एक दूसरे के पूरक हैं ।
सृजन और ध्वंस की द्विविध प्रक्रियाओं का अवलम्बन लेने से ही सुव्यवस्था बन पाती है । भोजन जितना आवश्यक है, उतना ही मलविसर्जन भी । उत्पादन एवं संवधर्न के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों के साथ आक्रमणकारी तत्त्वों से बचाव का भी प्रबन्ध करना पड़ता है । राजसत्ता को प्रजापालन के अतिरिक्त उपद्रवों को रोकने के लिए सेना, पुलिस आदि के सुरक्षात्मक प्रयत्न भी करने पड़ते हैं । किसान को खेत और माली को बगीचे को उगाने, बढ़ाने के साथ-साथ रखवाले का भी प्रबन्ध करना होता है ।
अन्यथा उनका किया हुआ सारा परिश्रम, अवांछनीय तत्त्वों के हाथ में चला जायगा और वे उस अपहरण से अधिक प्रोत्साहित, परिपुष्ट होकर हानि पहुँचाने का दुस्साहस करेंगे । अस्तु, सज्जनता का परिपोषण जितना आवश्यक है, उतना ही दुष्टता का उन्मूलन भी अभीष्ट है । इनमें से किसी एक को लेकर चलने से सुव्यवस्था रह नहीं सकती ।
संघषर् का प्रथम चरण दुर्बुद्धि से जूझना है । निकृष्ट स्तर की दुभार्वनाएँ और कुविचारणाएँ अन्तराल में जड़े जमा कर व्यक्ति को पतन, पराभव के गर्त में धकेलती हैं । बुरी आदतों के वशीभूत होकर मनुष्य दुव्यर्सनों और दुष्कर्मों में प्रवृत्त होता है । फलतः नाना प्रकार के क्लेश सहता और कष्ट उठाता है । व्यक्तित्व में घुसे हुए कषाय-कल्मषों, कुसंस्कारों का उन्मूलन करने के लिए विभिन्न प्रकार की तप-तितिक्षाएँ अपनानी पड़ती हैं ।
लोक व्यवहार में यही दुष्प्रवृत्तियाँ आलस्य,प्रमाद,अस्वच्छता, अशिष्टता, अव्यवस्था, संकीर्ण स्वार्थ परता आदि रूपों में मनुष्य को उपेक्षित, तिरस्कृत बनाती हैं । इनकी मात्रा अधिक बढ़ जाने से व्यक्ति भ्रष्ट , दुष्ट आचरण करता है और पशु-पिशाच कहलाता हैं । वासना, तृष्णा और अहन्ता की बढ़ोत्तरी से भी मनुष्य असामाजिक , अवांछनीय , उच्छृंखल एवं आक्रामक बन जाता है ।
फलतः उसे घृणा एवं प्रताड़ना का दण्ड सहना पड़ता है । उस स्थिति से उबरने पर ही व्यक्ति को सुसंस्कृत एवं सुविकसित होने का अवसर मिलता है । आत्म शोधन की साहसिकता भी भवानी है । आत्मविजय को सबसे बड़ी विजय कहा गया है ।
समाज में जहाँ सहकारिता, सज्जनता एवं रचनात्मक प्रयत्नों का क्रम चलता है, वहाँ दुष्टता, दुरभिसन्धियाँ भी कम नहीं हैं ।
अवांछनीयता, अनौतिकता, मूढ़ मान्यताओं का जाल बुरी तरह बिछा रहता है । उन्हीं के कारण अनेकानेक वैयक्तिक एवं सामाजिक समस्याएँ उठती एवं विकृतियाँ बढ़ती रहती है । इनसे लड़ने के लिए वैयक्ति एवं सामूहिक स्तर पर प्रचण्ड प्रयास होने ही चाहिए । इसी प्रयत्नशीलता को चण्डी कहते हैं । भवानी यही है ।
सृजन और संघर्ष के अन्योन्याश्रय तत्त्वो में से संघर्ष की आवश्यकता को सुझाने वाला और उसे अपनाने का प्रोत्साहन देने वाला स्वरूप भवानी है । सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री गायत्री का एक पक्ष संघषर्शील, शौर्य, साहस के लिए भी मागर्दशर्न करता है । इस शक्ति का गायत्री साधना से सहज संवधर्न होता है ।
भवानी के स्वरूप,आयुध एवं वाहन आदि का-संक्षिप्त तात्त्विक विवेचन इस प्रकार है-
भवानी के एक मुख, आठ हाथ हैं । शंख से-देव पक्ष की सहायता का उद्घोष, गदा से शक्ति, पद्म से निविर्कारिता, बंधी मुट्ठी से संगठन, चक्र से गतिशीलता, तलवार से दोषनाश, पाश से आसुरी शक्ति को बाँधकर बाधित करने तथा आशीर्वाद मुद्रा से सज्जनों को आश्वस्त करने का भाव सन्निहित है । वाहन-सिंह-शौर्य का प्रतीक हैं ।
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‘नः’ वणर्स्य भवानी च देवी रुद्रश्च देवता ।
बीजं ‘हुं’ चैवमस्यषिर्ः स वैशम्पायनस्तथा॥
यन्त्रं दुगार् धु्रवामोघे भूती द्वे फलमस्य च ।
अजेयताऽथ संकल्पसिद्धिः प्रोक्तानि च क्रमात् ॥
अर्थात्-‘नः’ अक्षर की देवी -‘भवानी’ ,देवता-‘रुद्र’,बीज-‘हुं’ ,ऋषि-‘वैशम्पायन’,यन्त्र-‘दुगार्यन्त्रम् ‘विभूति-‘ध्रुवा एवं अमोघा’ और प्रतिफल-‘संकल्पसिद्धि एवं अजेयता’ हैं ।
गायत्री का एक नाम भवानी है । इस रूप में आद्य शक्ति की उपासना करने से उस भर्ग-तेज की अभिवृद्धि होती है, जो अवांछनीयताओं से लड़ने और परास्त करने के लिए आवश्यक है, इसे एक शक्ति-धारा भी कह सकते हैं ।
भवानी के पर्याय वाचक , दुर्गा, चण्डी,भैरवी, काली आदि नाम हैं । इनकी मुख मुद्रा एवं भाव चेष्टा में विकरालता है । संघर्ष में उनकी गति-विधियाँ नियोजित हैं । उनका वाहन सिंह है । सिंह पराक्रम का-आक्रमण का प्रतीक है । हाथों में ऐसे आयुध हैं जो शत्रु को विदीर्ण करने के ही काम आते हैं । लोक व्यवहार में भवानी तलवार को भी कहते हैं ।
उसका प्रयोजन भी अवांछनीयता का प्रतिरोध करना है । असुरों के शस्त्र उत्पीड़न के लिए प्रयुक्त होते हैं । उनके लिए भवानी शब्द का प्रयोग तभी होगा जब उनका उपयोग की अनीति के विरोध और नीति के समर्थन में किया जा रहा हो ।
धर्म का एक पक्ष सेवा, साधना, करुणा,सहायता, उदारता के रूप में प्रयुक्त होता है । यह विद्यायक-सृजनात्मक पक्ष है । दूसरा पक्ष अनीति का प्रतिरोध है, इसके बिना धमर् न तो पूर्ण होता है, न सुरक्षित रहता है । सज्जनता की रक्षा के लिए दुष्टता का प्रतिरोध भी अभीष्ट है । इस प्रतिरोधक शक्ति को ही भवानी कहते हैं ।
दुर्गा एवं चण्डी के रूप में उसी की लीलाओं का वणर्न किया जाता है । ‘देवी भागवत’ में विशिष्ट रूप से और अन्यान्य पुराणों, उपपुराणों में सामान्य रूप से इसी महाशक्ति की चर्चा हुई है और उसे असुर विदारिणी, संकट निवारिणी के रूप में चित्रित किया गया है । अवतारों के दो उद्देश्य हैं- एक धर्म की स्थापना, दूसरा अधर्म का विनाश । दोनों एक दूसरे के पूरक हैं ।
सृजन और ध्वंस की द्विविध प्रक्रियाओं का अवलम्बन लेने से ही सुव्यवस्था बन पाती है । भोजन जितना आवश्यक है, उतना ही मलविसर्जन भी । उत्पादन एवं संवधर्न के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों के साथ आक्रमणकारी तत्त्वों से बचाव का भी प्रबन्ध करना पड़ता है । राजसत्ता को प्रजापालन के अतिरिक्त उपद्रवों को रोकने के लिए सेना, पुलिस आदि के सुरक्षात्मक प्रयत्न भी करने पड़ते हैं । किसान को खेत और माली को बगीचे को उगाने, बढ़ाने के साथ-साथ रखवाले का भी प्रबन्ध करना होता है ।
अन्यथा उनका किया हुआ सारा परिश्रम, अवांछनीय तत्त्वों के हाथ में चला जायगा और वे उस अपहरण से अधिक प्रोत्साहित, परिपुष्ट होकर हानि पहुँचाने का दुस्साहस करेंगे । अस्तु, सज्जनता का परिपोषण जितना आवश्यक है, उतना ही दुष्टता का उन्मूलन भी अभीष्ट है । इनमें से किसी एक को लेकर चलने से सुव्यवस्था रह नहीं सकती ।
संघषर् का प्रथम चरण दुर्बुद्धि से जूझना है । निकृष्ट स्तर की दुभार्वनाएँ और कुविचारणाएँ अन्तराल में जड़े जमा कर व्यक्ति को पतन, पराभव के गर्त में धकेलती हैं । बुरी आदतों के वशीभूत होकर मनुष्य दुव्यर्सनों और दुष्कर्मों में प्रवृत्त होता है । फलतः नाना प्रकार के क्लेश सहता और कष्ट उठाता है । व्यक्तित्व में घुसे हुए कषाय-कल्मषों, कुसंस्कारों का उन्मूलन करने के लिए विभिन्न प्रकार की तप-तितिक्षाएँ अपनानी पड़ती हैं ।
लोक व्यवहार में यही दुष्प्रवृत्तियाँ आलस्य,प्रमाद,अस्वच्छता, अशिष्टता, अव्यवस्था, संकीर्ण स्वार्थ परता आदि रूपों में मनुष्य को उपेक्षित, तिरस्कृत बनाती हैं । इनकी मात्रा अधिक बढ़ जाने से व्यक्ति भ्रष्ट , दुष्ट आचरण करता है और पशु-पिशाच कहलाता हैं । वासना, तृष्णा और अहन्ता की बढ़ोत्तरी से भी मनुष्य असामाजिक , अवांछनीय , उच्छृंखल एवं आक्रामक बन जाता है ।
फलतः उसे घृणा एवं प्रताड़ना का दण्ड सहना पड़ता है । उस स्थिति से उबरने पर ही व्यक्ति को सुसंस्कृत एवं सुविकसित होने का अवसर मिलता है । आत्म शोधन की साहसिकता भी भवानी है । आत्मविजय को सबसे बड़ी विजय कहा गया है ।
समाज में जहाँ सहकारिता, सज्जनता एवं रचनात्मक प्रयत्नों का क्रम चलता है, वहाँ दुष्टता, दुरभिसन्धियाँ भी कम नहीं हैं ।
अवांछनीयता, अनौतिकता, मूढ़ मान्यताओं का जाल बुरी तरह बिछा रहता है । उन्हीं के कारण अनेकानेक वैयक्तिक एवं सामाजिक समस्याएँ उठती एवं विकृतियाँ बढ़ती रहती है । इनसे लड़ने के लिए वैयक्ति एवं सामूहिक स्तर पर प्रचण्ड प्रयास होने ही चाहिए । इसी प्रयत्नशीलता को चण्डी कहते हैं । भवानी यही है ।
सृजन और संघर्ष के अन्योन्याश्रय तत्त्वो में से संघर्ष की आवश्यकता को सुझाने वाला और उसे अपनाने का प्रोत्साहन देने वाला स्वरूप भवानी है । सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री गायत्री का एक पक्ष संघषर्शील, शौर्य, साहस के लिए भी मागर्दशर्न करता है । इस शक्ति का गायत्री साधना से सहज संवधर्न होता है ।
भवानी के स्वरूप,आयुध एवं वाहन आदि का-संक्षिप्त तात्त्विक विवेचन इस प्रकार है-
भवानी के एक मुख, आठ हाथ हैं । शंख से-देव पक्ष की सहायता का उद्घोष, गदा से शक्ति, पद्म से निविर्कारिता, बंधी मुट्ठी से संगठन, चक्र से गतिशीलता, तलवार से दोषनाश, पाश से आसुरी शक्ति को बाँधकर बाधित करने तथा आशीर्वाद मुद्रा से सज्जनों को आश्वस्त करने का भाव सन्निहित है । वाहन-सिंह-शौर्य का प्रतीक हैं ।
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