Wednesday, 27 July 2016

सती दमयन्ती



विदर्भ देश में भीष्मक नाम के राजा राज्य करते थे। उनकी पुत्री का नाम दमयन्ती था। दमयन्ती लक्ष्मी के समान रुपवती थी। उन्हीं दिनों निषध देश में वीरसेन के पुत्र नल राज्य करते थे। वे बड़े ही गुणवान, सत्यवादी तथा ब्राह्मणभक्त थे। निषध देश में जो लोग विदर्भ देश में आते थे, वे महाराज नल के गुणों की बड़ी प्रशंसा करते थे। यह प्रशंसा दमयन्ती के कानो तक भी पहुँचती थी। इसी तरह विदर्भ देश से आने वाले लोग राज कुमारी के रुप और गुण की चर्चा महाराज नल के समक्ष करते। इसका परिणाम यह हुआ कि नल और दमयन्ती एक दूसरे के प्रति आकृष्ट होते गये।
दमयन्ती का स्वयंवर हुआ। उसने स्वयंवर में बड़े-बड़े देवताओं और राजाओं को छोड़कर राजा नल का ही वरण किया। नव-दम्पति को देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। दमयन्ती निषध-नरेश राजा नल की महरानी बनी। दोनों बड़े सुख से समय बिताने लगे। दमयन्ती पतिव्रताओं में शिरोमणी थी। अभिमान तो उसे छू भी न सका था। समयानुसार दमयन्ती के गर्भ से एक पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ। दोनों बच्चे माता-पिता के अनुरुप ही सुन्दर रुप और गुण से सम्पन्न थे। समय-सदा एक- सा नहीं रहता, दुःख-सुख का चक्र निरन्तर चलता ही रहता है। वैसे तो महराज नल गुणवान, धर्मात्मा तथा पुण्यश्लोक थे, किन्तु उनमें एक दोष था- जुए का व्यसन। नल के एक भाई का नाम पुष्कार था। वह नल से अलग रहता था। उसने उन्हें जुए के लिये आमन्त्रित किया। खेल आरम्भ हुआ। भाग्य प्रतिकूल था। नल हारने लगे। सोना, चाँदी, रथ,वाहन, राजपाट सब हाथ से निकल गया। महारानी दमयन्ती ने प्रतिकूल समय जानकर अपने दोनों बच्चों को विदर्भ देश की राजधानी कुण्डिनपुर भेज दिया।
इधर नल जुए में अपना सब कुछ हार गये। उन्होंने अपने शरीर के सारे वस्त्राभूषण उतार दिये। केवल एक वस्त्र पहनकर नगर से बाहर निकले। दमयन्ती भी मात्र एक साड़ी में पति का अनुसरण किया। एक दिन राजा नल ने सोने के पंख वाले कुछ पक्षी देखे। राजा नल ने सोचा, यदि इन्हें पकड़ लिया जाये तो इनको बेचकर निर्वाह करने के लिये कुछ धन कमाया जा सकता है। ऐसा विचार कर उन्होंने अपने पहनने का वस्त्र खोलकर पक्षियों पर फेंका। पक्षी वह वस्त्र लेकर उड़ गये। अब राजा नल के पास तन ढ़कने के लिये भी कोई वस्त्र नहीं रह गया। नल अपनी अपेक्षा दमयन्ती के दुःख से अधिक व्याकुल थे। एक दिन दोनों जंगल में एक वृक्ष के नीचे एक ही वस्त्र से तन छिपाये पड़े थे। दमयन्ती को थकावट के कारण नींद आ गयी। राजा नल ने सोचा, दमयन्ती को मेरे कारण बड़ा दुःख सहन करना पड़ रहा है। यदि मैं इसे इसी अवस्था में छोड़कर चल दूँ तो यह किसी तरह अपने पिता के पास पहुँच जायगी। यह विचार कर उन्होंने तलवार से उसकी आधी साड़ी को काट लिया और उसी से अपना तन ढ़ककर तथा दमयन्ती को उसी अवस्था में छोड़कर वे चल दिये। जब दमयन्ती की नींद टूटी तो बेचारी अपने को अकेली पाकर करुण विलाप करने लगी। भूख और प्यास से व्याकुल होकर वह अचानक एक अजगर के पास चली गयी और अजगर उसे निगलने लगा। दमयन्ती की चीख सुनकर एक व्याध ने उसे अजगर का ग्रास होंने से बचाया। किंतु वह व्याध स्वभाव से दुष्ट था। उसने दमयन्ती के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उसे अपनी काम-पिपासा का शिकार बनाया चाहा। दमयन्ती उसे शाप देते हुए बोली- यदि मैंने अपने पति राजा नल को छोड़कर किसी अन्य पुरुष का चिन्तन न किया हो तो इस पापी व्याध के जीवन का अभी अन्त हो जाए। दमयन्ती की बात पूरी होते ही व्याध के प्राण-पखेरु उड़ गये। देवयोग से भटकते हुए दमयन्ती एक दिन चेदि नरेश सुबाहु के पास और उसके बाद अपने पिता के पास पहुँच गयी। अंततः दमयन्ती के सतीत्व के प्रभाव से एक दिन महाराज नलके दुःखों का भी अन्त हुआ। दोनों का पुनर्मिलन हुआ और राजा नल को उनका राज्य भी वापस मिल गया।

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