राजा दिलीप की कोई संतान नही थी। वे और उनकी रानी अत्यंत दु:खी रहा करते थे। एक दिन राजा ने विचार किया कि इस विषय में कुल गुरु वशिष्ठ से विचार विमर्श किया जाए। वे उनकें आश्रम पहुंचे। वशिष्ठ ने उनकी समस्या सुनने के पश्चात उन्हें एक गाय दी और कहा बछिया के साथ इसकी सेवा करने से तुम्हारी इच्छा पूरी होगी। दिलीप ने यही किया। वे सुबह से शाम तक गाय और बछिया की सेवा में लगे रहते। उन दोनों के पीछे जाते, उन्हें कोमल घास खिलाते, उन्हे नहलातें और बीमार होनें पर उनका उपचार करते।
एक दिन जब वे दोनों को चराने हेतु वन मे ले गए तो एक सिंह से सामना हो गया। सिंह ने मानवीय वाणी में कहा- जो जीव यहां आता हैं , मैं उससे अपना पेट भरता हूँ। आज मैं इस गाय का भक्षण करुंगा। तब राजा दिलीप ने गाय के स्थान पर स्वयं को सिंह का आहार बनने के लिए प्रस्तुत कर दिया। सिंह बोला राजन, आप प्रजा के प्राणी हैं। आप क्यों एक गाय के लिए मृत्यु को प्रस्तुत होते हैं। आप चाहे तो अपने गुरु को ऐसी लाख गाय दान में दे सकते है। मगर गुरु आज्ञा पालक दिलीप अपनें फैसले पर अटल रहे। अंत में सिंह उनके भक्षण हेतु तैयार हो गया और दिलीप नेत्र बन्द कर भूमि पर लेट गए। काफी देर हो गई, मगर सिंह की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। अतः दिलीप ने नेत्र खोले तो देखा कि वहां सिंह के स्थान पर कामधेनु गाय खड़ी थी।
वह बोली-राजन, मैं आप से बहुत प्रसन्न हूं। आप मुझे दूह लें और इस दूध को स्वयं पीकर महारानी को भी पिला दें। आपके घर अवश्य ही पुत्र होगा। शाम को वशिष्ठ ने यज्ञ हेतु दूध निकालकर राजा व महारानी को दिया। कहते हैं कि कामधेनु के आशीर्वाद से दिलीप के घर रघु का जन्म हुआ, जिनके नाम पर सूर्यवंश का नाम रघुवंश पड़ा।
#शिक्षा- गुरुजनों व परिजनों की आज्ञा का पालन हमारा नैतिक दायित्व है। ऐसा करने से हमे अपने जीवन को उचित ढ़ग से संवारने का अवसर मिलता है।
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