हमारे जैसे विचार होते हैं हम वैसे
ही बन जाते हैं / विचार साँचा है
और जीवन गीली मिट्टी / हम
जिस प्रकार के विचारों में डूबे
रहते हैं, हमारा जीवन उसी
प्रकार के आकार में ढल जाता है ,
वैसे ही आचरण होने लगते हैं, वैसे ही
साथी मिल जाते हैं,उसी दिशा की
जानकारी,रुचिं और प्रेरणा
मिलती है / यह
शरीर,परिस्थितियाँ और यहाँ
तक की हमारा संसार भी हमारे
अन्दर के विचारों के अनुरूप ही
होता है /
अतः हमें ...चाहिए की हम
प्रतिदिन भलाई करने का अभ्यास
करें,सकारात्मक सोच,दृढ-प्रकृति
,तत्परता और प्रयत्न के साथ
समस्त बुरी प्रवृत्तियों को त्याग
कर अच्छी वृत्तियों का निरंतर
अभ्यास करें / इसके लिए श्रेष्ठ
मनुष्यों के संपर्क में रहना,श्रेष्ठ
पुस्तके पढ़ना,श्रेष्ठ बातें
करना,श्रेष्ठ घटनाएं देखना,श्रेष्ठ
कार्य करना तथा दूसरों में जो
श्रेष्ठताएँ हैं उनको अपनाने की
आवश्यकता है /
अब अगर हम अपने कुत्सित विचारों
को ही नहीं छोंड सकते तो फिर
लानत है मनुष्यता पर / अपने
दुर्भाग्य के लिए जब स्वयं
जिम्मेदार हैं तो देव या फिर
युग,समाज,व्यवस्था को क्यों दोष
दें?
भगवान् श्री कृष्ण तो गीता में
अर्जुन के माध्यम से हम सबको
संबोधित करते हुए यहाँ तक कहते हैं
की मरते समय के भाव या चिंतन के
अनुरूप ही हमें अगला जीवन प्राप्त
होता है - " यं यं वापि स्मन्भवं
त्यजत्यन्ते कलेवरं / तं तमेवैति
कौन्तेय सदा तद्भावभावितः //"
अर्थात - " कुंती सुत मरते समय,
जिसके जैसे भाव / वही भाव में जनम
हो, जैसा की श्रुति गाव //" अब
जब यह पता नहीं की कब अंतिम
समय आ जाय तो फिर क्यों न हमेशा
ही हम शुभ चिंतन,शुभ कार्यों को
करके शुभ लाभ,परम लाभ की
प्राप्ति करें / जय श्री कृष्ण !
ही बन जाते हैं / विचार साँचा है
और जीवन गीली मिट्टी / हम
जिस प्रकार के विचारों में डूबे
रहते हैं, हमारा जीवन उसी
प्रकार के आकार में ढल जाता है ,
वैसे ही आचरण होने लगते हैं, वैसे ही
साथी मिल जाते हैं,उसी दिशा की
जानकारी,रुचिं और प्रेरणा
मिलती है / यह
शरीर,परिस्थितियाँ और यहाँ
तक की हमारा संसार भी हमारे
अन्दर के विचारों के अनुरूप ही
होता है /
अतः हमें ...चाहिए की हम
प्रतिदिन भलाई करने का अभ्यास
करें,सकारात्मक सोच,दृढ-प्रकृति
,तत्परता और प्रयत्न के साथ
समस्त बुरी प्रवृत्तियों को त्याग
कर अच्छी वृत्तियों का निरंतर
अभ्यास करें / इसके लिए श्रेष्ठ
मनुष्यों के संपर्क में रहना,श्रेष्ठ
पुस्तके पढ़ना,श्रेष्ठ बातें
करना,श्रेष्ठ घटनाएं देखना,श्रेष्ठ
कार्य करना तथा दूसरों में जो
श्रेष्ठताएँ हैं उनको अपनाने की
आवश्यकता है /
अब अगर हम अपने कुत्सित विचारों
को ही नहीं छोंड सकते तो फिर
लानत है मनुष्यता पर / अपने
दुर्भाग्य के लिए जब स्वयं
जिम्मेदार हैं तो देव या फिर
युग,समाज,व्यवस्था को क्यों दोष
दें?
भगवान् श्री कृष्ण तो गीता में
अर्जुन के माध्यम से हम सबको
संबोधित करते हुए यहाँ तक कहते हैं
की मरते समय के भाव या चिंतन के
अनुरूप ही हमें अगला जीवन प्राप्त
होता है - " यं यं वापि स्मन्भवं
त्यजत्यन्ते कलेवरं / तं तमेवैति
कौन्तेय सदा तद्भावभावितः //"
अर्थात - " कुंती सुत मरते समय,
जिसके जैसे भाव / वही भाव में जनम
हो, जैसा की श्रुति गाव //" अब
जब यह पता नहीं की कब अंतिम
समय आ जाय तो फिर क्यों न हमेशा
ही हम शुभ चिंतन,शुभ कार्यों को
करके शुभ लाभ,परम लाभ की
प्राप्ति करें / जय श्री कृष्ण !
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