रावण के दरबार से अपमानित होने के बाद जब विभीषण प्रभु श्रीराम के दल में उनकी शरण ग्रहण करने के लिए पहुँचे, तो रघुवीर ने मधुर मुस्कान के साथ विभीषण की कुशल-क्षेम पूछी।
प्रभु अपने प्रथम सम्बोधन में ही विभीषण को निहाल करते हुए बोले-
कहु लंकेश सहित परिवारा।
कुशल कुठाहर बास तुम्हारा।।
खल मंडली बसहु दिन राती।
सखा धर्म निभहइ केहि भाँती।।
हे लंका के स्वामी, विभीषण!
परिवार सहित अपनी कुशलता का समाचार कहो।
तुम दिन रात दुष्टों की मंडली से घिरे रहते हो, ऐसे कुसंग में तुम अपना भागवत धर्म कैसे निभा पाते हो?
श्रीराम की करुणापूर्ण वाणी को सुनकर विभीषण का हृदय उमड़ आया। सोचने लगे, अरे! मेरे प्रभु को मेरी कितनी चिंता है! इन्हें पता है कि मुझे इतने विकट कुसंग में रहकर पल-पल सजग रहना पड़ता है।
उत्तर देते हुए विभीषण बोले-
बरु भल बास नरक कर ताता।
दुष्ट संग जनि देइ विधाता।।
हे प्रभु! आप अन्तर्यामी हैं। आप सब जानते हैं।
प्रभु, मेरा तो यह मत है कि भले ही नरक में वास मिल जाए, परंतु किसी दुष्ट का संग विधाता कभी भी न दे।
लंका के घोर कुसंग में रहकर भी कुसंग से कैसे बचकर रह पाये विभीषण जी?
वे निरंतर अनन्य भक्ति के सहारे बचे रहे।
भक्ति का मुख्य साधन क्या था विभीषण जी के पास?
राक्षसों से गढ़ में, जहाँ के राजा रावण ने हठपूर्वक भगवान् श्रीराम से वैर ठान लिया था, वहाँ पूजन, अर्चन, कीर्तन और व्रत आदि के साधन करने कदापि संभव न थे।
ऐसे घोर कुसंग में विभीषण ने केवल दो साधन दृढ़ता से पकड़े रखे-
स्मरण
और
नाम जप।
विभीषण जी ने नाम जप के लिए माला का आश्रय नहीं लिया।
श्वास के साथ-साथ नाम जप का अभ्यास करके उन्होंने नाम जप की साधना की और श्रीहरि की कृपा से दिन-रात, सोते-जागते उनका नाम जप अनायास ही स्वतः होने लगा।
तभी तो श्री हनुमान जी ने उन्हें निकट से देखे बिना ही दूर से ही पहचान लिया कि यह लंका में कोई परम भागवत है, यह कौन है?
हनुमान जी तो रात्रि में लंका का महल-महल छानते हुए सीता मैया की खोज कर रहे थे।
तभी उन्होंने एक सुन्दर सात्विक चिन्हों वाला एक भवन देखा। हनुमान जी भवन के आगे जा खड़े हुए। अब, हनुमान जी सोच ही रहे थे कि क्या करूँ, कैसे करूँ कि
तेही समय विभीषण जागा।
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा।
हृदय हरष कपि सज्जन चीन्हा।।
हरि इच्छा से विभीषण जी उसी समय जाग उठे।
द्वार तक आया हुआ संत द्वार से ही लौट जाएँ और हरि भक्त सोता ही रह जाए, ऐसा कैसे संभव है?
हरि भक्त तो अपने स्वामी का ही आश्रय लेकर सोता है, इसलिए सही समय पर जगाने की सेवा भी हरि स्वयं करते हैं।
नींद से जागते ही विभीषण जी के मुख से अनायास ही, सहज ही राम राम का जप होने लगा।
श्री हनुमान जी ने इतने में ही पहचान लिया कि यह तो कोई हरि दर्शन का अधिकारी बसा है यहाँ।
उठते ही राम राम का अनायास जप तो कोई सधा हुआ साधक ही कर सकता है।
नाम जप पर निष्ठा हो, तो श्री हरि घोर कुसंग में रहते हुए भी हमें संत से मिलाने की व्यवस्था कर ही देते हैं।
भरी लंका में और दूसरा कौन जान पाया कि विभीषण का हनुमान जी से मिलन कब हुआ, कैसे हुआ?
श्री हनुमान जी (संत/गुरु) के दर्शन के बाद भक्ति में निष्ठा रखने वाले विभीषण जी को क्या कुछ नहीं मिला?
चेतन-अचेतन मन की जितनी कामनाएँ थीं, सब पूरी हुईं।
लेकिन ये सब कामनाएँ तब पूरी हुईं, जब प्रत्यक्ष में विभीषण जी ने सब कामनाओं को तिलाँजलि दे दी थी।
विभीषण ने जब स्पष्तः यह कह दिया-
उर कछु प्रथम वासना रही।
प्रभु पद प्रीति सरित सो बही।।
तब श्रीराम ने यह कहा-
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं।
मोर दरस अमोघ जग माहीं।।
अस कहि राम तिलक तेहिं सारा।
कामना भक्ति की शत्रु है।
बाहरी कुसंग से तो हरि अपने भक्त को बचा लेते हैं, लेकिन उसके हृदय में उठने वाली मायिक कामनाओं पर उनका वश नहीं चलता। विवश खड़े वे इन कामनाओं से लड़ने के लिए भक्त का ही मुँह ताकते रहते हैं।
कुसंग से बचने का सबसे बड़ा और सबसे गुप्त और सबसे प्रबल और सबसे अचूक साधन है-
अपने इष्ट का रूपध्यान पूर्वक स्मरण।
स्मरण मन में होता है।
इसके लिए न आसन चाहिए, न माला और न ही एकांत।
चलते-फिरते जहाँ भी साधक रहे, अपने श्याम सुन्दर को व अपने गुरुदेव को अपने संरक्षक व निरीक्षक के रूप में सदा साथ रखे, उनके बिना कभी भी, कहीं भी अकेला न रहे।
भगवान् की कृपा में कमी कहाँ है?
संसार में सद्गुरु की भी कमी कहाँ है?
संसार के कुसंग के कारण साधक की निष्ठा में ही सारी कमी है।
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