Saturday, 25 June 2016

इंद्रधनुष


अठारहवीं सदी में खोजे गए स्पेक्टम के वैज्ञानिक तथ्य का वर्णन वेदों में काव्यात्मक तरीके से किया गया है कि सूर्य के एकचक्रीय रथ को सात रंगों के घोड़े चलाते हैं।
यही नहीं, सर्य की किरणों के हानिकारक प्रभाव पर भी चर्चा की गई है। ऋग्वेद में इन्हें पुरुसाद कहा गया है। जिसका अर्थ ऐसी किरणों से है जो व्यक्ति को खा जाती हैं और इनसे सारा संसार भयभीत रहता है।
प्रकाश की चाल और हम
भौतिक विज्ञान 19 वीं सदी में प्रकाश की चाल की गणना करता है। अमेरिकी भौतिकविदों (Michelson and Morley) ने बताया कि यह 30,00,00,000 मीटर/ सेकेंड (1,86,000 मील/ सेकेंड या 3,00,000 किमी/ सेकेंड) होती है। जहां तक हिंदू धर्म शास्त्रों का सवाल है, तो 14 वीं शदी के दक्षिण भारतीय टीकाकार सायण या सयानाचार्य ने इस पर टिप्पणी की है। आप ताज्जुब करेंगे कि ऋग्वेद के आधार पर की गई गणना आधुनिक परिकल्पना के काफी नजदीक है।
जीवाणु और बीमारी
1969 में पाश्चात्य विद्वान जेजी हॉलवेल, एमआरएस ने कॉलेज ऑफ फिजिशियन, लंदन की एक सभा में लिखित रिपोर्ट दाखिल की थी कि भारत के चिकित्सकों के अनुसार असंख्य अदृश्य जीवाणुओं के कारण बीमारियां फैलती हैं।
वैमानिकी और हम
उत्तर वैदिक काल के मनीषी महर्षि भरद्वाज को उद्धृत कर रहा हूं। अपने ग्रंथ में इन्होंने विमान में प्रयुक्त होने वाली धातुओं के निर्माण की विधि का वर्णन किया है…।
राइट बंधुओं से तो आप सब वाकिफ होंगे…। हमें बचपन से पढ़ाया जाता है कि इन्होंने स्वनिर्मित विमान से पहली हवाई यात्रा की…। 1905 ईसवी में 120 फिट उचांई तक सैर भी किया…। आविष्कारक बताया जाता है इन्हें विमान का…।
लेकिन हममें से कितनों का पता है शिवकर बापूजी तलपड़े के बारे में..। मुंबई के मशहूर संस्कृत विद्वान थे तलपड़े…। 1864 में इनका जन्म हुआ था…। राइट बंधुओं से आठ साल पहले, 1895 में इन्होंने एक विमान बनाया…।
वैदिक तकनीक पर…। मरुताक्षी नाम दिया इसका…।
मुंबई के चैपाटी समुद्र तट पर मानव रहित विमान उड़ाया भी…। 1500 फीट की उंचाई तक…। महशूर जज व राष्टवादी महादेव गोविंद रानाडे, बड़ोदरा के महाराज शिवाजी राव गायकवाड़ के साथ भारी दर्शकों के बीच….। लेकिन दुर्भाग्य से वह वहीं क्रैश हो गया….।
क्या कहेंगे आप विमान के प्रथम भारतीय आविष्कारक पर…????
यज्ञ का विज्ञान
03 दिसंबर 1984 की भोपाल गैस त्रासदी पर एक किताब पढ़ते समय अग्रेंजी समाचार पत्र “द हिंदू” की एक स्टोरी पर नजर पड़ी…। आपको भी सुनाता हूं…।
….जहरीली गैस मिथाइल आइसोसाइनेट का रिसाव होने के थोड़ी देर बाद अध्यापक एसएल कुशवाहा ने अपने घर में अग्निहोत्र यज्ञ करना शुरु कर दिया। इसके करीब बीस मिनट बाद गैस का असर उसके घर पर खत्म हो गया और उनकी जिंदगी बच गई….।
शल्य चिकित्सा और हम
भारतीय शल्य चिकित्सा का एक विवरण मद्रास गजेट (1793) में आया है…। इसके मुताबिक अग्रेजों की सहायता करने के नाराज टीपू सुल्तान ने 1793 में मराठा केवशजी सहित चार सैनिकों की नाक काट दी।
ब्रिटिश कमांडिग अधिकारी इन्हें एक वैद्य के पास ले गया। वैद्य ने सर्जरी कर इनकी नाक ठीक की। 1794 में यह स्टोरी लंदन की जेंटलमेन मैगजीन में भी प्रकाशित हुई। इससे प्रेरित होकर ब्रिटिश सर्जन J.C. Carpue ने दो भारतीयों की सर्जरी की। बाद में यही काम जर्मन सर्जन Greafe ने भी किया।
कहने का मतलब यह कि भारतीय शल्य चिकित्सा पद्धति मराठा प्रदेश से यूरोप पहुंची। फिर 200 साल बाद प्लास्टिक सर्जरी के रूप में इसका यूरोप से आयात किया गया। जबकि हमारे यहां यह बहुत पहले से ही विकसित थी। ईसा पूर्व में ही। सुश्रुत संहिता में नाक, ओठ व कान की सर्जरी का विस्तार से वर्णन है।
मिट्टी और मकान
मकान बनाने के लिए मिट्टी की क्वालिटी जाननी जरूरी होती है। 5 वीं सदी ईसा पूर्व के कई संस्कृत ग्रंथों में इसका विस्तार से वर्णन है। आपको हैरत हो सकती है कि एक तकनीक का आज भी धड़ल्ले से प्रयोग होता है।
इसके मुताबिक पहले जमीन में गहरा गड्ढा खोदा जाता है। फिर इससे निकली मिट्टी से दुबारा गड्ढ़ा भरा जाता है। अगर गड्ढा भरने के बाद भी मिट्टी बची रहती है तो पता चलता है कि संबंधित जमीन मजबूत है और यहां मकान बनाना उपयुक्त रहेगा।
पौराणिक आख्यान और फोटान सिद्धांत
आइए पौराणिक आख्यानों और फोटान सिद्धांत की तुलना की जाए। भगवान सूर्य, इनका सात रंग के सात घोड़ों का रथ, लगाम के तौर पर सांप…। इसकी जानकारी तो आपको होगी ही…।
देखा जाए तो बनावट में इसका पिछला हिस्सा पतला और मुख चैड़ा होता है…। इसके फन पर मणि होती है और चाल तरंग जैसी होती है…। वहीं आधुनिक विज्ञान प्रकाश को फोटान नामक कणों का प्रवाह मानता है…। इसका न द्रव्यमान होता है न भार…।
सारे मौलिक कणों की तरह इनमें भी तरंग व कण दोनों की प्रवृत्ति होती है…। इसका पिछला सिरा पतला और आगे धीरे-धारे चैड़ा होता जाता है। संस्कृत ग्रंथो में प्रकाश किरणों को प्रिथु मुखः कहा गया है…।
इस तरह कहा जा सकता है कि बेशक हमारे पूर्वजों ने फोटान शब्द का उल्लेख नहीं किया…। इसका श्रेय आइंस्टीन को जाता है। लेकिन इसकी संभावना पूरी है कि वह इसके गुणों से परिचित थे…।
अर्जुन की छाल
28 जून 2003 को Wolfson Institute के Dr. N.J.Wald व Dr. M.R.Law की ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में थिसिस प्रकाशित हुई थी…।
इसमें पाॅलीपिल (Palypill) नामक एक टेबलेट हार्ट अटैक के लिए उपयुक्त बताई गई। हालांकि अभी यह दवा अभी भी निर्मित होने के चरण में है, लेकिन इस क्षेत्र के जानकारों ने इसका स्वागत किया है।
आपको हैरत होगी कि इस दवा की बहुत सारी खूबियां अर्जुन की छाल में मौजूद हैं।

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