Thursday, 30 June 2016

संसार के वे प्रथम दंपत्ति

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मैं तुम्हारे स्पर्श को पहचानता हूँ। पुरुष ने सहज स्वर से कहा। “मुझे तुमसे कोई भय नहीं और न मैं उस प्रकार चौंककर भागूँगा, जैसे तुम भागती हो।”
उसने धीरे से दोनों हाथ पकड़ लिए और नेत्रों से उन्हें हटाते हुए पीछे देखा।
“सचमुच तुम बड़े निर्भीक हो।”
नारी के स्वर में किंचित आश्चर्य था।
“यदि कोई डायनोसौर या गुरिल्ला होता हो ?”
“डायनोसौर आँखें नहीं ढक सकता और न इस पहाड़ी पर चढ़ सकता है।”
पुरुष ने हाथ छोड़ दिया था।
“गुरिल्ले के हाथ तो होते हैं किन्तु वह आँखें ढ़ककर शान्त न खड़ा रहता। मैंने तुम्हें गुफा में सोते देख लिया था।”
“यदि मैं उठकर तुम्हारे सिर पर पत्थर दे मारती ?”
नारी को स्वतः आश्चर्य था कि उसने ऐसा क्यों नहीं किया। उसकी आखेट भावना कहाँ चली गई थी ?
“मेरे पास खूब बड़ा पाषाण भल्ल है।”
“मुझे पता है।”
पुरुष ने सहज स्वर में कहा -
“मैंने उसे देख लिया था, द्वार पर से। मेरे भल्ल से आधा ही तो है। मैं एकाकी ऊब गया हूं। तुमसे मित्रता करना चाहता हूँ। तुम आक्रमण कर सकती हो, यह बात मेरे ध्यान में थी। किन्तु मैंने सोचा तुम अधिक चोट नहीं पहुंचा सकोगी। सुकुमार हो तुम।”
“तुम बड़े दुष्ट हो।”
नारी इस नवीन स्तुति से प्रसन्न हो गयी थी। आज प्रथम बार उसकी किसी ने प्रशंसा की थी। उसे विचित्र लगी यह स्तुति। तनिक हंसते हुए उसने कहा
“मेरी गुफा तक सोते समय आ गए। भीतर झाँकते रहे। गुफा की ओर पीठ करके बैठक गए। कुशल थी कि भूख नहीं लगी थी, नहीं तो मारकर खा भी जाते।”
भय से सचमुच वह सिहर उठी और दो पग पीछे हट गयी।
“मुझे माँस से घृणा है।”
पुरुष ने विरक्ति भाव से एक ओर थूक दिया।
“फल और जड़ें मुझे अच्छी लगती हैं और खूब मिल भी जाती हैं। आखेट तो मैं केवल डायनोसौर, गुरिल्ले और शेर जैसे उन जानवरों का करता हूँ, जिनसे मुझे आक्रमण का भय है।”
अपनी भुजा उठायी उसने, सुपुष्ट मांसपेशियों पर नारी की दृष्टि आकर्षित हुए बिना न रहीं।
पुरुष की ओर प्रशंसा भरी दृष्टि से देखते हुए वह बोली,
“लेकिन डायनोसौर तो बहुत बड़ा होता है, उसे कैसे मार लेते हो ? “
उसके कथन में पुरुष के पौरुष के प्रति आश्चर्य मिश्रित प्रशंसा थी। इस ओर से अनभिज्ञ पुरुष ने कहा
“डायनोसौर भारी भरकम जरूर होता है, लेकिन अपने सिर पर की गई चोट को वह बर्दाश्त नहीं कर पाता।”
“ओह”
नारी ने मृदु स्वर से कहा,
“ मैं अवश्य चीख पड़ती, यदि तुम्हें अपनी गुफा में देख लेती।”
अब तक वह समीप आकर बैठ गयी थी।
“भय की बात तो थी।”
पुरुष के स्वर में आदेश का भाव था।
“तुम गुफा द्वार खुला छोड़कर सो गयी थी। कोई भी शेर या गुरिल्ला भीतर घुस सकता था। ऐसा नहीं करना चाहिए।”
“सचमुच भूल हो गयी।”
नारी जैसे सफाई दे रही हो।
“बहुत थक गयी थी। एक हिरण के पीछे बहुत भागी थी प्रातः से। आकर लौटी और सो गयी। ऐसा कभी पहले नहीं हुआ।”

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