शिव हे करुणा सागर मनुष्य मात्र की सभी इच्छाओं को जाननें वाले हे नाथ आपनें मुझ अकिंचन को यह दुर्लभ हृदयहारी पल देकर धन्य कर दिया कि मै आपके प्रति कृतज्ञता का अनुभव कर सका हूँ महादेव मै आपको नमस्कार करता हूँ | हे शिव हे भोले संपूर्ण सृष्टि में आप जैसा दानी और कौन है जो कि अपनें भक्त की इच्छा पूरी करते समय किसी नियम की परवाह नहीं करते हे महादानी मै आपको नमस्कार करता हूँ | हे हर हे महारुद्र मै आपको बार बार प्रणाम करता हूँ |
हे भक्त वत्सल भगवान शिव मेरा नमन स्वीकार करें |
🌿 सन्त जन कहते है कि प्रत्येक बुराई का उत्तर भलाई से दो अथवा सहन करो और मौन हो जाओ, क्योंकि बुराई का उत्तर बुराई से देना पशुता है । मौन रहकर हम बहुत सारी परेशानियो से बच सकते है ।
🌿 दूसरों के साथ वैसा ही बर्ताव करे, जैसा दूसरों से स्वयं के लिए चाहते है । दुसरे से ऐसा बर्ताव कभी न करे, जैसा वह दुसरे से नहीं चाहते । भलाई दूसरों की करने से अपनी होती है, और सुधार अपना करने से दूसरों का होता है ।
संसार के किसी भी प्रदार्थ से आसक्ति नहीं करनी चाहिये; क्योंकि आसक्ति होने से अन्तकाल में उसका संकल्प हो सकता है । संकल्प होने पर जन्म लेना पड़ता है ।
सत्ता और आसक्ति को लेकर जो स्फुरणा होती है, उसी का नाम संकल्प है ।
महात्मा पुरुषों का पुनर्जन्म नहीं होता; क्योंकि उनके हृदय में किसी प्रकार का भी किंचिन्मात्र संकल्प रहता ही नहीं । प्रारब्ध के अनुसार केवल स्फुरणा होती है , जो कि सत्ता और आसक्ति का अभाव होने के कारण जन्म देनेवाली नही है तथा कार्य की की सिद्धि या अशिद्धि में उनके हर्ष-शोकादि कोई भी विकार लेशमात्र भी नहीं होते । यही संकल्प और स्फुरणा का भेद है ।
आसक्ति वाले पुरुष के मनके अनुकूल होने पर राग और हर्ष तथा प्रतिकूल होने पर द्वेष और दुःख होता है ।
निन्दा-स्तुति सुनकर जरा भी हर्ष-शोक, राग-द्वेष आदि विकार नहीं होने चाहिये ।
कल्याणकामी पुरुष को उचित है कि मान और कीर्ति को कलंक के समान समझे ।
हर समय संसार और शरीर को काल के मुख में देखे ।
मरुभूमि में जल दीखता है, वास्तव में है नहीं । अत: कोई भी समझदार मनुष्य प्यासा होते हुए भी वहाँ जल के लिये नहीं जाता । इसी प्रकार संसार के विषयों में भी सुख प्रतीत होता है, वास्तव में है नहीं । ऐसा जाननेवाले विरक्त विवेकी पुरुष की सुख के लिये उसमे कभी प्रवृत्ति नहीं होती ।
जीवन्मुक्त, ज्ञानी महात्माओं की दृष्टि में संसार स्वप्नवत है । इसलिये वे संसार में रहकर भी संसार के भोगों में लिप्त नहीं होते ।
जीते हुए ही जो शरीर को मुर्दे के समान समझता है, वही मनुष्य जीवन्मुक्त है । अर्थात् जैसे प्राणरहित होने पर शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं रहता, वैसे ही प्राण रहते हुए भी जिनका शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं, वही जीवन्मुक्त महाविदेही है ।
हे भक्त वत्सल भगवान शिव मेरा नमन स्वीकार करें |
🌿 सन्त जन कहते है कि प्रत्येक बुराई का उत्तर भलाई से दो अथवा सहन करो और मौन हो जाओ, क्योंकि बुराई का उत्तर बुराई से देना पशुता है । मौन रहकर हम बहुत सारी परेशानियो से बच सकते है ।
🌿 दूसरों के साथ वैसा ही बर्ताव करे, जैसा दूसरों से स्वयं के लिए चाहते है । दुसरे से ऐसा बर्ताव कभी न करे, जैसा वह दुसरे से नहीं चाहते । भलाई दूसरों की करने से अपनी होती है, और सुधार अपना करने से दूसरों का होता है ।
संसार के किसी भी प्रदार्थ से आसक्ति नहीं करनी चाहिये; क्योंकि आसक्ति होने से अन्तकाल में उसका संकल्प हो सकता है । संकल्प होने पर जन्म लेना पड़ता है ।
सत्ता और आसक्ति को लेकर जो स्फुरणा होती है, उसी का नाम संकल्प है ।
महात्मा पुरुषों का पुनर्जन्म नहीं होता; क्योंकि उनके हृदय में किसी प्रकार का भी किंचिन्मात्र संकल्प रहता ही नहीं । प्रारब्ध के अनुसार केवल स्फुरणा होती है , जो कि सत्ता और आसक्ति का अभाव होने के कारण जन्म देनेवाली नही है तथा कार्य की की सिद्धि या अशिद्धि में उनके हर्ष-शोकादि कोई भी विकार लेशमात्र भी नहीं होते । यही संकल्प और स्फुरणा का भेद है ।
आसक्ति वाले पुरुष के मनके अनुकूल होने पर राग और हर्ष तथा प्रतिकूल होने पर द्वेष और दुःख होता है ।
निन्दा-स्तुति सुनकर जरा भी हर्ष-शोक, राग-द्वेष आदि विकार नहीं होने चाहिये ।
कल्याणकामी पुरुष को उचित है कि मान और कीर्ति को कलंक के समान समझे ।
हर समय संसार और शरीर को काल के मुख में देखे ।
मरुभूमि में जल दीखता है, वास्तव में है नहीं । अत: कोई भी समझदार मनुष्य प्यासा होते हुए भी वहाँ जल के लिये नहीं जाता । इसी प्रकार संसार के विषयों में भी सुख प्रतीत होता है, वास्तव में है नहीं । ऐसा जाननेवाले विरक्त विवेकी पुरुष की सुख के लिये उसमे कभी प्रवृत्ति नहीं होती ।
जीवन्मुक्त, ज्ञानी महात्माओं की दृष्टि में संसार स्वप्नवत है । इसलिये वे संसार में रहकर भी संसार के भोगों में लिप्त नहीं होते ।
जीते हुए ही जो शरीर को मुर्दे के समान समझता है, वही मनुष्य जीवन्मुक्त है । अर्थात् जैसे प्राणरहित होने पर शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं रहता, वैसे ही प्राण रहते हुए भी जिनका शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं, वही जीवन्मुक्त महाविदेही है ।
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