Sunday, 26 June 2016

वैवस्वत मनु का इतिहास


वैवस्वत मनु का इतिहास
भारत देश का प्राचीन नाम आर्याव्रत है इसके पूर्व का इसका कोई नाम नहीं मिलता | कहीं-कहीं जम्बुद्वीप का उल्लेख मिलता है तो कुछ लोंग इसे अजनाभ खंड भी कहतें हैं जिसका मतलब ब्रम्हा की नाभि से उत्पन्न खंड |
वेद-पुराण और वैज्ञानिक शोधों का अध्ययन करें तो पता चलता है कि जीव-जंतु के वर्तमान आदि की उत्पत्ति हिमालय के आस-पास की भूमि पर हुयी थी | यह दुनिया का सबसे ऊँचा पठार है इसलिए तिब्बत को अधिक महत्त्व दिया गया है |
हिमालय के कारण पूर्व में इसे हिमवर्ष भी कहा जाता था | वेद-पुराण में तिब्बत कों त्रिविष्टप भी कहा जाता है महाभारत के महाप्रस्थानिक पर्व से स्पष्ट होता है कि तिब्बत हिमालय के उस राज्य कों कहा जाता है जिसमे नंदनकानन नामक देवराज इन्द्र का देश था | इससे सिद्ध होता है कि इन्द्र का स्वर्ग धरती पर था, जहाँ शिव और अन्य देवता भी रहते थे |
पूर्व में धरती जलप्रलय के कारण ढक गयी थी | कैलाश और गौरी-शंकर की चोटी तक पानी चढ गया था और सम्पूर्ण धरती जलमग्न हो गयी थी | विद्वानों में मतभेद है कि कहीं -कहीं धरती जल से अछूती रह गयी थी |
पुराणों में उल्लेख है कि जलप्रलय के समय ओंकारेश्वर स्थित मार्कंडेय ऋषि का आश्रम जल से अछूता रहा था | बहुत दिन तक वैवस्वत मनु (जिन्हें श्रद्धादेव भी कहा जाता है ) नाव में गुजरते रहें | गौरीशंकर यानि एवरेष्ट की चोटी के शिखर से उतर कर नीचे आये और तिब्बत में वैवस्वत मनु की संतानों ने वही से अलग-अलग भूमि की ओर रुख किया |
विज्ञान मनाता है कि पहले सभी द्वीप एक साथ थे अमेरिका और अफ्रीका इधर चीन और रूस एक दूसरे से जुड़े हुए थे तथा अफ्रीका भारत से जुड़ा हुआ था | धरती की घूर्णन गति और भूगर्भीय परिवर्तन के नाते धरती द्वीपों में बंट गई थी |
जैसे-जैसे जल स्तर घटता गया लोग मध्य भाग में आते गए, राजस्थान का रण या रेगिस्तान इस बात का गवाह है कि यहाँ पहले कभी समुन्द्र हुआ करता था | चारों दिशाओं में फैले हुए लोग धीरे-धीरे अखंड भारत पर बस गए |
हिमालय के आस-पास के लोग इस अखंड भारत कों ब्रम्हावर्त, ब्रम्हर्षिदेश, मध्य देश, आर्यावर्त, एवं भारतवर्ष आदि नामों से उल्लेखित किया था | इस दौरान जो हिमालय के आप-पास के इलाके में रहें वे आर्य कहलाने लगे और दक्षिण में रहने व्वाले लोग अनार्य कहलाये |
मनु के संतान ही आर्य – अनार्य में बंट कर पुरे धरती पर फ़ैल गए थे, जिन्हें पूर्व में देव-दानव भी कहा जाता था | जिसपर आज भी मतभेद दिखाई देता है और जो शोध का विषय भी है |
भारतीय पुराणकार सृष्टि का इतिहास कल्प में और मानव सृष्टि, उत्पत्ति या उत्थान का इतिहास मन्वंतर में वर्णित करते हैं और मन्वन्तरो का इतिहास युग-युगान्तर में बताते हैं | प्राचीन ग्रंथों में मानव इतिहास कों पांच कल्पों में विभाजित किया गया है :-
(1) हमत कल्प- 1 लाख 9 हजार 8 सौ वर्ष विकार्मीय पूर्व से लेकर 85800 वर्ष पूर्व तक का माना जाता है |
(2) हिरण्य गर्भ कल्प – 85800 विकार्मीय पूर्व से 61800 वर्ष पूर्व तक का माना जाता है |
(3) ब्राम्ह्य कल्प- 61800 विकर्मीयपूर्व से 37800 वर्ष पूर्व तक का माना जाता है |
(4 ) पाद्म कल्प- 37800 वर्ष विकर्मीय पूर्व से 13800 वर्ष पूर्व तक का माना जाता है |
(5) वराह कल्प- 13800 वर्ष पूर्व से आज तक का माना जा रहा है | वराह कल्प के अबा तक स्वयाम्भु मनु, स्वरोचित मनु, उत्तम मनु, तमास मनु, रेवत मनु, चाक्षुष मनु, तथा वैवस्वत मनु के मन्वंतर बीत चुके हैं |
अब वैवस्वत मनु तथा सावर्णि मनु की अंतरदशा चाल रही है |
सावर्णि मनु का आविर्भाव विक्रमी संवत प्रारम्भ होने से 5630 वर्ष पूर्व हुआ था | श्रीराम शर्मा आचार्य (गायत्री शक्ति पीठ) ने कल्प को समय का सबसे लंबा मापन घोषित किया है जिसे गिनीज बुक ऑफ रिकार्ड्स में जगह मिली है |
वैवस्वत मनु के शासन काल में देवों का पांच तरह से विभाजन हुआ :- देव, दानव, यक्ष, किन्नर, और गंधर्व | वैवस्वत मनु के दश पुत्र :- इल, इक्ष्वाकु, कुशनाभ, अरिष्ट, धृष्ट, नारिश्यन्ति, करुष , महाबली, शर्याति, और पृषध थे | जिसमे इक्ष्वांकु कुल का ही ज्यादे विस्तार हुआ और जिसमे कई प्रतापी राजा, ऋषि, अरिहंत और भगवान हुए |
भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार :- द्रविड़ देश के राजर्षिसत्यव्रत(वैवस्वत मनु) के समकक्ष भगवान विष्णु ने प्रकट होकर सत्यव्रत से कहा कि आज से सातवें दिन धरती जल प्रलय के समुन्द्र में डूब जायेगी | आप एक नौका में समस्त प्राणियों के सूक्ष्म शरीर तथा हर प्रकार के बीज लेकर सप्त ऋषियों के साथ उसमे बैठ जाना | प्रचंड आंधी से नाव डगमगाने लगेगी तो मै मत्स्य रूप में उसे बचाकर खिचता रहूगां |
भगवान विष्णु उस नाव को हिमालय कि ऊँची चोटी से बांध दिए और प्रलय समाप्ति के बाद वेद का ज्ञान वापस दिया | उसी राजा वैवस्वत ज्ञान-विज्ञान से पूर्ण होकर वैवस्वत मनु कहलाये जिनसे पुन: संसार का जीवन चला |
यही बात हजरत नूह ने भी कही, जिन्हें राजा मनु ही बताया जाता है | हजरत नूह ही यहूदी, ईसाई, और इस्लाम के पैगम्बर हैं जिस पर बहुत से शोध भी हुए है | जल प्रलय की ऐतिहासिक घटना संसार के सभी सभ्यताओं में पाई जाती है |
मनु की यह कहानी यहूदी, ईसाई और इस्लाम में हजरत नूह की नौका के नाम से वर्णित है | उस वक्त नूह की उम्र 6 सौ वर्ष थी जब यहोवा (ईश्वर)ने कहा कि तू एक जोड़ी हर तरह के जीव -प्राणी और अपने घराने के साथ कश्ती पर सवार हो जा, कारण मै जल प्रलय करने वाला हूँ |
बहुत से लोग मनु और नूह को एक ही शख्स मानते होगे या धर्म कट्टरता के चलते न भी मानते हो, लेकिन तौरात, बाइबिल, कुरआन, से पूर्व ही मत्स्य पुराण लिख गया था जिसमे उक्त कथा का उल्लेख मिलता है |
कथाओं की साम्यता, यहीं बताती हैं कि जलप्रलय और सृष्टि हमारी एकता का बोध कराती हैं उक्त घटना का स्थान, समय और परंपरा के मान से अलग-अलग प्रभाव पड़ा होगा जिसे दर्ज किया गया होगा | यह मानव जाति का इतिहास है न कि किसी धर्म की प्रशंसा या गुणगान, जो इतिहास में कहीं न कहीं वर्णित है |
जीवन सतत एक प्रक्रिया जो सृष्टि के अनुरूप चलता रहता है जो अगले जलप्रलय तक आज हमसे है तो कल किसी और से चलता रहेगा | इस चाल में हमारी सोच और उसके अनुरूप कर्म ही इतिहास बनता है जो किसी न किसी द्वारा वर्णित है और होता रहेगा |
ब्राह्मण और श्रमण
इस धरती पर दों परम्पराओं का प्रचलन रहा है ब्राह्मण और श्रमण | ब्राह्मण या श्रमण दोनों में पहले कौन यह कहना एक अधूरी बात होगी पर इतना अवश्य समझ में आता है कि इन्हीं से ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी धर्मों की उत्पत्ति हुई है |
हिंदू, पारसी, यहूदी, इस्लाम या चर्वाक, जैन, शिंतो, कन्फ्यूशियस या बौद्ध हों, आज धरती पर जितने भी धर्म हैं उन सबका आधार यही प्राचीन परम्परा रही है | जो आगे चलकर हिंदू, जैन, बौद्ध और मुस्लिम धर्म कहलाती है |
हजारों वर्षों के सफर में इस परम्परा ने बहुत कुछ खोया है और बहुत कुछ बदला भी है | आज इस परम्परा का जो रूप दिखता है इसको जानने वालों के लिए निश्चय ही चिंतनीय विषय है |
अरिष्टनेमि और कृष्ण तक यह परंपरा इस प्रकार चली कि आम जन के लिए इसमे फर्क करना कठिन है लेकिन उसके बाद धर्म के व्यवस्थीकरण की शुरुआत में सब कुछ अलग- अलग हो गया |
ब्राह्मण वह है जो ब्रम्ह को ही मोक्ष का आधार मानता है और वेद वाक्य को ब्रम्ह वाक्य मनाता हो | इनके अनुसार ब्रम्ह और ब्रम्हांडकों जानना आवश्यक है जिससे ब्रम्हलीन होने का मार्ग खुलता है |
श्रमण वह है जो श्रम द्वारा मोक्ष के मार्ग की प्राप्ति को मानता हों जिसके लिए व्यक्ति के जीवन में ईश्वर की नहीं, श्रम की आवश्यकता है | श्रमण परंपरा तथा संप्रदायों का उल्लेख प्राचीन बौद्ध तथा जैन धर्म ग्रंथों में मिलता है तो वहीँ ब्राम्हण परम्परा का उल्लेख वेद, उपनिषद और स्मृतियों में मिलता है |
आज इन दोनों शब्दों का अर्थ जातिसूचक शब्द से ज्यादे का कुछ भी नहीं है | इन शब्दों की गरिमा कों नासमझी में अब गिरा दिया गया है | यह उन ऋषि-मुनि की परम्परा या मार्ग का नाम था जिस पर चलकर लोगों ने मोक्ष को पाया था |
यह कुछ इस प्रकार का है कि हम किसी ऋषि या मुनि के नाम पर जाति निर्मित कर लें और उस गरिमा कों समाप्त कर दें | उस परम्परा का नुकसान जितना उसको मानने वालों से हुआ है उतना ही नुकसान उस परम्परा कों तोड़ मडोर कर गढने वालो से भी हुआ है | बावजूद इसके कुछ लोगों की उत्तम विचाधाराओं ने उक्त परम्परा कों उसके मूल रूप में बचाएं रखा है |

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