इस यज्ञ में जीव ही है यजमान्, गृहस्वामी, जीव की प्रकृति गृहपत्नी यजमान की सहधर्मिणी, परंतु पुरोहित कौन होगा ? जीव यदि स्वयं अपने यज्ञ में पुरोहिताई करने जाये तो कहा जा सकता है कि यज्ञ के सुचारु रूप से परिचालित होने की कोई आशा नहीं; कारण जीव अहंकार द्वारा चालित होता है, मानसिक, प्राणिक और दैहिक त्रिविध बंधनों से विजड़ित होता है ।
ऐसी अवस्था में अपने-आप पुरोहिताई करने पर अहंकार ही होता, ॠत्विक्, यहांतक कि यज्ञ का देवता भी बन बैठता है और फिर अवैध यज्ञ-विधान के कारण महत् अनर्थ घटित होने की आशंका होती है । सबसे पहले नितांत बद्ध अवस्था से वह मुक्ति चाहता है । और यदि बंधनमुक्त होना हो तो अपनी शक्ति से भिन्न अन्य शक्ति का आश्रय लेना ही होगा ।
त्रिविघ यूप-रज्जु के शिथिलीकरण के बाद भी यज्ञ करने योग्य निर्दोष ज्ञान और शक्ति हठात् प्रादुर्भूत या सत्वर गठित नहीं होतीं । दिव्यज्ञान और दिव्यशक्ति की आवश्यकता है, उसका आविर्भाव और सुगठन यज्ञ द्वारा ही संभव है । और जीव के मुक्त हो जाने पर भी, दिव्यज्ञानी और दिव्य-शक्तिमान् हो जाने पर भी यज्ञ के भर्ता अनुमंता ईश्वर यज्ञफल के भोक्ता होते हैं, किंतु कर्मकर्ता नहीं ।
देवता को ही पुरोहित-रूप में वरण कर वेदी पर संस्थापित करना होगा । जबतक देवता स्वयं मानव-हृदय में प्रविष्ट, प्रकाशित और प्रतिष्ठित नहीं हो जाते तबतक मनुष्य के लिये देवत्व और अमरत्व प्राप्त करना असाध्य है; यह ठीक है कि देवता के जाग्रत् होने से पहले उस बोधन के लिये मंत्रद्रष्टा ऋषिगण यजमान का पौरोहित्य स्वीकार करते हैं,
वशिष्ठ और विश्वामित्र सुदास, त्रसदस्पु और भरतपुत्र के होता बनते हैं किंतु देवता का आह्वान करने पर वेदी पर पुरोहित और होता का स्थान देने के लिये ही होता है मंत्रप्रयोग और हवि:प्रयोग । देवता यदि अंतर में जाग्रत् न हों तो कोई भी जीव को तार नहीं सकता । देवता ही हैं त्राणकर्ता । देवता ही हैं यज्ञ के एकमात्र सिद्धिदाता पुरोहित ।
देवता जब पुरोहित होते हैं तब उनका नाम होता है अग्नि, उनका रूप भी होता है अग्निस्वरूप । अग्नि का पौरोहित्य है सर्वांग सुन्दर और सफल यज्ञ का मुख्य साधन और प्रारंभ । इसीलिये ॠग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त की प्रथम ॠचा में ही अग्नि का पौरोहित्य निर्दिष्ट किया गया है ।
यह अग्नि कौन है ? ‘अग्’ धातु का अर्थ है ‘शक्ति’, जो शक्तिमान् है वही है अग्नि । ‘अग्’ धातु का दूसरा अर्थ है आलोक या ज्वाला, जो शक्ति ज्वलंत ज्ञान के आलोक से उद्भभासित है, ज्ञान का कर्मबल-स्वरूप है, उस शक्ति का शक्तिधर है अग्नि ।
‘अग्’ धातु का अन्य अर्थ है पूर्वत्व और प्रधानत्व, जो ज्ञानमय शक्ति जगत् का आदि-तत्त्व है और जगत् की अभिव्यक्त सभी शक्तियों का मूल और प्रधान है, उसी शक्ति का शक्तिधर है अग्नि ।
‘अग्’ धातु का एक और अर्थ है नयन जगदादि सनातन-पुरातन प्रधान शक्ति के जो शक्तिधर जगत् को निर्दिष्ट पथ से निर्दिष्ट गंतव्य धाम की ओर ले जा रहे हैं, जो कुमार देवसेना के सेनानी हैं, जो पथ के प्रदर्शक हैं, जो प्रकृति की नाना शक्तियों को ज्ञान से, बल से, उनके अपने-अपने व्यापार में प्रवर्तित कर सुपथ पर चलाते हैं वही शक्तिधर हैं अग्नि ।
वेद के सैकड़ों सूक्तों में अग्नि के ये सब गुण कथित और स्तुत हुए हैं । जगत् के आदि् जगत् के प्रत्येक स्फुरण में निहित, सब शक्तियों के मूल और प्रधान, सकल देवताओं के आधार, सकल धर्मो के नियामक, जगत् के निगूढ़ उद्देश्य तथा निगूढ सत्य के रक्षक यह अग्नि और कुछ नहीं स्वयं भगवान् के ओजः-तेज:-भ्राज:-स्वरूप सर्वज्ञानमंडित परम ज्ञानात्मक तप:शक्ति हैं ।
सच्चिदानंद का सत्-तत्त्व चिन्मय है । यही सत् का चिद बन जाती है सत् की शक्ति । चित्-शक्ति ही है जगत् का आधार, चित्-शक्ति ही है जगत् का आदिकरण और स्रष्ट्री, चित्-शक्ति ही है जगत् की नियामिका और प्राणस्वरूप । चिन्मयी जिस समय सत्-पुरुष के स्तिमित नयन से केवल सत्-स्वरूप का चिंतन करती हैं उस समय अनंत चित्-शक्ति निस्तब्ध रहती है, वही अवस्था है प्रलय की अवस्था, निस्तब्ध आनंदसागर-स्वरूप ।
और जब चिन्मयी मुंह ऊपर उठा नेत्र उन्मीलित कर सत्-पुरुष का मुखमण्डल तथा तनु प्रेमसहित हेरती हैं, सत्-पुरुष के अनंत नाम-रूप का ध्यान करती हैं, कृत्रिम विच्छेद-मिलन-जनित समागम-लीला का स्मरण करती हैं तब उस आनंद का अजस्त्र प्रवाह उनके उमुक्त विक्षोभ की, विश्वानंद की अनंत तरंगों की सृष्टि करता है ।
चित्-शक्ति का यह विविध ध्यान, यह एकमुखी फिर भी बहुमुखी समाधि ही तप:शक्ति के नाम से अभिहित है । सत्-पुरुष जब किसी नाम-रूप का सृजन करने, किसी तत्त्व का विकास करने और किसी भी अवस्था को प्राप्त करने के लिये अपनी चित्-शक्ति को संगृहीत, संचालित तथा अपने विषय पर संस्थापित करते हैं
तब तप:शक्ति प्रयुक्त होती है । यह तपःप्रयोग ही है योगेश्वर का योग । इसी को अंग्रेजी में ‘डिवाइन विल’ (Divine Will) अथवा ‘कास्मिक विल’ (Cosmic Will) कहते हैं । इसी ‘डिवाइन विल’ या तपःशक्ति द्वारा जगत् सृष्ट, चालित और रक्षित होता है । अग्नि ही है यह तप:शक्ति ।
हम चित्-शक्ति के दो पक्ष देखते हैं-चिन्यय और तपोमय, सर्वज्ञान-स्वरूप और सर्वशक्ति-स्वरूप, किंतु यथार्थ में ये दोनों एक ही हैं । भगवान् का ज्ञान सर्वशक्तिमय है और उनकी शक्ति सर्वज्ञानमय । उनके प्रकाश का चिंतन करते ही प्रकाश की सृष्टि का होना अनिवार्य है, क्योंकि उनका ज्ञान उनकी शक्ति का चिन्यय स्वरूप ही है ।
जगत् के किसी भी जड़-स्पन्दन में ज्ञान निहित है, जैसे, अणु के नृत्य में अथवा विधुत् के लम्फन में, क्योंकि उनकी शक्ति उनके ज्ञान का ही स्फुरण है । केवल हमारे अंदर अविधा की भेद-बुद्धि में, अपरा प्रकृति की भेदगति में, ज्ञान और शक्ति विभिन्न, असम और मानों परस्पर कलहप्रिय हैं अथवा विसंगतिग्रस्त और खर्व हो पड़ी हैं अथवा क्रीड़ा के लिये उस तरह की असमता और कलह का ढोंग करती हैं ।
वास्तव में देखा जाये तो जगत् के क्षुद्रतम कर्म या संचरण में भगवान् का सर्वज्ञान और सर्वशक्ति निहित हैं, इसके बिना या इसके कम होने पर उस कर्म या संचरण को घटित कराने की शक्ति किसी में नहीं । जिस तरह ॠषि के वेदवाक्य में वा शक्तिधर महापुरुष के युग-प्रवर्तन में, उसी तरह मूर्ख की निरर्थक वाचालता में अथवा आक्रांत क्षुद्र जीव की छटपटाहट में वही सर्वज्ञान और सर्वशक्ति प्रयुक्त होते हैं ।
हम सब जब ज्ञान के अभाव में शक्ति का अपव्यय करते हैं या शक्ति के अभाव में ज्ञान का निष्फल प्रयोग करते हैं तब सर्वज्ञानी और सर्वशक्तिमान् आड़ में बैठ उस शक्ति के प्रयोग को अपने ज्ञान द्वारा, उस ज्ञान-प्रयोग को अपनी शक्ति द्वारा संभालते और चलाते हैं और इसी कारण उस क्षुद्र चेष्टा द्वारा जगत् में कुछ घट जाता है । निर्दिष्ट कर्म संपन्न हो गया और उसका उचित कर्मफल भी साधित हुआ ।
उससे तुम्हारा-हमारा अज्ञ मनोरथ और प्रत्याशा व्यर्थ अवश्य हो जाती है किंतु उस विफलता द्वारा ही उनकी गूढ़ अभिसंधि सिद्ध होती है एवं उस विफलता द्वारा ही हमारे किसी छद्मवेशी कल्याण और जगत् के महान उद्देश्य के एक क्षुद्रतम अंश का क्षुद्र आंशिक पर अत्यावश्यक उपकार साधित होता है ।
अशुभ, अज्ञान और विफलता हैं छद्मवेश-मात्र । अशुभ में शुभ, अज्ञान में ज्ञान, विफलता में सफलता और शक्ति गुप्त रूप से विधमान रहकर अप्रत्याशित कर्म संपादन करती हैं । तप:-अग्नि की निगूढ़ अवस्थिति है इसका कारण ।
यह अनिवार्य शुभ, यह अखंडनीय ज्ञान, यह अचूक शक्ति है भगवान् का अग्नि-रूप । जैसे सतपुरुष का चित् और तप: एक हैं, जैसे दोनों ही आनंद के स्पंदन हैं, वैसे ही उनके प्रतिनिधि-स्वरूप इस अग्नि का ज्ञान और शक्ति अविच्छिन्न हैं तथा दोनों ही हैं शुभ और कल्याणकारी ।
जगत् की बाहरी आकृति दूसरी तरह की है, वहां अनृत, अज्ञान, अशुभ, विफलता ही प्रधान हैं । परंतु बच्चे को डरानेवाले मुखौटे के भीतर मातृमुख छिपा है । यह अचेतन, यह जड़, यह निरानंद है प्रहेलिका-मात्र । भीतर आसीन हैं जगत्पिता, जगन्माता, जगदात्मा सच्चिदानंद ।
इसीलिये वेद में हमारी साधारण चेतना रात्रि नाम से अभिहित है । हमारे मन का चरम विकास भी है ज्योत्सना-पुलकित तारा-नक्षत्र-मंडित भगवती रात्रि का विहार-मात्र । किंतु इसी रात्रि की गोद में उसकी भगिनी दैवी उषा अनंत-प्रसूत भावी दिव्य ज्ञान का आलोक लिये छिपी बैठी है।
पार्थिव चेतना की इस रात्रि में भी ‘तप:-अग्नि’ बार-बार जाज्वल्यमान हो उषा की आभा से आलोक फैलाते हैं । ‘तप:-अग्नि’ ही अंध जगत् में सत्य-चैतन्यमयी उषा के जन्म-मुहूर्त्त की तैयारी कर रहे हैं । परम देव ने इस ‘तप:-अग्नि’ को जगत् में भेजा और स्थापित किया है, प्रत्येक पदार्थ और जीव-जंतु के अंतर में निहित हो विश्व की समस्त गति का नियमन अग्नि-देव ही कर रहे हैं ।
क्षणिक अनृत में वह अग्निदेव ही हैं चिरंतन सत्य के रक्षक, अचेतन और जड़ में अग्नि ही हैं अचेतन की निगूढ़ चेतना, जड़ की प्रचंड गति-शक्ति । अज्ञान के आवरण में अग्नि ही हैं भगवान् का गूढ़ ज्ञान, पाप की विकृति में अग्नि ही हैं उनकी सनातन अकलंक शुद्धता, दुःख-दैन्य के विषण्ण कुहासे में अग्नि ही हैं उनका ज्वलंत विश्वभोगी आनंद ।
दुर्बलता और जड़ता के मलिन वेश में अग्नि ही हैं उनकी सर्ववाहक, सर्वक्षम, दक्ष क्रियाशक्ति । एक बार इस काले आवरण को भेद यदि हम अग्नि को अपने अंतर में प्रज्वलित, प्रकाशित, उन्मुक्त और ऊर्ध्वगामी बना सकें तो वही दैवी उषा को मानव चैतन्य में ला, देवताओं को भीतर जगा अनृत, अज्ञान, निरानंद और विफलता के काले आवरण को दूर हटा हमें अमर और देवभावापन्न बना देंगे ।
अग्नि ही हैं अंतरस्थ देवता का प्रथम और प्रधान जाग्रत् रूप । उन अग्नि को हृदय-वेदी में प्रज्वलित कर, पौरोहित्य के लिये वरण करते हैं । उनकी सर्वप्रकाशक ज्वाला है ज्ञान, सर्वदाहक और पावक ज्वाला है शक्ति ।
उन ज्ञानमय, शक्तिमय, ज्वलंत अग्नि में अपने इन सब तुच्छ सुख-दुःखों को, इन सब क्षुद्र परिमित चेष्टाओं और विफलताओं को, इस समस्त मिथ्यापन और मृत्यु को समर्पित करते हैं । पुरातन और अनृत भस्मीभूत हो जाने दो, नवीन और सत्य जाज्वल्यमान सावित्री-रूप में गगनस्पर्शी तप:-अग्नि से आविर्भूत होंगे ।
भूलना मत कि सभी हमारे अंतर में हैं; मनुष्य के भीतर ही अग्नि है, भीतर ही हैं वेदी, हवि और होता, भीतर ही हैं ऋषि-मंत्र और देवता, भीतर ही हैं भ्रमह का वेदगान, भीतर ही हैं भ्रमहद्वेषी राक्षस और देवद्वेषी दैत्य, भीतर ही हैं वृत्र और वृत्रहंता, भीतर ही हैं देव-दानव युद्ध भीतर ही हैं वशिष्ठ, विश्वामित्र, अंगिरा, अत्रि, भृगु, अथर्वा, सुदास, त्रसदस्यु , दासजाति और पंचविध भ्रम्हान्येषी आर्यगण ।
मनुष्य को आत्मा और जगत् एक हैं । उसके भीतर ही है दूर और निकट, दस दिशाएं, दो समुद्र, सात नदियां और सात भुवन । हमारा यह पार्थिव जीवन दो गुप्त समुद्रों के बीच अभिव्यक्त है । नीचे का समुद्र वह गुप्त अनंत चैतन्य है जिससे ये समस्त भाव और वृत्तियां, नाम और रूप अहरह प्रति मुहूर्त्त प्रादुर्भूत होते हैं जैसे प्रस्फुटित होते हैं भगवती रात्रि की गोद में तारा-नक्षत्र ।
आधुनिक भाषा में इसे निश्चेतना (inconscient) अथवा (subconscient) कहते हैं, वेद का अप्रकेतं सलिलम्, प्रज्ञाहीन समुद्र । प्रज्ञाहीन होने पर भी यह अचेतन नहीं है, इसके अंदर प्रज्ञातीत विश्व-चैतन्य सर्वज्ञान में ज्ञानी, सर्वकर्म में समर्थ हो मानो अवश संचरण द्वारा जगत् की सृष्टि और गति संपादित करता है । ऊपर है गुहय मुक्त अनन्त चैतन्य जिसे अतिचैतन्य (superconscient) कहते हैं, जिसकी छाया है यह अचेतन-चेतन ।
वहां सच्चिदानंद जगत् में पूर्णत: अभिव्यक्त हैं, सत्यलोक में अनंत सत्-रूप में, तपोलोक में अनंत चित्-रूप में, जनलोक में अनंत आनंद-रूप में और महर्लोक में विशाल विश्वा त्मा के सत्य-रूप में । मध्यस्थ पार्थिव चैतन्य है वेदोक्त पृथिवी । इसी पृथिवी से जीवन का आरोहणीय पर्वत गमन की ओर उठता है, उसका प्रत्येक सानु है आरोहण का एक सोपान, प्रत्येक सानु है सत्यलोक के एक लोक का अंतस्थ राज्य ।
देवगण आरोहण के सहायक हैं, दैत्यगण शत्रु और पथरोधक । यह पर्वतारोहण ही है वैदिक साधक की यज्ञगति, यज्ञसहित परम लोक में, परम आकाश में, आलोक-समुद्र में ऊपर उठना होगा । यह अग्नि ही है आरोहण का साधन-स्वरूप, इस पथ का नेता, इस युद्ध का योद्धा और इस यज्ञ का पुरोहित ।
वैदिक कवियों का अध्यात्म-ज्ञान इसी मूल उपमा पर प्रतिष्ठित है, जैसे वृन्दावनवासी प्रेमी गोप-गोपियों पर वैष्णवों का राधा-कृष्ण -विषयक सकल ज्ञान । इस उपमा का अर्थ सर्वदा मन में रखने से वेदतत्त्व को हृदयंगम करना आसान हो जाता है ।
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