प्राचीन समय की बात है। चारों ओर जल-ही-जल था, केवल भगवान विष्णु शेषनाग की शैय्या पर सोये हुए थे। उनके कान की मैल से मधु औरकैटभ नाम के दो महापराक्रमी दानव उत्पन्न हुए। वे सोचने लगे कि हमारी उत्पत्ति का कारण क्या है? कैटभ ने कहा- इस जल में हमारी सत्ता को कायम रखने वाली भगवती महाशक्ति ही हैं। उनमें अपार बल है। उन्होंने ही इस जलतत्त्व की रचना की है। वे ही परम आराध्या शक्ति हमारी उत्पत्ति की कारण है।' इतने में ही आकाश में गूंजता हुआ सुन्दर 'वाग्बीज' सुनायी पड़ा। उन दोनों ने सोचा कि यही भगवती का महामन्त्र है। अब वे उसी मन्त्र का ध्यान और जप करने लगे। अन्न और जल का त्याग करके उन्होंने एक हज़ार वर्ष तक बड़ी कठिन तपस्या की। भगवती महाशक्ति उन पर प्रसन्न हो गयीं। अन्त में आकाशवाणी हुई- दैत्यो! तुम्हारी तपस्या से मैं प्रसन्न हूँ। इच्छानुसार वर माँगो!'
आकाशवाणी सुनकर मधु और कैटभ ने कहा- 'सुन्दर व्रत का पालन करने वाली देवी! तुम हमें स्वेच्छामरण का वर देने की कृपा करो।' देवी ने कहा- 'दैत्यो! मेरी कृपा से इच्छा करने पर ही मौत तुम्हें मार सकेगी। देवता और दानव कोई भी तुम दोनों भाइयों को पराजित नहीं कर सकेंगे।' देवी के वर देने पर मधु और कैटभ को अत्यन्त अभिमान हो गया। वे समुद्र में जलचर जीवों के साथ क्रीड़ा करने लगे। एक दिन अचानक प्रजापति ब्रह्माजी पर उनकी दृष्टि पड़ी। ब्रह्मा जी कमल के आसन पर विराजमान थे। उन दैत्यों ने ब्रह्मा जी से कहा-'सुव्रत! तुम हमारे साथ युद्ध करो। यदि लड़ना नहीं चाहते तो इसी क्षण यहाँ से चले जाओ, क्योंकि यदि तुम्हारे अन्दर शक्ति नहीं है तो इस उत्तम आसन पर बैठने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है।' मधु और कैटभ की बात सुनकर ब्रह्मा जी को अत्यन्त चिन्ता हुई। उनका सारा समय तप में बीता था। युद्ध करना उनके स्वभाव के प्रतिकूल था। भयभीत होकर वे भगवान विष्णु की शरण में गये। उस समय भगवान विष्णु योगनिद्रा में निमग्न थे। ब्रह्मा जी के बहुत प्रयास करने पर भी उनकी निद्रा नहीं टूटी। अन्त में उन्होंने भगवती योगनिद्रा की स्तुति करते हुए कहा-'भगवती! मैं मधु और कैटभ के भय से भयभीत होकर तुम्हारी शरण में आया हूँ। भगवान विष्णु तुम्हारी माया से अचेत पड़े हैं। तुम सम्पूर्ण जगत की माता हो। सभी का मनोरथ पूर्ण करना तुम्हारा स्वभाव है। तुमने ही मुझे जगतसृष्टा बनाया है। यदि मैं दैत्यों के हाथ से मारा गया तो तुम्हारी बड़ी अपकीर्ति होगी। अत: तुम भगवान विष्णु को जगाकर मेरी रक्षा करो।'
ब्रह्मा जी की प्रार्थना सुनकर भगवती भगवान विष्णु के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु और हृदय से निकल कर आकाश में स्थित हो गयीं और भगवान उठकर बैठ गये। तदनन्तर उनका मधु और कैटभ से पाँच हज़ार वर्षों तक घोर युद्ध हुआ, फिर भी वे उन्हें परास्त करने में असफल रहे। विचार करने पर भगवान को ज्ञात हुआ कि इन दोनों दैत्यों को भगवती ने इच्छामृत्यु का वर दिया है। भगवती की कृपा के बिना इनको मारना असम्भव हैं इतने में ही उन्हें भगवती योगनिद्रा के दर्शन हुए। भगवान ने रहस्यपूर्ण शब्दों में भगवती की स्तुति की। भगवती ने प्रसन्न होकर कहा-'विष्णु! तुम देवताओं के स्वामी हो। मैं इन दैत्यों को माया से मोहित कर दूँगी, तब तुम इन्हें मार डालना।' भगवती का अभिप्राय समझकर भगवान ने दैत्यों से कहा कि तुम दोनों के युद्ध से मैं परम प्रसन्न हूँ। अत: मुझसे इच्छानुसार वर माँगो। दैत्य भगवती की माया से मोहित हो चुके थे। उन्होंने कहा- 'विष्णो! हम याचक नहीं हैं, दाता हैं। तुम्हें जो माँगना हो हम से प्रार्थना करो। हम देने के लिये तैयार हैं।' भगवान बोले- 'यदि देना ही चाहते हो तो मेरे हाथों से मृत्यु स्वीकार करो।' भगवती की कृपा से मोहित होकर मधु और कैटभ अपनी ही बातों से ठगे गये। भगवान विष्णु ने दैत्यों के मस्तकों को अपने जांघों पर रखवाकर सुदर्शन चक्र से काट डाला। इस प्रकार मधु और कैटभ का अन्त हुआ।
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