भगवान गणेश का स्वरूप अत्यंत ही मनोहर एवं मंगलदायक है। वे एकदंत और चतुर्बाहु हैं। अपने चारों हाथों में वे क्रमश: पाश, अंकुश, मोदकपात्र तथा वरमुद्रा धारण करते हैं। वे रक्तवर्ण के पुष्प विशेष प्रिय हैं। वे अपने उपासकों पर शीघ्र प्रसन्न होकर उनकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। एक रूप में भगवान श्रीगणेश उमा- महाश्रर के पुत्र हैं। वे अग्रपूज्य गणों के ईश, स्वस्तिक रूप तथा प्रणवस्वरूप हैं। उनके अनन्त नामों में सुमुख, एकदंत, कपिल, गजकर्णक, लंबोदर, विकट, विघ्रनाशक, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचंद्र तथा गजानन- ये बारह नाम अत्यंत प्रसिद्ध हैं। इन नामों का पाठ अथवा श्रवण करने से विद्यारंभ, विवाह, गृह-नगरों में प्रवेश तथा गृह- नगर से यात्रा में कोई विघ्र नहीं होता है।
भगवान गणपति के प्राकट्य, उनकी लीलाओं तथा उनके मनोरम विग्रह के विभिन्न रूपों का वर्णन पुराणों और शास्त्रों में प्राप्त होता है। कल्प भेद से उनके अनेक अवतार हुए हैं। उनके सभी चरित्र अनन्त हैं । पद्यपुराण के अनुसार एक बार श्रीपार्वती जी ने अपने शरीर के मैल से एक पुरुषाकृति बनायी, जिसका मुख हाथी के समान था। फिर उस आकृति को उन्होंने गंगा जी में डाल दिया। गंगा जी में पड़ते ही वह आकृति विशालकाय हो गयी। पार्वती जी ने उसे पुत्र कहकर पुकारा। देव समुदाय ने उन्हें गांगेय कहकर सम्मान दिया और ब्रह्माजी ने उन्हें गणों का आधिपत्य प्रदान करके गणेश नाम दिया।
लिंगपुराण के अनुसार एक बार देवताओं ने भगवान शिव की उपासना करके उनसे सुरद्रोही दानवों के दुष्ट कर्म में विघ्र उपस्थित करने के लिए वर मांगा। आशुतोष शिव ने तथास्तु कहकर देवतओं को संतुष्ट कर दिया। समय आने पर गणेश जी का प्राकट्य हुआ। उनका मुख हाथी के समान था और उनके एक हाथ में त्रिशुल तथा दूसरे में पाश था। देवताओं ने सुमन-वृष्टि करते हुए गजानन के चरणों में बार-बार प्रणाम किया। भगवान शिव ने गणेश जी को दैत्यों के कार्यों में विघ्र उपस्थित करके देवताओं और ब्राह्मणों का उपकार करने का आदेश दिया। उसी तरह से ब्रह्मवैवर्तपुराण, स्कन्दपुराण तथा शिवपुराण में भी भगवान गणेश जी के अवतार की भिन्न- भिन्न कथाएं मिलती हैं। प्रजापति विश्वकर्मा की सिद्धि-बुद्धि नामक दो कन्याएं गणेशजी की पत्नियां हैं। सिद्धि से क्षेम और बुद्धि से लाभ नाम के शोभासम्पन्न दो पुत्र हुए। शास्त्रों और पुराणों में सिंह, मयूर और मूषक को गणेशजी का वाहन बताया है। गणेशपुराण के क्रीडाखंड (1।18-21) में उल्लेख है कि कृतयुग में गणेशजी का वाहन सिंह है। वे दस भुजाओं वाले तेजस्वरूप तथा सबको वर देने वाले हैं और उनका नाम विनायक है। त्रेता में उनका वाहन मयूर है, वर्ण श्वेत है तथा तीनों लोकों में वे मयूरेश्वर-नाम से विख्यात हैं और छ: भुजाओं वाले हैं। द्वापर में उनका वर्ण लाल है। वे चार भुजाओं वाले और मूषक वाहन वाले हैं तथा गजानन नाम से प्रसिद्ध हैं। कलियुग में उनका धूम्रवर्ण है। वे घोड़े पर आरूढ़ रहते हैं, उनके दो हाथ हैं तथा उनका नाम धूम्रकेतु है।
मोदक प्रिय श्रीगणेश जी विद्या- बुद्धि और समस्त सिद्धियों के दाता तथा थोड़ी उपासना से प्रसन्न हो जाते हैं। उनके जप का मंत्र ‘ऊं गं गणपतये नम:’ है।
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