Tuesday, 12 July 2016

संवाद संभव न होने पर मौन रहना उचित



एक बहरा चरवाहा पहाड़ों पर भेड़ें चरा रहा था। दोपहर हो गई थी लेकिन उसकी पत्नी अभी तक भोजन लेकर नहीं आई थी। जब भूख असहनीय हो गई तो वह अपने स्थान से थोड़ा नीचे उतरा कि तभी उसे एक लकड़हारा पेड़ पर बैठा दिखाई दिया। चरवाहे ने नीचे से ही कहा- जरा मेरी भेड़ों का ख्याल रखना भाई, मै घर जा रहा हूं खाना लेने। लकड़हारा भी बहरा था। उसनें कहा जा जा मेरे पास बातचीत का समय नहीं है। चरवाहे को लकड़हारे के हावभाव देखकर लगा कि उसने उसकी बात मान ली है। वह घर गया और रोटी लेकर तत्काल वापस लौट आया।
आकर उसने भेड़ो की गिनती की। गिनती पूरी निकली। चरवाहे ने सोचा कि लकड़हारे ने उसकी भेड़ों की अच्छी देखभाल की है। उसे भी बदले में कुछ अच्छा करना चाहिए। यह सोचकर उसने भेड़ों के समूह में से एक लंगड़ी भेड़ को निकाला और उस लकड़हारे को भेंट देने के लिए चला। चरवाहे को लंगड़ी भेड़ के साथ आता देख कर लगा कि यह पूछने आया है कि यह मेरी भेड़ लंगड़ी कैसे हुई?  उसने गुस्से में कहा- क्या मतलब ? मैने तेरी भेड़ लगड़ी थोड़े ही की है। विवाद बढ़ने लगा। दोनों एक दूसरे की बात सुन नहीं सकते थे। एक कह रहा था मैने तेरी भेड़ देखी ही नहीं?  दूसरा कह रहा था इसे ले लो।
एक फकीर वहां से गुजर रहा था। उसे दोनों ने पकड़ लिया। उसने मौन की प्रतिज्ञा ले रखी थी, सो उसने दोनों को घूर कर देखा। लकड़हारा और चरवाहा फकीर से भयभीत हो भाग गए। कुल मिलाकर कोई किसी को अपना पक्ष ना समझ पाया। यह प्रतीकात्मक कथा संकेत करती है कि जहां संवाद संभव न हो, वहां अपने रास्ते पर निकलने में ही समझदारी है।
सार- वैसे तो संवादहीनता कदापि उचित नहीं है, किंतु जहां समझ का योग्य स्तर न हो, वहां मौन रहकर कार्य करना ही श्रेयस्कर है

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