Saturday 16 July 2016

शनि भगवान कांति

शनैश्चर की शरीर कांति इंद्रनीलमणि के समान है। इनके सिर पर स्वर्णमुकुट गले में माला तथा शरीर पर नीले रंग के वस्त्र सुशोभित हैं। ये गीध पर सवार रहते हैं। हाथों में क्रमश: धनुष, बाण, त्रिशुल और वरमुद्रा धारण करते हैं।
शनि भगवान सूर्य तथा छाया (संवर्णा) के पुत्र हैं। ये क्रूर ग्रह माने जाते हैं। इनकी दृष्टि में जो क्रुरता है, वे इनकी पत्नी के शाप के कारण है। ब्रह्मपुराण में इनकी कथा इस प्रकार आयी है- बचपन से ही शनि देवता भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। वे श्रीकृष्ण के अनुराग में निमग्र रहा करते थे। वयस्क होने पर इनके पिता ने चित्र रथ की कन्या से इनका विवाह कर दिया। इनकी पत्नी सती- साध्वी और परम तेजस्विनी थी। एक रात वह ऋतु-स्नान करके पुत्र-प्राप्ति की इच्छा से इनके पास पहुंची, पर ये श्रीकृष्ण के ध्यान में निमग्र थे। इन्हें बाह्य संसार की सुधि ही नहीं थी। पत्नी प्रतीक्षा करके थक गयी। उसका ऋतुकाल निष्फल हो गया। इसलिए उसने क्रुद्ध होकर शनिदेव को शाप दे दिया कि आज से जिसे तुम देख लोगे, वे नष्ट हो जाएगा। ध्यान टूटने पर शनिदेव ने अपनी पत्नी को मनाया। पत्नी को भी अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ, किंतु शाप के प्रतीकार की शक्ति उसमें न थी, तभी से शनि देवता अपना सिर नीचा करके रहने लगे। क्योंकि ये नहीं चाहते थे कि इनके द्वारा किसी का अनिष्ट हो।
शनि के अधिदेवता प्रजापति ब्रह्मा और प्रत्यधिदेवता यम हैं। इनका वर्ण कृष्ण, वाहन गीध तथा रथ लोहे का बना हुआ है। ये एक-एक राशि में तीस-तीस महीने रहते हैं। ये मकर और कुंभ राशि के स्वामी हैं और इनकी महादशा 12 वर्ष की होती है। इनकी शांति के लिए मृत्युंजय-जप, नीलम-धारण और ब्राह्मण को तिल, उड़द, भैंस, लोहा, तेल, काला वस्त्र, नीलम, काली गौ, जूता, कस्तूरी और सुवर्ण का दान देना चाहिए, इनके जप का वैदिक मंत्र-
‘ॐ शं नो देवीरभिष्टय आपो भवंतु पीतये।
शं योरभि स्त्रवंतु न:।।‘
पौराणिक मंत्र- ‘नीलांजन समाभासं रविपुत्र यमाग्रजम् ।
छायामार्तण्डसंभूतं तं नमामी शनैश्चरम्।।‘
बीज मंत्र- ‘ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम:।‘ तथा
सामान्य मंत्र- ‘ॐ शं शनैश्चराय नम: हैं।‘
इनमें से किसी एक का श्रद्धानुसार नित्य एक निश्चित संख्या में जप करना चाहिए। जप का समय संध्या काल तथा कुल संख्या 23000 होनी चाहिए।

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