Wednesday, 13 July 2016

आलसी होकर बैठना संतोष नहीं है

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कहा है कि संतोषी सदा सुखी। परंतु आज का युवा कहेगा कि यह तो जीवन ध्वस्त करने जैसी बात है। इस दौर में जिसने संतोष किया समझ लीजिए वह पिछड़ गया, इसलिए संतोष शब्द को ठीक से समझना होगा।

       मनुष्य के जीवन की खूबी यह है कि वह कुछ न कुछ देता रहता है, इसलिए हमारी अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं। यहीं से असंतोष का जन्म होता है। इसका दूसरा नाम अशांति है, लेकिन कुछ लोगों ने इसे प्रगति नाम भी दिया है।

          जिससे मनुष्य आगे बढ़ता है, महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करता है वह असंतोष नहीं, अति आग्रह है। यह तो तय है कि संतोषी व्यक्ति सुखी अवश्य होगा। संतोषी होना समझदारी है।

         अपनी सीमा को पहचानकर दूसरे से तुलना न करते हुए अपने आप को समर्थ बनाना संतोष है।
इस दुनिया में सभी अधूरे हैं। जिनके पास बहुत कुछ है वे भी कहीं न कहीं अधूरे हैं, इसलिए हम समझें कि सबको सब नहीं मिल जाता।

       इच्छा और आवश्यकता का अर्थ समझने पर ही जीवन में संतोष उतरता है। संतोष को कोई बेबसी न समझे इसलिए समझदारी से इसे स्वीकार कर लें। ध्यान रहें कि जीवन में जब भी संतोषी बनने का प्रयास करेंगे, आपका अहंकार बाधा पहुंचाएगा।

          अहंकार को दूसरों से आगे निकलना और अपने को छोटा न मानने में विशेष रुचि होती है। जिन्हें शांति की तलाश हो वे समझें कि संतोष की वृत्ति जीवन में परमात्मा पर भरोसा करने से बड़ी आसानी से उतरती है,

        क्योंकि जब हम ईश्वर पर भरोसा करते हैं तो एक बात दिल में उतर आती है कि हमारे परिश्रम का परिणाम वह हमारे लायक दे देगा और यही बात हमें संतोष की ओर ले जाती है।

        इसलिए संतोष का मतलब आलसी बनकर बैठ जाना नहीं है और असंतोष का मतलब प्रगति की राह पर चलना नहीं है। इसे ठीक से समझ लें तो शांति आसानी से मिल सकती है।

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