ॐ ऋतं च सत्यं चाबिद्धतपसोध्यजायते….
तप रूपी परमात्मा द्वारा ऋत और सत्य उत्पन्न हुए
ऋत परमात्मा के यथार्थ संकल्प को कहते हैं , जो प्रकृतिभूता है और सत्य जो प्रकृति का सञ्चालन कराती है…
नमः शिवाय….
–
वाणीं वयं वन्दामहे!
कुन्देन्दुहिमधवलां धवलवस्त्रावृतां हंसस्थितां
वरकच्छपीझङ्कृतिपरां ब्रह्मेशनारायणनुताम्।
मालाधरां पुस्तकधरां निःशेषजाडयविलोपिनीम्
अक्षय्यविद्याविभवदां वाणीं वयं वन्दामहे।।१।।
–
यस्याः स्मरणमात्रोण पुम्भिर्लभ्यते ज्ञानप्रभा
यस्याः कृपालवलेशतः सुलभा शुभा वाचो विभा।
शब्दार्थगुणवृत्तिप्रदां रीतिप्रदां रसदायिनीम्
ध्वन्यौचितीवक्रोक्तिदां वाणीं वयं वन्दामहे।।२।।
–
प्रतिभाप्रदां व्युत्पत्तिदामभ्यासदां रचनात्मिकाम्
गद्यात्मिकां पद्यात्मिकां स्वरताललयतानात्मिकाम्।
श्रव्यात्मिकां दृश्यात्मिकां कविसहृयाख्याधारिणीम्
वागात्मिकां नादात्मिकां वाणीं वयं वन्दामहे।।३।।
–
विश्वं समस्तं मूकवज्जायेत यत्कृपया विना
भुवनं भवेदन्धं तथा यस्या दयालोकं विना।
दूरेऽन्तिके वा तिष्ठतां तां योजयित्रीं प्राणिनां
लोकावलम्बनरूपिणीं वाणीं वयं वन्दामहे।।।४।
–
यास्ते परा पश्यन्तिका या मध्यमा या वैखरी
सृष्टिस्थितिप्रलयेश्वरी सुयशस्करी मङ्गलकरी।
तमसो जनान् ज्योतिर्नयति या, तां विधातुर्गेहिनीं
शुक्लां सुमतिदां मातरं वाणीं वयं वन्दामहे।।५।।
–
वाणी की उत्पत्ति — एक चिन्तन
बसन्तोत्सव पर एक चिन्तन —
भौतिक विज्ञान ( Physics ) के जनक कहे जाने वाले प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन ने भौतिकी के तीन मूलभूत नियम ( fundamental laws of Physics ) प्रतिपादित किये थे जिनमें एक नियम यह था कि कोई पड़ी हुई वस्तु तब तक वहीं और वैसे ही पड़ी रहेगी जब तक कोई बाहरी बल उसे वहाँ से हटाने या संचालित करने के लिए न लगाया जाए । इसे विज्ञान की भाषा में ‘जड़त्व का नियम’ ( Law of Inertia ) कहते हैं ।
–
सृष्टि की उत्पत्ति से पहले ब्रह्माण्ड में एक अव्यक्त नाद ‘ॐ’ व्याप्त था जिसे शास्त्र अनहद नाद कहते हैं । चूँकि जैसा ब्रह्माण्ड में है, वैसा ही मानव-शरीर में, इसलिए यह अनहद नाद मानव काया में आज भी निनादित हो रहा है ।
जैसे Ultra-sound या Super-sonic ध्वनियों को इन स्थूल कानों से सुना नहीं जा सकता है, वैसे ही इस अनहद ध्वनि को हमारे ये कान या कोई उपकरण सुन नहीं पाते, यह हमारी इन स्थूल इन्द्रियों ( इनमें उपकरण भी शामिल हैं ) से परे है ।
इसी अव्यक्त ध्वनि से ही समस्त व्यक्त ध्वनियाँ उत्पन्न हुई हैं । प्रभु की स्वभावभूता प्रकृति के सौजन्य से इस त्रिगुणात्मिका सृष्टि का सूत्रपात हुआ है और वही इसे व्यक्त रूप में ब्रह्म ( निमित्त कारण ) की परमेच्छा से ब्रह्म ( उपादान कारण ) में ही संचालित कर रही है । प्रकृति ने ही सृष्टि हेतु वायु की उत्पत्ति की जिसने इस अनहद ध्वनि में विक्षोभ के द्वारा समस्त ध्वनियों की उत्पत्ति की है । इस प्रकार ॐ से इन्द्रियग्राह्य ध्वनियों की उत्पत्ति हुई ।
–
अगर वायु-जनित विक्षोभ ( exertion ) नहीं होता यानी न्यूटन की भाषा में समझें, यदि वायु का बाहरी बल आरोपित नहीं होता तो निराकार अनहद से इन्द्रिय-ग्राह्य साकार ध्वनियों की उत्पत्ति ही न हुई होती । अनहद नाद अपने स्वरूप में बिना किसी विक्षोभ के यथास्थिति ही अवस्थित रहता ।
[ वैसे अनहद सर्वदा ही अपनी ध्रुव स्थिति में है, उसमें उत्पन्न विक्षोभ वैसे ही प्रतीत्य है जैसे ब्रह्म में त्रिगुण-सृष्टि । सभी संसारी ध्वनियाँ अनहद में वैसे ही आभासी हैं जैसे ब्रह्म में जगत् — ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या ! इन्द्रिय-ग्राह्य ध्वनियों में वे सभी प्रकार की ध्वनियाँ शामिल हैं जो कानों द्वारा सुनी जाती हैं और जो यन्त्रों की सहायता से इन्द्रिय-ग्राह्य हो जाती हैं ।]
–
विज्ञान यह भी कहता है कि ध्वनि निर्वात ( Vacuum या Absence of Air ) में गमन नहीं कर सकती है । इसका तात्पर्य है कि अगर वायु नहीं होती तो वाणी उत्पन्न ही नहीं होती । संसार के प्रयोजन हेतु प्रकृति ने वायु का सहारा लेकर ‘वाणी’ की उत्पत्ति की है ।
निम्नांकित पोस्ट पर वाणी की उत्पत्ति-विषयक ऋग्वेद के मन्त्र में यही बताया गया है कि प्राणवायु के संसर्ग से ही वाणी उत्पन्न हुई ।
–
अब आइए,
संस्कृत शब्द ‘वाच्’ पर विचार करते हैं । इस शब्द में ही वाणी की उत्पत्ति का रहस्य छिपा हुआ है ।
–
‘वाच्’ शब्द का विश्लेषण करें तो यह स्थिति बनती है —
वाच् — व् + अ + अच् ( धातु )
‘व्’ का शब्दकोशीय अर्थ है — वायु
‘अ’ का शब्दकोशीय अर्थ है — समष्टि अर्थात् समस्त विश्व
‘अच्’ धातु का अर्थ है हलचल करना — To move to and fro
–
जब तक समष्टिभूत ॐ–कार अनहद नाद में, जो ब्रह्म का ही रूप है, वायु विक्षोभ करके हलचल नहीं करता, तब तक ‘वाच्’ अर्थात् वाणी की उत्पत्ति सम्भव ही नहीं है । जब हम मौन में जाते हैं तो उल्टी क्रिया होती है, मौन में प्रकट भाषा शान्त हो जाती है, और वह वापस अनहद नाद में समा जाती है ।
इसीलिए मौन अर्थात् प्रकट वाणी की आत्यन्तिक अनुपस्थिति ( Eternal Absence ) में अनहद नाद सुनाई पड़ने लगता है । बाहरी वाणी विक्षोभ का नतीजा है जबकि अनहद हमारा ध्रुव स्वभाव है जो हर समय निनादित है लेकिन बाहरी मनोगति के कारण ग्राह्य नहीं हो पाता है, हमारी पकड़ से बाहर रह जाता है ।
–
शास्त्र कहते हैं कि ब्रह्म ( निमित्त कारण ) के इशारे पर ( परमेच्छा पर ) ब्रह्म की अध्यक्षता में, यानी उसके परम साक्षी भाव में होने की स्थिति में, ब्रह्म की स्वभावभूता ( Nature of Brahma ) प्रकृति ही ब्रह्म ( उपादान कारण ) में विक्षोभ का आभास कराती है और सृष्टि की रचना करती है । वायु भी प्रकृति का एक माध्यम है जो ॐ-कार स्वरूप अनहद ब्रह्म में विक्षोभ का आभास कराती हुई ‘वाच्’ ( वाणी ) की उत्पत्ति करती है ।
–
इस प्रकार वाणी की उत्पत्ति का कारण वायु है । सोचिए, अगर हमारे मुख से वायु का संचरण/आवागमन रुक जाए तो क्या कोई शब्द बोला या सुना जा सकेगा ? कदापि नहीं !
इसी वाणी से ( वच् धातु से ) वाक्य/ वाच्य की उत्पत्ति हुई जो भाषा का प्रथम घटक है ।
नोट — वाणी की उत्पत्ति का यह चिन्तन मेरा निजी मन्तव्य है । शब्दकोश के अलावा किसी शास्त्रीय सिद्धान्त को मैंने अपने चिन्तन का आधार नहीं बनाया है
–
( सरस्वती का प्राकट्य )
वन्दे वाग्विभवदात्रीं हृल्लासोत्सकारिणीम् ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतपायिनीम् ॥
–
एतद्विषयक पूर्वप्रस्तुति में यह बताया गया था कि वाणी ( वाक्/वाच् ) की उत्पत्ति में वायु एक आवश्यक बाहरी हेतु ( Factor ) है । बिना वायु के ध्वनि उत्पन्न नहीं होती । वायु वाणी की सवारी है ।
–
आज हम सरस्वती देवी के स्वरूप की उत्पत्ति पर चिन्तन करेंगे कि कैसे व्यवस्थित और विविधता-भरी ध्वनियाँ उत्पन्न हुईं ।
–
आज के वैज्ञानिक की बात ही मान लीजिए तो क़रीब 14 अरब वर्ष पूर्व ब्रह्माण्ड का उद्भव हुआ । वैज्ञानिकों की अब तक की सर्वमान्य परिकल्पना ( Hypothesis ) है कि पहले किसी अत्यन्त छोटे कण की उपस्थिति रही होगी जिसे आज वैज्ञानिक God Particle कह रहे हैं । इस अत्यन्त सूक्ष्म कण में महाविस्फोट ( Big-bang ) के कारण सुविस्तृत ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई जो लगातार फैलता जा रहा है ।
आज वैज्ञानिक मानते हैं कि ब्रह्माण्ड में जितना दृश्य सामान्य पदार्थ ( Visible Ordinary Matter ) है जिसमें समस्त इलेक्ट्रोन्स, प्रोटोन्स, आयन्स, गैस, द्रव, ठोस और प्लाज़्मा शामिल है तथा विद्युत-चुम्बकीय विकिरण जैसे सौर ऊर्जा के फोटोन हैं — ये सब मिलाकर ब्रह्माण्ड का मात्र 4.9% हिस्सा ही हैं । तो बाक़ी 95.1% क्या है — इस पर वैज्ञानिकों ने एक परिकल्पना का सहारा लेकर अब तक यह बताया है कि ब्रह्माण्ड के 95.1% भाग में Dark Energy और Dark Matter है ।
हमारे शास्त्रों में लिखा है ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से पूर्व यहाँ सघनतम अंधकार था । अस्तु, यहाँ हमारा यहाँ अभिप्राय यह बताने का है कि ब्रह्माण्ड का अधिकांश भाग दृश्यमान पदार्थ का हिस्सा नहीं था और एक अवकाश जैसा था ।
महाविस्फोट से उत्पन्न विराट् ऊर्जा की ध्वनि पूरे ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो गई । यह ध्वनि किन्हीं दो पदार्थों के टकराने से नहीं हुई थी, यह आहत का परिणाम नहीं थी, इसीलिए यह अनाहत नाद कहलाई । संसार के कण-कण में यह अनाहत ( अनहद ) नाद अव्यक्त रूप में सदैव विद्यमान है ।
इसके विपरीत आहत नाद ही हमें हमारी इन्द्रियों से साक्षात् रूप में या उपकरणों के माध्यम से ultra-sound और infra-sound के रूप में सुनाई पड़ता है । यह ध्वनि किसी टकराहट का परिणाम होती है, चाहे यह टकराहट पदार्थों के आपसी टकराव का या अदृश्य तरंगों के संघर्षण का परिणाम हो ।
–
आज हम जिसकी चर्चा कर रहे हैं, वह आहत नाद का ही विषय है । अनाहत नाद से ही आहत नाद की उत्पत्ति हुई है । श्रीमद्भागवत महापुराण के दूसरे स्कन्ध के पाँचवें अध्याय में सृष्टि की उत्पत्ति का एक सुन्दर सिलसिला वर्णित है । ब्रह्म की प्रकृति के द्वारा ब्रह्म की परमेच्छा पर काल, कर्म और स्वभाव की रचना हुई ।
ये तीनों नियति के मूल धर्म ( Fundamental laws ) कहलाये जिनसे सारी क़ायनात संचालित है । प्रकृति के द्वारा प्रकृति के अन्तर्भूत त्रिगुण में विक्षोभ हुआ जिससे सबसे पहले समष्टि प्रज्ञा ( महत्तत्त्व ) का उद्भव हुआ । यह समष्टि प्रज्ञा ब्रह्म की परमेच्छा ( एकोऽहं बहु स्याम् ) का ही परिणाम थी । इसी से अहंकार ( भेद-दृष्टि ) की उत्पत्ति हुई ।
इस अहंकार के तामस स्वरूप से पञ्च महाभूतों ( एक से दूसरे की क्रमश: आकाश, वायु, तेजस् यानी अग्नि, जल और पृथ्वी ) की उत्पत्ति हुई । वायु में अपने ‘स्पर्श’ गुण के साथ-साथ अपने जनक आकाश का ‘शब्द’ गुण भी था । इसीप्रकार जल में अपने ‘रस’ गुण के साथ-साथ अपने पूर्वज आकाश, वायु और अग्नि — तीनों के गुण यथा क्रमश: शब्द, स्पर्श और रूप — अन्तर्निहित थे ।
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हलायुध शब्दकोश में ‘सरस्वती’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘सरस्-वती’ — इसप्रकार बताई गई । ‘सरस्’ पद का शाब्दिक अर्थ है जल । संस्कृत में जल के लिए यह शब्द बहुधा बहुवचन में ‘सर:’ प्रयुक्त होता है । अब आइए, देखते हैं, इस ‘सर:’ में क्या चमत्कार छिपा है ।
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संस्कृत शब्दकोश के आधार पर —
स वर्ण का अर्थ है — पवन / ज्ञान
र वर्ण का अर्थ है — अग्नि / प्रेम
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यह ‘सर’ यानी जल तत्त्व पवन और अग्नि से मिलकर बना है । विज्ञान कहता है कि हाइड्रोजन के दो परमाणु और ऑक्सीजन का एक परमाणु जल ( H2O ) का निर्माण करते हैं । हल्की हाइड्रोजन गैस ‘स’ ( पवन ) से निदर्शित ( denoted ) है, और आग को जलाने में अनिवार्य ऑक्सीजन गैस ‘र’ ( अग्नि ) से निदर्शित है ।
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जल में आकाश के शब्द गुण, वायु के स्पर्श गुण, अग्नि का रूप गुण के साथ-साथ अपना रस गुण भी विद्यमान होता है । पञ्च महाभूतों में पवन और जल ही वे तत्त्व हैं जो ऊपर-नीचे गति कर सकते हैं यानी जिनमें तरंगें होती हैं — पवन-तरंग और जल-तरंग ।
–
अनाहत नाद में मात्र ॐ की ध्वनि थी जो समरस थी, जो भेदहीन थी, विविधता-रहित थी इसलिए जगत्-व्यवहार के लिए विविधता भरी ध्वनियों की आवश्यकता थी । गुण-विक्षोभ से जनित पञ्च महाभूतों में से पवन और जल के संयोग से विभिन्न ध्वनियाँ उत्पन्न हुईं । पवन-तरंगों और जल-तरंगों की तरह ध्वनियों में भी उच्च तरंगें ( High Pitch ) और अवर तरंगें ( Low Pitch ) पैदा हुईं । इस प्रकार ध्वनियों का एक बहुरंगी संसार प्रकट हो गया ।
यही माँ सरस्वती का प्रकट व्यावहारिक रूप है इसीलिए वह सरस्-वती ‘सरस्वती’ कहलाई । अपनी रची हुई मूक सृष्टि के लोक-व्यवहार के लिए इतना मनोरम माध्यम बन जाने के कारण सरस्वती परमेश्वर की परम प्रिय चहेती बन गईं । आप जानते हैं इसीलिए पौराणिक आख्यानों में यह रूपक प्रसिद्ध हो गया कि ब्रह्मा जी ( ब्रह्म ) अपनी ही मानस पुत्री पर मोहित हो गये । सरस्वती के ‘स’ और ‘र’ वर्णों का एक पृथक् तात्पर्य ‘ज्ञान’ और ‘प्रेम’ भी है । पवन से पवन के अपत्यार्थ में पावन शब्द व्युत्पत्त हुआ है, अत: पवन का पावनता से सीधा सम्बन्ध है ।
ज्ञान इस संसार में सबसे पावन है —
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ( गीता ४/३८ ) ।
इसी प्रकार प्रेम का सीधा सम्बन्ध अग्नि से है और यह प्रेम भी पवित्र करता है क्योंकि पवन और पावक दोनों शब्द संस्कृत धातु ‘पू’ से निकले हैं । प्रेमाग्नि ( प्रेम की आग ) शब्द लोकप्रसिद्ध ही है ।
इसप्रकार सरस्वती ज्ञान और प्रेम की देवी हैं । भगवान् को पाने के दोनों मार्ग — ज्ञान मार्ग और प्रेम मार्ग — ये दोनों ही माँ भारती के अधिकार-क्षेत्र में आते हैं ।
तप रूपी परमात्मा द्वारा ऋत और सत्य उत्पन्न हुए
ऋत परमात्मा के यथार्थ संकल्प को कहते हैं , जो प्रकृतिभूता है और सत्य जो प्रकृति का सञ्चालन कराती है…
नमः शिवाय….
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वाणीं वयं वन्दामहे!
कुन्देन्दुहिमधवलां धवलवस्त्रावृतां हंसस्थितां
वरकच्छपीझङ्कृतिपरां ब्रह्मेशनारायणनुताम्।
मालाधरां पुस्तकधरां निःशेषजाडयविलोपिनीम्
अक्षय्यविद्याविभवदां वाणीं वयं वन्दामहे।।१।।
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यस्याः स्मरणमात्रोण पुम्भिर्लभ्यते ज्ञानप्रभा
यस्याः कृपालवलेशतः सुलभा शुभा वाचो विभा।
शब्दार्थगुणवृत्तिप्रदां रीतिप्रदां रसदायिनीम्
ध्वन्यौचितीवक्रोक्तिदां वाणीं वयं वन्दामहे।।२।।
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प्रतिभाप्रदां व्युत्पत्तिदामभ्यासदां रचनात्मिकाम्
गद्यात्मिकां पद्यात्मिकां स्वरताललयतानात्मिकाम्।
श्रव्यात्मिकां दृश्यात्मिकां कविसहृयाख्याधारिणीम्
वागात्मिकां नादात्मिकां वाणीं वयं वन्दामहे।।३।।
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विश्वं समस्तं मूकवज्जायेत यत्कृपया विना
भुवनं भवेदन्धं तथा यस्या दयालोकं विना।
दूरेऽन्तिके वा तिष्ठतां तां योजयित्रीं प्राणिनां
लोकावलम्बनरूपिणीं वाणीं वयं वन्दामहे।।।४।
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यास्ते परा पश्यन्तिका या मध्यमा या वैखरी
सृष्टिस्थितिप्रलयेश्वरी सुयशस्करी मङ्गलकरी।
तमसो जनान् ज्योतिर्नयति या, तां विधातुर्गेहिनीं
शुक्लां सुमतिदां मातरं वाणीं वयं वन्दामहे।।५।।
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वाणी की उत्पत्ति — एक चिन्तन
बसन्तोत्सव पर एक चिन्तन —
भौतिक विज्ञान ( Physics ) के जनक कहे जाने वाले प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन ने भौतिकी के तीन मूलभूत नियम ( fundamental laws of Physics ) प्रतिपादित किये थे जिनमें एक नियम यह था कि कोई पड़ी हुई वस्तु तब तक वहीं और वैसे ही पड़ी रहेगी जब तक कोई बाहरी बल उसे वहाँ से हटाने या संचालित करने के लिए न लगाया जाए । इसे विज्ञान की भाषा में ‘जड़त्व का नियम’ ( Law of Inertia ) कहते हैं ।
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सृष्टि की उत्पत्ति से पहले ब्रह्माण्ड में एक अव्यक्त नाद ‘ॐ’ व्याप्त था जिसे शास्त्र अनहद नाद कहते हैं । चूँकि जैसा ब्रह्माण्ड में है, वैसा ही मानव-शरीर में, इसलिए यह अनहद नाद मानव काया में आज भी निनादित हो रहा है ।
जैसे Ultra-sound या Super-sonic ध्वनियों को इन स्थूल कानों से सुना नहीं जा सकता है, वैसे ही इस अनहद ध्वनि को हमारे ये कान या कोई उपकरण सुन नहीं पाते, यह हमारी इन स्थूल इन्द्रियों ( इनमें उपकरण भी शामिल हैं ) से परे है ।
इसी अव्यक्त ध्वनि से ही समस्त व्यक्त ध्वनियाँ उत्पन्न हुई हैं । प्रभु की स्वभावभूता प्रकृति के सौजन्य से इस त्रिगुणात्मिका सृष्टि का सूत्रपात हुआ है और वही इसे व्यक्त रूप में ब्रह्म ( निमित्त कारण ) की परमेच्छा से ब्रह्म ( उपादान कारण ) में ही संचालित कर रही है । प्रकृति ने ही सृष्टि हेतु वायु की उत्पत्ति की जिसने इस अनहद ध्वनि में विक्षोभ के द्वारा समस्त ध्वनियों की उत्पत्ति की है । इस प्रकार ॐ से इन्द्रियग्राह्य ध्वनियों की उत्पत्ति हुई ।
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अगर वायु-जनित विक्षोभ ( exertion ) नहीं होता यानी न्यूटन की भाषा में समझें, यदि वायु का बाहरी बल आरोपित नहीं होता तो निराकार अनहद से इन्द्रिय-ग्राह्य साकार ध्वनियों की उत्पत्ति ही न हुई होती । अनहद नाद अपने स्वरूप में बिना किसी विक्षोभ के यथास्थिति ही अवस्थित रहता ।
[ वैसे अनहद सर्वदा ही अपनी ध्रुव स्थिति में है, उसमें उत्पन्न विक्षोभ वैसे ही प्रतीत्य है जैसे ब्रह्म में त्रिगुण-सृष्टि । सभी संसारी ध्वनियाँ अनहद में वैसे ही आभासी हैं जैसे ब्रह्म में जगत् — ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या ! इन्द्रिय-ग्राह्य ध्वनियों में वे सभी प्रकार की ध्वनियाँ शामिल हैं जो कानों द्वारा सुनी जाती हैं और जो यन्त्रों की सहायता से इन्द्रिय-ग्राह्य हो जाती हैं ।]
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विज्ञान यह भी कहता है कि ध्वनि निर्वात ( Vacuum या Absence of Air ) में गमन नहीं कर सकती है । इसका तात्पर्य है कि अगर वायु नहीं होती तो वाणी उत्पन्न ही नहीं होती । संसार के प्रयोजन हेतु प्रकृति ने वायु का सहारा लेकर ‘वाणी’ की उत्पत्ति की है ।
निम्नांकित पोस्ट पर वाणी की उत्पत्ति-विषयक ऋग्वेद के मन्त्र में यही बताया गया है कि प्राणवायु के संसर्ग से ही वाणी उत्पन्न हुई ।
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अब आइए,
संस्कृत शब्द ‘वाच्’ पर विचार करते हैं । इस शब्द में ही वाणी की उत्पत्ति का रहस्य छिपा हुआ है ।
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‘वाच्’ शब्द का विश्लेषण करें तो यह स्थिति बनती है —
वाच् — व् + अ + अच् ( धातु )
‘व्’ का शब्दकोशीय अर्थ है — वायु
‘अ’ का शब्दकोशीय अर्थ है — समष्टि अर्थात् समस्त विश्व
‘अच्’ धातु का अर्थ है हलचल करना — To move to and fro
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जब तक समष्टिभूत ॐ–कार अनहद नाद में, जो ब्रह्म का ही रूप है, वायु विक्षोभ करके हलचल नहीं करता, तब तक ‘वाच्’ अर्थात् वाणी की उत्पत्ति सम्भव ही नहीं है । जब हम मौन में जाते हैं तो उल्टी क्रिया होती है, मौन में प्रकट भाषा शान्त हो जाती है, और वह वापस अनहद नाद में समा जाती है ।
इसीलिए मौन अर्थात् प्रकट वाणी की आत्यन्तिक अनुपस्थिति ( Eternal Absence ) में अनहद नाद सुनाई पड़ने लगता है । बाहरी वाणी विक्षोभ का नतीजा है जबकि अनहद हमारा ध्रुव स्वभाव है जो हर समय निनादित है लेकिन बाहरी मनोगति के कारण ग्राह्य नहीं हो पाता है, हमारी पकड़ से बाहर रह जाता है ।
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शास्त्र कहते हैं कि ब्रह्म ( निमित्त कारण ) के इशारे पर ( परमेच्छा पर ) ब्रह्म की अध्यक्षता में, यानी उसके परम साक्षी भाव में होने की स्थिति में, ब्रह्म की स्वभावभूता ( Nature of Brahma ) प्रकृति ही ब्रह्म ( उपादान कारण ) में विक्षोभ का आभास कराती है और सृष्टि की रचना करती है । वायु भी प्रकृति का एक माध्यम है जो ॐ-कार स्वरूप अनहद ब्रह्म में विक्षोभ का आभास कराती हुई ‘वाच्’ ( वाणी ) की उत्पत्ति करती है ।
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इस प्रकार वाणी की उत्पत्ति का कारण वायु है । सोचिए, अगर हमारे मुख से वायु का संचरण/आवागमन रुक जाए तो क्या कोई शब्द बोला या सुना जा सकेगा ? कदापि नहीं !
इसी वाणी से ( वच् धातु से ) वाक्य/ वाच्य की उत्पत्ति हुई जो भाषा का प्रथम घटक है ।
नोट — वाणी की उत्पत्ति का यह चिन्तन मेरा निजी मन्तव्य है । शब्दकोश के अलावा किसी शास्त्रीय सिद्धान्त को मैंने अपने चिन्तन का आधार नहीं बनाया है
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( सरस्वती का प्राकट्य )
वन्दे वाग्विभवदात्रीं हृल्लासोत्सकारिणीम् ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतपायिनीम् ॥
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एतद्विषयक पूर्वप्रस्तुति में यह बताया गया था कि वाणी ( वाक्/वाच् ) की उत्पत्ति में वायु एक आवश्यक बाहरी हेतु ( Factor ) है । बिना वायु के ध्वनि उत्पन्न नहीं होती । वायु वाणी की सवारी है ।
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आज हम सरस्वती देवी के स्वरूप की उत्पत्ति पर चिन्तन करेंगे कि कैसे व्यवस्थित और विविधता-भरी ध्वनियाँ उत्पन्न हुईं ।
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आज के वैज्ञानिक की बात ही मान लीजिए तो क़रीब 14 अरब वर्ष पूर्व ब्रह्माण्ड का उद्भव हुआ । वैज्ञानिकों की अब तक की सर्वमान्य परिकल्पना ( Hypothesis ) है कि पहले किसी अत्यन्त छोटे कण की उपस्थिति रही होगी जिसे आज वैज्ञानिक God Particle कह रहे हैं । इस अत्यन्त सूक्ष्म कण में महाविस्फोट ( Big-bang ) के कारण सुविस्तृत ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई जो लगातार फैलता जा रहा है ।
आज वैज्ञानिक मानते हैं कि ब्रह्माण्ड में जितना दृश्य सामान्य पदार्थ ( Visible Ordinary Matter ) है जिसमें समस्त इलेक्ट्रोन्स, प्रोटोन्स, आयन्स, गैस, द्रव, ठोस और प्लाज़्मा शामिल है तथा विद्युत-चुम्बकीय विकिरण जैसे सौर ऊर्जा के फोटोन हैं — ये सब मिलाकर ब्रह्माण्ड का मात्र 4.9% हिस्सा ही हैं । तो बाक़ी 95.1% क्या है — इस पर वैज्ञानिकों ने एक परिकल्पना का सहारा लेकर अब तक यह बताया है कि ब्रह्माण्ड के 95.1% भाग में Dark Energy और Dark Matter है ।
हमारे शास्त्रों में लिखा है ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से पूर्व यहाँ सघनतम अंधकार था । अस्तु, यहाँ हमारा यहाँ अभिप्राय यह बताने का है कि ब्रह्माण्ड का अधिकांश भाग दृश्यमान पदार्थ का हिस्सा नहीं था और एक अवकाश जैसा था ।
महाविस्फोट से उत्पन्न विराट् ऊर्जा की ध्वनि पूरे ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो गई । यह ध्वनि किन्हीं दो पदार्थों के टकराने से नहीं हुई थी, यह आहत का परिणाम नहीं थी, इसीलिए यह अनाहत नाद कहलाई । संसार के कण-कण में यह अनाहत ( अनहद ) नाद अव्यक्त रूप में सदैव विद्यमान है ।
इसके विपरीत आहत नाद ही हमें हमारी इन्द्रियों से साक्षात् रूप में या उपकरणों के माध्यम से ultra-sound और infra-sound के रूप में सुनाई पड़ता है । यह ध्वनि किसी टकराहट का परिणाम होती है, चाहे यह टकराहट पदार्थों के आपसी टकराव का या अदृश्य तरंगों के संघर्षण का परिणाम हो ।
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आज हम जिसकी चर्चा कर रहे हैं, वह आहत नाद का ही विषय है । अनाहत नाद से ही आहत नाद की उत्पत्ति हुई है । श्रीमद्भागवत महापुराण के दूसरे स्कन्ध के पाँचवें अध्याय में सृष्टि की उत्पत्ति का एक सुन्दर सिलसिला वर्णित है । ब्रह्म की प्रकृति के द्वारा ब्रह्म की परमेच्छा पर काल, कर्म और स्वभाव की रचना हुई ।
ये तीनों नियति के मूल धर्म ( Fundamental laws ) कहलाये जिनसे सारी क़ायनात संचालित है । प्रकृति के द्वारा प्रकृति के अन्तर्भूत त्रिगुण में विक्षोभ हुआ जिससे सबसे पहले समष्टि प्रज्ञा ( महत्तत्त्व ) का उद्भव हुआ । यह समष्टि प्रज्ञा ब्रह्म की परमेच्छा ( एकोऽहं बहु स्याम् ) का ही परिणाम थी । इसी से अहंकार ( भेद-दृष्टि ) की उत्पत्ति हुई ।
इस अहंकार के तामस स्वरूप से पञ्च महाभूतों ( एक से दूसरे की क्रमश: आकाश, वायु, तेजस् यानी अग्नि, जल और पृथ्वी ) की उत्पत्ति हुई । वायु में अपने ‘स्पर्श’ गुण के साथ-साथ अपने जनक आकाश का ‘शब्द’ गुण भी था । इसीप्रकार जल में अपने ‘रस’ गुण के साथ-साथ अपने पूर्वज आकाश, वायु और अग्नि — तीनों के गुण यथा क्रमश: शब्द, स्पर्श और रूप — अन्तर्निहित थे ।
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हलायुध शब्दकोश में ‘सरस्वती’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘सरस्-वती’ — इसप्रकार बताई गई । ‘सरस्’ पद का शाब्दिक अर्थ है जल । संस्कृत में जल के लिए यह शब्द बहुधा बहुवचन में ‘सर:’ प्रयुक्त होता है । अब आइए, देखते हैं, इस ‘सर:’ में क्या चमत्कार छिपा है ।
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संस्कृत शब्दकोश के आधार पर —
स वर्ण का अर्थ है — पवन / ज्ञान
र वर्ण का अर्थ है — अग्नि / प्रेम
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यह ‘सर’ यानी जल तत्त्व पवन और अग्नि से मिलकर बना है । विज्ञान कहता है कि हाइड्रोजन के दो परमाणु और ऑक्सीजन का एक परमाणु जल ( H2O ) का निर्माण करते हैं । हल्की हाइड्रोजन गैस ‘स’ ( पवन ) से निदर्शित ( denoted ) है, और आग को जलाने में अनिवार्य ऑक्सीजन गैस ‘र’ ( अग्नि ) से निदर्शित है ।
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जल में आकाश के शब्द गुण, वायु के स्पर्श गुण, अग्नि का रूप गुण के साथ-साथ अपना रस गुण भी विद्यमान होता है । पञ्च महाभूतों में पवन और जल ही वे तत्त्व हैं जो ऊपर-नीचे गति कर सकते हैं यानी जिनमें तरंगें होती हैं — पवन-तरंग और जल-तरंग ।
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अनाहत नाद में मात्र ॐ की ध्वनि थी जो समरस थी, जो भेदहीन थी, विविधता-रहित थी इसलिए जगत्-व्यवहार के लिए विविधता भरी ध्वनियों की आवश्यकता थी । गुण-विक्षोभ से जनित पञ्च महाभूतों में से पवन और जल के संयोग से विभिन्न ध्वनियाँ उत्पन्न हुईं । पवन-तरंगों और जल-तरंगों की तरह ध्वनियों में भी उच्च तरंगें ( High Pitch ) और अवर तरंगें ( Low Pitch ) पैदा हुईं । इस प्रकार ध्वनियों का एक बहुरंगी संसार प्रकट हो गया ।
यही माँ सरस्वती का प्रकट व्यावहारिक रूप है इसीलिए वह सरस्-वती ‘सरस्वती’ कहलाई । अपनी रची हुई मूक सृष्टि के लोक-व्यवहार के लिए इतना मनोरम माध्यम बन जाने के कारण सरस्वती परमेश्वर की परम प्रिय चहेती बन गईं । आप जानते हैं इसीलिए पौराणिक आख्यानों में यह रूपक प्रसिद्ध हो गया कि ब्रह्मा जी ( ब्रह्म ) अपनी ही मानस पुत्री पर मोहित हो गये । सरस्वती के ‘स’ और ‘र’ वर्णों का एक पृथक् तात्पर्य ‘ज्ञान’ और ‘प्रेम’ भी है । पवन से पवन के अपत्यार्थ में पावन शब्द व्युत्पत्त हुआ है, अत: पवन का पावनता से सीधा सम्बन्ध है ।
ज्ञान इस संसार में सबसे पावन है —
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ( गीता ४/३८ ) ।
इसी प्रकार प्रेम का सीधा सम्बन्ध अग्नि से है और यह प्रेम भी पवित्र करता है क्योंकि पवन और पावक दोनों शब्द संस्कृत धातु ‘पू’ से निकले हैं । प्रेमाग्नि ( प्रेम की आग ) शब्द लोकप्रसिद्ध ही है ।
इसप्रकार सरस्वती ज्ञान और प्रेम की देवी हैं । भगवान् को पाने के दोनों मार्ग — ज्ञान मार्ग और प्रेम मार्ग — ये दोनों ही माँ भारती के अधिकार-क्षेत्र में आते हैं ।
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