वैताल ने कहा - राजन ! उज्जयिनी में महासेन नाम का एक राजा था । उसके राज्य में देवशर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था । देवशर्मा का गुणाकर नामक एक पुत्र था, जो द्यूत, मद्य आदि का व्यसनी था । उस दुष्ट गुणाकर ने पिता का सारा धन द्यूत आदि में नष्ट कर दिया । उसके बंधुओं ने उसका परित्याग कर दिया । वह पृथ्वी पर इधर उधर भटकने लगा । दैवयोग से गुणाकर एक सिद्ध के आश्रम में आया, वहां कपर्दी नाम के एक योगी ने उसे कुछ खाने को दिया, किंतु भूख से पीड़ित होते हुए भी उसने उस अन्न को पिशाच आदि से दूषित समझकर ग्रहण नहीं किया । इस पर उस योगी ने उसके आतिथ्य के लिये एक यक्षिणी को बुलाया । यक्षिणी ने आकर गुणाकर का आतिथ्य स्वागत किया । तदंनतर वह कैलाश शिखर पर चली गयी । उसके वियोग से विह्वल होकर गुणाकर पुन: योगी के पास आया । योगी ने यक्षिणी को आकृष्ट करनेवाली विद्या गुणाकर को प्रदान की और कहा - ‘वत्स ! तुम चालीस दिन तक जल में स्थित रहकर आधी रात में इस शुभ मंत्र का जप करो । ऐसा करने पर यदि तुम मंत्र सिद्ध कर लोगे तो मंत्र की शक्ति के प्रभाव से वह यक्षिणी तुम्हें प्राप्त हो जाएंगी । गुणाकर ने वैसा ही किया, किंतु वह यक्षिणी को प्राप्त नहीं कर सका । अंत में विवश होकर योगी की आज्ञा से अपने घर लौट आया । उसने अपने माता - पिता को नमस्कार कर वह रात्रि बितायी । दूसरे दिन प्रात: वह गुणाकर संन्यासियों के एक मठ में गया और वहां शिष्य - रूप में रहने लगा । पचांग्नि के मध्य में स्थित होकर उसने पवित्र हो यक्षिणी को प्राप्त करने के लिये कपर्दी द्वारा बताये गये मंत्र का पुन: जप करना प्रारंभ किया, पर यक्षिणी फिर भी नहीं आयी, जिससे उसे बड़ा कष्ट हुआ ।’
वैताल ने ज्ञानविशारद राजा से पूछा - ‘महाभाग ! गुणाकर अपनी प्रिया यक्षिणी को क्यों नहीं प्राप्त कर सका ?’
राजा बोला - रुद्रकिंकर ! साधक की सिद्धि के लिये तीन आवश्यक गुण होने चाहिये - मन, वाणी तथा शरीर का ऐकात्म्य । मन और वाणी एकता से किया गया कर्म परलोक में सुखप्रद होता है । वाणी और शरीर से किया गया कार्य सुंदर होता है । वह इस जन्म में आंशिक फल देता है और परलोक में अधिक फलप्रद होता है । मन और शरीर के द्वारा किया गया कर्म दूसरे जन्म में सिद्धि प्रदान करता है, परंतु मन, वाणी और शरीर - इन तीनों की तन्मयता से संपादित कर्म इस जन्म में ही शीघ्र फल प्रदान करता है और अंत में मोक्ष भी प्रदान करता है । अत: साधक को कोई भी कार्य अत्यंत मनोयोग से करना चाहिये ।
गुणाकर ने यद्यपि दो बार बड़े कष्टपूर्वक मंत्र का जप किया, किंतु दोनों ही बार की साधना में मनोयोग की कमी रही । जल के भीतर तथा पंचाग्नि सेवन आदि में शरीर का योग रहा और वाणी से जप भी होता रहा, किंतु गुणाकर का मन मंत्र में लगाकर यक्षिणी में लगा हुआ था । इसी कारण उसे मंत्र शक्ति पर विश्वास भी न हो सका । शरीर और वाणी का योग होते हुए भी मन का योग न रहने के कारण गुणाकार यक्षिणी को प्राप्त न कर सका, किंतु कर्म तो उसने किया ही था, फलत: परलोक में वह यक्ष हुआ और यक्ष होकर यक्षिणी को प्राप्त किया । इससे यह सिद्ध हुआ कि किसी भी कार्य की पूर्ण सिद्धि के लिये मन, वाणी और शरीर - इन तीनों का ही योग आवश्यक है । इनमें भी मन का योग परम आवश्यक है
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