प्रियव्रत नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो चुके हैं । उनके पिता का नाम था स्वायम्भुव मनु । प्रियव्रत योगिराज होने के कारण विवाह करना नहीं चाहते थे । तपस्या में उनकी विशेष रुचि थी, परंतु ब्रह्मा जी की आज्ञा तथा सत्प्रयत्न के प्रभाव से उन्होंने विवाह कर लिया । विवाह के पश्चात् सुदीर्घकाल तक उन्हें कोई भी संतान नहीं हुई । तब कश्यप जी ने उनसे पुत्रेष्टियज्ञ कराया । राजा की प्रेयसी भार्या का नाम मालिनी था । मुनि ने उन्हें चरु (खीर) प्रदान किया । चरुभक्षण करने के पश्चात् रानी मालिनी गर्भवती हो गयी । तत्पश्चात् सुवर्ण के समान प्रभावाले एक कुमार की उत्पत्ति हुई, परंतु संपूर्ण अंगों से संपन्न वह कुमार मरा हुआ था । उसकी आंखें उलट चुकी थीं । उसे देखकर समस्त नारियां तथा बांधवों की स्त्रियां भी रो पड़ीं । पुत्र के असह्य शोक के कारण माता को मूर्च्छा आ गयी ।
राजा प्रियव्रत उस मृत बालक को लेकर श्मशान में गये और उस एकांत भूमि में पुत्र को छाती से चिपकाकर आंखों से आंशुओं की धारा बहाने लगे । इतने में उन्हें वहां एक दिव्य विमान दिखायी पड़ा । शुद्ध स्फटिकमणि के समान चमकने वाला वह विमान अमूल्य रत्नों से बना था । तेज से जगमगाते हुए उस विमान की रेशमी वस्त्रों से अनुपम शोभा हो रही थी । वह अनेक प्रकार के अद्भुत चित्रों से विभूषित तथा पुष्पों की माला से सुसज्जित था । उसी पर बैठी हुई मन को मुग्ध करने वाली एक परम सुंदरी देवी को राजा प्रियव्रत ने देखा । श्वेत चंपा के फूल के समान उनका उज्जवल वर्ण था । सदा सुस्थिर तारुण्य से शोभा पाने वाली वे देवी मुस्कुरा रही थीं । उनके मुख पर प्रसन्नता छायी थी । रत्नमय आभूषण उनकी छवि बढ़ा रहे थे । योगशास्त्र में पारंगत वे देवी भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये आतुर थीं । ऐसा जान पड़ता था मानो वे मूर्तिमती कृपा ही हों । उन्हें सामने विराजमान देखकर राजा ने बालक को भूमि पर रख दिया और बड़े आदर के साथ उनकी पूजा और स्तुति की । उस समय वे स्कंद की प्रिया देवी षष्ठी अपने तेज से देदीप्यमान थीं । उनका शांत विग्रह ग्रीष्मकालीन सूर्य के समान चमचमा रहा था । उन्हें प्रसन्न देखकर राजा ने पूछा - ‘सुशोभने ! कान्ते ! सुव्रते ! वरारोहे ! तुम कौन हो, तुम्हारे पतिदेव कौन हैं और तुम किसकी कन्या हो ? तुम स्त्रियों में धन्यवाद एवं आदर की पात्र हो ।’
जगत को मंगल प्रदान करने में प्रवीण तथा देवताओं को रण में सहायता पहुंचाने वाली वे भगवती ‘देवसेना’ थीं । पूर्वसमय में देवता दैत्यों से परास्त हो चुके थे । इन देवी ने स्वयं सेना बनकर और देवताओं का पक्ष लेकर युद्ध किया था । इनकी कृपा से देवता विजयी हो गये थे । अतएव इनका नाम ‘देवसेना’ पड़ गया । महाराज प्रियव्रत की बात सुनकर ये उनसे कहने लगीं - ‘राजन ! मैं ब्रह्मा की मानसी कन्या हूं । जगत पर शासन करनेवाली मुझ देवी का नाम ‘देवसेना’ है । विधाता ने मुझे उत्पन्न करके स्वामी कार्तिकेय को सौंप दिया है । मैं संपूर्ण मातृकाओं में प्रसिद्ध हूं । स्कंद की पतिव्रता भार्या होने का गौरव मुझे प्राप्त है । भगवती मूलप्रकृति के छठे अंश से प्रकट होने के कारण विश्व में देवी ‘षष्ठी’ नाम से मेरी प्रसिद्धि है । मेरे प्रसाद से पुत्रहीन व्यक्ति सुयोग्य पुत्र, प्रियाहीन जन प्रिया, दरिद्री धन तथा कर्मशील पुरुष कर्मों के उत्तम फल प्राप्त कर लेते हैं । राजन ! सुख, दु:ख, भय, शोक, दर्ष, मंगल, संपत्ति और विपत्ति - ये सब कर्म के अनुसार होते हैं । अपने ही कर्म के प्रभाव से पुरुष अनेक पुत्रों का पिता होता है और कुछ लोग पुत्रहीन भी होते हैं । किसी को मरा हुआ पुत्र होता है और किसी को दीर्घजीवी - यह कर्म का ही फल है । गुणी, अंगहीन, अनेक पत्नियों का स्वामी, भार्यारहित, रूपवान, रोगी और धर्मा होने में मुख्य कारण अपना कर्म ही है । कर्म के अनुसार व्याधि होती है और पुरुष आरोग्यवान भी हो जाता है । अतएव राजन ! कर्म सबसे बलवान है - यह बात श्रुति में कही गयी है ।’
इस प्रकार कहकर देवी षष्ठी ने उस बालक को उठा लिया और अपने महान ज्ञान के प्रभाव से खेल - खेल में ही उसे पुन: जीवित कर दिया । अब राजा ने देखा तो सुवर्ण के समान प्रभावाला वह बालक हंस रहा था । अभी महाराज प्रियव्रत उस बालक की ओर देख ही रहे थे कि देवी देवसेना उस बालक को लेकर आकाश में जाने को तैयार हो गयीं । यह देख राजा के कण्ठ, ओष्ठ और तालु सूख गये, उन्होंने पुन: देवी की स्तुति की । तब संतुष्ट हुई देवी ने राजा से वेदोक्त वचन कहा - ‘तुम स्वायम्भुव मनु के पुत्र हो । त्रिलोकी में तुम्हारा शासन चलता है । तुम सर्वत्र मेरी पूजा कराओ और स्वयं भी करो । तब मैं तुम्हें कमल के समान मुखवाला यह मनोहर पुत्र प्रदान करूंगी । इसका नाम सुव्रत होगा । इसमें सभी गुण और विवेकशक्ति विद्यमान रहेंगे । यह भगवान नारायण का कलावतार तथा प्रधान योगी होगा । इसे पूर्वजन्म की बातें स्मरण रहेंगी । क्षत्रियों में श्रेष्ठ यह बालक सौ अश्वमेध यज्ञ करेगा । सभी इसका सम्मान करेंगे । उत्तम बल से संपन्न होने के कारण यह ऐसी शोभा पायेगा जैसे लाखों हाथियों में सिंह । यह धनी, गुणी, शुद्ध, विद्वानों का प्रेमभाजन तथा योगियों, ज्ञानियों एवं तपस्वियों का सिद्धरूप होगा । त्रिलोकी में इसकी कीर्ति फैल जाएंगी । यह सबको सब सम्पत्ति प्रदान कर सकेगा ।’
इस प्रकार कहने के पश्चात् भगवती देवसेना ने उन्हें वह पुत्र दे दिया । राजा प्रियव्रत ने पूजा की सभी बातें स्वीकार कर लीं । यों भगवती देवसेना ने उन्हें उत्तम वर देकर स्वर्ग के लिये प्रस्थान किया । राजा भी प्रसन्न मन होकर मंत्रियों के साथ अपने घर लौट आये और पुत्रविषयक वृतांत सबसे कह सुनाये । यह प्रिय वचन सुनकर स्त्री और पुरुष सब के सब परम संतुष्ट हो गये । राजा ने सर्वत्र पुत्रप्राप्ति के उपलक्ष्य में मांगलिक कार्य आरंभ करा दिया, भगवती की पूजा की, ब्राह्मणों को बहुत सा धन दान दिया । तब से प्रत्येक मास में शुक्लपक्ष की षष्ठी तिथि के अवसर पर भगवती षष्ठी का महोत्सव यत्नपूर्वक मनाया जाने लगा । बालकों के प्रसवगृह में छठे दिन, इक्कीस वें दिन तथा अन्नप्राशन के शुभ समय पर यत्नपूर्वक देवी की पूजा होने लगी । सर्वत्र इसका पूरा प्रचार हो गया । स्वयं राजा प्रियव्रत भी पूजा करते थे ।
भगवती देवसेना का ध्यान, पूजन और स्तोत्र इस प्रकार है - जो प्रसंग सामवेद की कौथुमी शाखा में वर्णित है । शालग्राम की प्रतिमा, कलश अथवा वट के मूलभाग में या दीवाल पर पुत्तलिका बनाकर प्रकृति के छठे अंश से प्रकट होने वाली शुद्धस्वरूपिणी इन भगवती की पूजा करनी चाहिये । विद्वान पुरिष इनका इस प्रकार ध्यान करे - ‘सुंदर पुत्र, कल्याण तथा दया प्रदान करने वाली ये देवी जगत की माता हैं । श्वेत चंपक के समान इनका वर्ण है । ये रत्नमय भूषणों से अलंकृत हैं । इन परम पवित्र स्वरूपिणी भगवती देवसेना की मैं उपासना करता हूं ।’ विद्वान पुरुष इस प्रकार ध्यान करने के पश्चात् भगवती को पुष्पाञ्जलि समर्पण करें । पुन: ध्यान करके मूलमंत्र से इन साध्वी देवी की पूजा करने का विधान है । पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, गंध, पुष्प, धूप, दीप, विविध प्रकार के नैवेद्य तथा सुंदर फलद्वारा भगवती की पूजा करनी चाहिये । उपचार अर्पण करने के पूर्व ‘ॐ ह्लीं षष्ठीदेव्यै स्वाहा’ - इस मंत्र का उच्चारण करना विहित है । पूजक पुरुष को चाहिये कि यथाशक्ति इस अष्टाक्षर महामंत्र का जप भी करें ।
तदनंतर मन को शांत करके भक्तिपूर्वक स्तुति करने के पश्चात् देवी को प्रणाम करें । जो पुरुष देवी के उपर्युक्त अष्टाक्षर महामंत्र का एक लाख जप करता है, उसे अवश्य ही उत्तम पुत्र की प्राप्ति होती है, ऐसा ब्रह्मा जी ने कहा है । संपूर्ण शुभ कामनाओं को प्रदान करनेवाला, सबका मनोरथ पूर्ण करनेवाला निम्न स्तोत्र वेदों में गोप्य है -
‘देवी को नमस्कार है । महादेवी को नमस्कार है ।भगवती सिद्धि एवं शांति को नमस्कार है । शुभा, देवसेना एवं भगवती षष्ठी को बार बार नमस्कार है । वरदा, पुत्र दा, धन दा, सुख दा एवं मोक्षप्रदा भगवती षष्ठी को बार बार नमस्कार है । मूल प्रकृति के छठे अंश से प्रकट होने वाली भगवती सिद्धा को नमस्कार है । माया, सिद्धयोगिनी, सारा, शारदा और परादेवी नाम से शोभा पानेवाली भगवती षष्टी को बार बार नमस्कार है । बालकों की अधिष्ठात्री, कल्याण प्रदान करनेवाली, कल्याणस्वरूपिणी एवं कर्मों के फल प्रदान करनेवाली देवी षष्ठी को बार बार नमस्कार है । अपने भक्तों को प्रत्यक्ष दर्शन देनेवाली तथा सबके लिये संपूर्ण कार्यों में पूजा प्राप्त करने की अधिकारिणी स्वामी कार्तिकेय की प्राण प्रिया देवी षष्ठी को बार बार नमस्कार है । मनुष्य जिनकी सदा वंदना करते हैं तथा देवताओं की रक्षा में जो तत्पर रहती हैं, उन शुद्ध सत्त्वस्वरूपा देवी षष्ठी को बार बार नमस्कार है । हिंसा और क्रोध से रहित भगवती षष्ठी को बार बार नमस्कार है ।’
इस प्रकार स्तुति करने के पश्चात् महाराज प्रियव्रत ने षष्ठी देवी के प्रभाव से यशस्वी पुत्र प्राप्त कर लिया ।
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