Wednesday, 9 March 2016

कैसे करें महाशिवरात्री की पूजा -


यह व्रत फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को किया जाता है । इसको प्रतिवर्ष करने से यह ‘नित्य’ और किसी कामनापूर्वक करने से ‘काम्य’ होता है । प्रतिपदादि तिथियों के अग्नि आदि अधिपति होते हैं । जिस तिथि का जो स्वामी हो उसका उस तिथि में अर्चन करना अतिशय उत्तम होता है । चतुर्दशी के स्वामी शिव हैं (अथवा शिव की तिथि चतुर्दशी है) । अत: उनकी रात्रि में व्रत किया जाने से इस व्रत का नाम ‘शिवरात्रि’ होना सार्थक हो जाता है । यद्यपि प्रत्येक मास की कृष्णचतुर्दशी शिवरात्रि होती है और शिवभक्त प्रत्येक कृष्णचतुर्दशी का व्रत करते ही है, किंतु फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के निशीथ (अर्धरात्रि) में ‘शिवलिंगतयोभ्दूत: कोटिसूर्यसमप्रभ: ।’ ईशानसंहिता के इस वाक्य के अनुसार ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव हुआ था, इस कारण यह महाशिवरात्रि मानी जाती है । ‘शिवरात्रिव्रतं नाम सर्वपापप्रणाशनम् । आचाण्डालमनुष्याणां भुक्तिमुक्तिप्रदायकम् ।।’ - के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अधूत, स्त्री - पुरुष और बाल युवा वृद्ध - ये सब इस व्रत को कर सकते हैं और प्राय: करते ही हैं ।
जिस प्रकार राम, कृष्ण, वामन और नृसिंहजयंती एवं प्रत्येक एकादशी उपोष्य हैं, उसी प्रकार किया जाता है । सिद्धांत रूप में आज के सूर्योद. से कल के सूर्योदय तक रहने वाली चतुर्दशी ‘शुद्धा’ और अन्य ‘विद्धा’ मानी गयी हैं । उसमें भी प्रदोष (रात्रि का आरंभ) और निशीथ (अर्धरात्रि) की चतुर्दशी ग्राह्य होती है । अर्धरात्रि की पूजा के लिये स्कंदपुराण में लिखा है कि ‘निशिभ्रमंति भूतानि शक्तय: शूलभृद् यत: । अतस्तस्यां चतुर्दश्यां सत्यां तत्पूजनं भवेत् ।।’ अर्थात् रात्रि के समय भूत, प्रेत, पिशाच, शक्तियां और स्वयं शिवजी भ्रमण करते हैं, अत: उस समय इनका पूजन करने से मनुष्य के पाप दूर हो जाते हैं ।
व्रती को चाहिये कि फाल्गुम कृष्ण चतुर्दशी को प्रात:काल की संध्या आदि से निवृत्त होकर भाल में भस्म का त्रिपुण्ड्र तिलक और गले में रुद्राक्ष की माला धारण करके हाथ में जल लेकर ‘शिवरात्रिव्रतं ह्येतत् करिष्येहं महाफलम् । निर्विघ्नमस्तु मे चात्र त्वत्प्रसादाज्जगत्पते ।।’ यह मंत्र पढ़कर जल को छोड़ दे और दिनभर (शिवस्मरण करता हुआ) मौन रहे । तत्पश्चात् सायंकाल के समय फिर स्नान करके शिव मंदिर में जाकर सुविधानुसार पूर्व या उत्तरमुख होकर बैठे और तिलक तथा रुद्राक्ष धारण करके ‘ममाखिलपापक्षयपूर्वकसकलाभीष्ट सिद्धये शिवपूजनं करिष्ये’ यह संकल्प करें । इसके बाद ऋतु काल के गंध - पुष्प, बिल्वपत्र, धतूरे के फऊल, घृतमिश्रित गुग्गुल की धूप, दीप, नैवेद्य और नीराजनादि आवश्यक सामग्री समीप रखकर रात्रि के प्रथम प्रहार में ‘पहली’, द्वितीय में ‘दूसरी’ तृतीय में ‘तीसरी’ और चतुर्थ में ‘चौथी’ पूजा करें ।
चारों पूजन पंचोपचार, षोडशोपचार या राजोपचार - जिस विधि से बन सके समान रूप से करें और साथ में रुद्रपाठादि भी करता रहे । इस प्रकार करने से पाठ, पूजा, जागरण और उपवास - सभी संपन्न हो सकते हैं । पूजा की समाप्ति में नीराजन, मंत्रपुष्पाञ्‍जलि और अर्घ्य, परिक्रमा करें तथा प्रत्येक पूजन में ‘मया कृतान्यनेकानि पापानि हर शंकर । शिवरात्रौ ददाम्यर्घ्यमुमाकांत गृहाण मे ।।’ - से अर्घ्य देकर ‘संसारक्लेशदग्धस्य व्रतेनानेन शंकर । प्रसीद सुमुखो नाथ ज्ञानदृष्टिप्रदो भव ।।’ से प्रार्थना करें ।

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