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आध्यात्मिक मान्यता के अनुसार मानवी अन्तराल में उभयलिंग विद्यमान है। हर व्यक्ति अपने आप में आधार नर और आधा नारी है। इसी तथ्य को अलंकारिक रूप में अर्धनारीश्वर भगवान के रूप में चित्रित किया जाता है। कृष्णा और राधा को भी एक ऐसा ही समन्वित रूप चित्रों में दृष्टिगोचर होता है। पति−पत्नी दो शरीर एक प्राण होते हैं। यह सूक्ष्म तथ्यों का स्थूल अलंकारिक वर्णन है।
सूक्ष्म संकेत यह है कि हर व्यक्ति भी भीतर उभयलिंग सत्ता विद्यमान है। जिसमें जो अंश अधिक होता है उसका रुझान उसी ओर होता है तथा चेष्टाएँ भी उसी स्तर की बन जाती हैं। कितने ही पुरुषों में भी नारियों जैसा स्वभाव पाया जाता है तथा कई नारियों की आकृति नारी की होते हुए भी प्रकृति पुरुष जैसी होती है।
यह प्रवृत्ति बढ़ चले तो इसी जन्म में शारीरिक दृष्टि से भी लिंग परिवर्तन हो सकता है जैसा कि समय−समय पर ऐसा परिवर्तन समाचार सुना जाता है। अगले जन्म में लिंग बदल सकता है अथवा मध्य सन्तुलन होने से नपुँसक जैसी स्थिति बन सकती है।
कुण्डलिनी विज्ञान में मूलाधार को योनि और सहस्रार को लिंग कहा गया है। इन दोनों संयोग साधना को कामकला के रूप में निरूपित किया गया है। इसका वर्णन कतिपय स्थलों पर ऐसा प्रतीत होती है मानो यह कोई काम सेवन की चर्चा की जा रही है,पर बात ऐसी नहीं है।
वर्णनों में काम क्रीड़ा एवं श्रृंगारिकता का काव्यमय वर्णन हो किया गया है, पर क्रिश्स प्रसंग में वैसा कुछ नहीं है। तन्त्र ग्रन्थों के उलटबांसियों की तरह ‘मैथुन’ को भी तन्त्र साधना में सम्मिलित किया गया है। यह वर्णन अलंकारिक है तथा सूक्ष्म रूप से दो मूल सत्ताओं के संयोग का संकेत देता है। शारीरिक रति कर्म से इसका सम्बन्ध किसी प्रकार नहीं जोड़ा जा सकता हैं।
कुण्डलिनी महाशक्ति मूलाधार में शिव लिंग के साथ प्रसुप्त सर्पिणी की भाँति पड़ी रहती है। जागरण के उपरान्त वह मलमूत्रों से युक्त निकृष्ट स्थान से उठाकर मस्तिष्क के सर्वोच्च स्थान पर जा विराजती है।
छोटा-सा शिवलिंग मस्तिष्क में कैलाश पर्वत बन जाता है तथा छोटे से कुण्ड को मानसरोवर का रूप धारण करने का सुअवसर मिल जाता है। मूलाधार स्थित प्रसुप्त सर्पिणी जागृत होकर शिवकंठ से जा लिपटती है तथा शेषनाग के पराक्रमी रूप में दृष्टिगोचर होती है। यह कुण्डलिनी जागरण की परिणति है।
सहस्रार को कल्पवृक्ष, स्वर्गलोक, अक्षय वट वृक्ष आदि के रूप में दिव्य वरदान देने वाला कहा गया है। यह सब उपमाएँ ब्रह्मरन्ध्र में निवास करने वाले ब्रह्म बीज के लिए प्रयुक्त की गयी हैं, जो अपनी अविकसित अवस्था में मात्र मन, बुद्धि के छोटे−मोटे प्रयोजनों को पूरा करता है पर जब जागरण की स्थिति में पहुँचता है तो दिव्य सामर्थ्य सम्पन्न बन जाता है।
आन्तरिक काम शक्ति को योग ग्रन्थों में महाशक्ति महाकाली के रूप में वर्णन किया गया है। एकाकी नर−नारी भौतिक जीवन में अस्त−व्यस्त रहते हैं।
आन्तरिक जीवन में उभयपक्षीय विद्युत का समन्वय न होने से सर्वत्र नीरस नीरवता ही दिखायी पड़ती है, इसे दूर करके समग्र समर्थता एवं प्रफुल्लता उत्पन्न करने के लिए कुण्डलिनी साधना की जाती है।
साधना विज्ञान में कुण्डलिनी साधना को ही अलंकारिक रूप में कामक्रीड़ा के शब्दों में व्यक्त किया गया है। योनि, लिंग, काम बीज, रज, वीर्य, संयोग आदि प्रयुक्त किया गये शब्दों में उसी अंतःशक्ति के जागरण की विधि−व्यवस्था सन्निहित है। सम्बन्धित उल्लेख अनेकों स्थानों पर आता है–
तत्र स्थितो महालिंग स्वयं भुः सर्वदा सुखी। अधोमुखः क्रियावाँक्ष्य काम बीजेन न चलितः॥ –कालीकुलामृत
वहाँ, ब्रह्मरन्ध्र में वही महालिंग अवस्थित है। वह स्वयंभू और सुख स्वरूप है। इसका मुख नीचे की ओर है। यह निरन्तर क्रियाशील है। काम−बीज द्वारा चालित है।
आत्मसंस्थंशिवं त्यक्त्वा बहिः सथंयः समर्चयेत्। हस्तस्थं पिण्डमुत्सृज् भ्रमते जीविताशया॥
आत्मलिंगार्चन कुर्यादनाल सयं दिने दिने। तस्यस्यात्सकला सिद्धिनाँत्र कार्याविचरण॥ – शिवसंहिता
अपने शरीर में अवस्थित शिव को त्याग कर जो बाहर−बाहर पूजते फिरते हैं वे हाथ के भोजन को छोड़ की इधर−इधर से प्राप्त करने के लिए भटकने वाले लोगों में से हैं।
आलस्य त्यागकर आत्मलिंग– शिव की पूजा करें इसी से समस्त सफलताएँ मिलती हैं।
आधाराख्यों गुदास्थाने पंकजंच चतुर्दलम्। तन्मध्यों प्रोच्यते योनिः कामाख्या सिद्ध वंदिता॥ –गौरक्षा पद्धति
गुदा स्थान में जो चतुर्दल कमल सिख्यात है उसके मध्य में त्रिकोणाकार योनि है जिसकी वन्दना समस्त सिद्ध जन करते हैं। यही पंचाशत वर्ण से बनी हुई कामख्या पीठ कहलाती है।
यत्समाधौ परं ज्योतिरनन्तं विश्वतो मुखम्। तिस्मन दृष्टे महायोग यातायातात्र विन्दते॥ – गौरक्षा पद्धति
इसी त्रिकोण विषय समाधि में अनन्त विश्व में व्याप्त होने वाली परम ज्योति प्रकट होती है वही कालाग्नि रूप है। जब योगी ध्यान, धारण, समाधि द्वारा उक्त ज्योति देखने लगता है तब उसका जन्म−मरण नहीं होता अर्थात् जीवन मुक्त हो जाता है।
मूलाधार स्थित कुण्डलिनी रूपी योनि और सहस्राररूपी लिंग का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। दोनों जब एकाकार हो जाते हैं तो दिव्य आदान−प्रदान आरम्भ हो जाता है। आत्मबल समुन्नत होता चला जाता है।
उनके सम्बन्ध विच्छेद होने पर मनुष्य दीन, हीन, दुर्बल, असहाय, असमर्थ एवं असफल जीवन जीता है। कुण्डलिनी रूपी योनि और सहस्रार रूपी लिंग का संयोग मनुष्य की आन्तरिक अपूर्णता को दूर करता तथा परिपूर्ण बनाता है। साधना का उद्देश्य यही है। इसी को शिव शक्ति का संयोग तथा आत्मा का परमात्मा से मिलन कहते हैं।
कुण्डलिनी शक्ति का एक भोंड़ा उभार कामुकता के रूप में देखा जाता है। सामान्यतया उसका उभार इन्द्रिय मनोरंजन बनकर समाप्त हो जाता है। जमीन पर फैले हुए पानी का भाप ऐसे ही उड़ती और बिखरती भटकती रहती है, पर यदि भोजन पकाने से लेकर रेल का इंजन चलाने जैसे असंख्यों उपयोगी काम लिये जा सकते हैं।
काम शक्ति के उच्चस्तरीय सृजनात्मक प्रयोजन अनेकों हैं। कलात्मक गतिविधियों में−काव्य जैसी कल्पना संम्वेदनाओं में, दया, करुणा एवं उदार आत्मीयता को साकार बनाने वाली सेवा साधना में, एकाग्र तन्मयता से होने वाले शोध प्रयत्नों में तथा आध्यात्मिक क्षेत्र से उद्भूत श्रद्धाभक्ति में उसे नियोजित किया जा सकता है। कुण्डलिनी जागरण में यही प्रक्रिया अपनायी जाती तथा कामबीज का ज्ञानबीज में उन्नयन किया जाता है।
काम की इच्छा एक आध्यात्मिक भूख है जिसे निरोध अथवा दमन द्वारा मिटाया नहीं जा सकता। ऐसा करने पर वह और भी उग्र होती है। बहते हुए पानी में प्रवाह को रोकने से वह धक्का मारने की नयी सामर्थ्य उत्पन्न करता है। बन्दूक की उड़ती हुई गोली को रोकने पर गहरा आघात पहुँचता है।
कामशक्ति को बलपूर्वक रोकने से अनेकों प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक उपद्रव खड़े होते हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान के प्रणेता फ्रायड से लेकर आधुनिक मनोविज्ञानियों तक सभी ने इस तथ्य का समर्थन, प्रतिपादन अपने−अपने ढंग से किया है तथा सृजनात्मक प्रयोजनों से उसे नियोजित करने का परामर्श दिया है। दमन की अपेक्षा आकाँक्षा एवं अभिरुचि का प्रवाह मोड़ने में विशेष कठिनाई नहीं उत्पन्न होती। ब्रह्मचर्य का वैज्ञानिक स्वरूप यही है कि कामबीज का उन्नयन किया जाय, ज्ञान बीज में परिवर्तित किया जाय।
प्रचलित मान्यता के अनुसार जननेन्द्रियों को काम−वासना एवं रति प्रवृत्ति के लिए उत्तरदायी माना जाता है, पर वैज्ञानिक गहन अन्वेषण से यह तथ्य सामने आता है कि नर−नारी के प्रजनन केंद्रों नाभि के सीध में पड़ता है।
हैनरी आस्ले की पुस्तक नोट्स आन फिजियोलॉजी में वर्णन है कि नर−नारियों के प्रजनन अंगों की उत्तेजना का नियन्त्रण मेरु दण्ड का ‘लम्बर रीजन’ ( निचले क्षेत्र) में स्थित केन्द्रों से होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि कामोत्तेजना के प्रकटीकरण का जननेन्द्रिय मात्र उपकरण है।
उसका उद्गम तथा उद्भव केन्द्र सुषुम्ना संस्थान में होने से वह कुण्डलिनी की ही एक लहर सिद्ध होती है जिसका प्रवार जननेन्द्रिय की ओर से उच्च केन्द्रों की ओर मोड़ देने की प्रक्रिया ही कुण्डलिनी साधना में प्रयुक्त होती है।
काम का सामान्य अर्थ रतिकर्म समझा जाता है, पर परम प्रयोजनों में उसका अर्थ विनोद, उल्लास, आनन्द माना जाता है। यह उच्चस्तरीय रसानुभूति परस्पर दो परक तत्वों के मिलन द्वारा उत्पन्न होती है। प्राण तत्व और रयि के मिलने से सृष्टि के प्राणियों का उत्पादन होता है।
प्रकृति पुरुष की तरह नर और नारी भी परस्पर पूरक भूमिका निभाते हैं। मानवी सत्ता में भी ऐसी दो पूरक सत्ताएँ काम करती हैं जिन्हें नर और नारी का प्रतिनिधि मानते हैं। नारी सत्ता मूलाधार स्थित कुण्डलिनी तथा पर तत्व सहस्रार स्थित परब्रह्म है। अथर्ववेद में कामकला के अवतरण से दोनों के संयोग की प्रार्थना की गयी है–
यास्ते शिवस्तन्वः काम भद्रायाभिः सत्यं भवति यद्वणीषे ताभिष्ट्वभस्माँ अभि संविशस्वान्मत्रपापीरपवेशया धियः।
है परमेश्वर तेरा काम रूप भी श्रेष्ठ और कल्याण कारक है। उसका चयन असत्य नहीं है। आप काम रूप से हमारे भीतर प्रवेश करें और पाप बुद्धि से छुड़ाकर हमें निष्पाप उल्लास की ओर ले चलें?
ऐसी स्पष्ट प्रार्थना ऋषि गण क्षुद्र इन्द्रिय काम सेवन के लिए नहीं कर सकते। यह कुण्डलिनी महाशक्ति के जागरण के लिए प्रार्थना की गयी है। आत्मिक काम सेवन की कुण्डलिनी जागरण है। शारीरिक काम सेवन की तुलना में आत्मिक काम सेवन असंख्यों गुना अधिक आनन्ददायक है।
काम क्रीड़ा को विषयानन्द और आत्म रति को ब्रह्मानन्द कहा गया है। विषयानन्द की तुलना में ब्रह्मानंद का आनन्द और प्रतिफल कई गुना अधिक है। नर−नारी के शारीरिक संयोग से क्षणिक इन्द्रिय तृप्ति होती तथा सन्तानोपलब्धि होती है। आत्मिक संयोग प्रचण्ड आत्मबल और प्रज्ञा को उत्पन्न करता है।
शिव पार्वती के विवाह का प्रतिफल दो पुत्रों के रूप में उपलब्ध हुआ। एक का नाम गणेश दूसरे का कार्तिकेय। गणेश को प्रज्ञा का देवता माना गया है तथा कार्तिकेय को शक्ति का। दुर्दान्त दस्तु असुरों को परास्त करने के लिए कार्तिकेय का अवतरण हुआ था। उनके प्रचण्ड पराक्रम ने संत्रस्त देव समाज का परित्राण किया।
गणेश ने मनुष्य को सद्ज्ञान का अनुदान देकर उसे सृष्टि का मुकुट मणि बनाया। दोनों ब्रह्म कुमार शिव−शक्ति के समन्वय के प्रतिफल हैं। शक्ति कुण्डलिनी तथा शिव सहस्रार कहलाता है, दोनों का संयोग कुण्डलिनी जागरण के रूप में जाना जाता है। यह पुण्य प्रक्रिया सम्पन्न होने से अंतरंग ऋतम्भरा प्रज्ञा से और बहिरंग प्रखरता से भर जाता है। आत्मिक प्रगति का मार्ग उन्हीं दो के सहारे पूरा होता है।
अस्तु स्थूल काम सेवन से विरत होकर आत्म रति द्वारा उपरोक्त दिव्य उपलब्धियों को करतलगत कर सकना कुण्डलिनी साधना के माध्यम से सम्भव है। इस साधना में शारीरिक ब्रह्मचर्य की आवश्यकता पर अत्याधिक जोर दिया गया है तथा वासनात्मक मनोविचारों से बचने का निर्देश दिया गया है।
भगवान शंकर द्वारा अपने तृतीय नेत्र−विवेक द्वारा स्थूल काम तत्व की भस्म कर देना और उसके सूक्ष्म शरीर को अजर−अमर बना देना। कामबीज का ज्ञानबीज में परिवर्तन का अलंकारिक वर्णन है। कुण्डलिनी साधना द्वारा उन्नयन की यह प्रक्रिया सम्पन्न कर लेना एक प्रबल आध्यात्मिक पुरुषार्थ माना जाता है।
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