Wednesday, 8 June 2016

॥ मीरा चरित ॥ (4)


क्रमशः से आगे .............
 महल के परकोटे में लगी फुलवारी के मध्य गिरधर गोपाल के लिए मन्दिर बन कर दो महीनों में तैयार हो गया । धूमधाम से गिरधर गोपाल का गृह प्रवेश और विधिपूर्वक प्राण-प्रतिष्ठा हुईं । मन्दिर का नाम रखा गया "श्याम कुन्ज"। अब मीरा का अधिकतर समय श्याम कुन्ज में ही बीतने लगा ।
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 ऐसे ही धीरेधीरे समय बीतने लगा ।मीरा पूजा करने के पश्चात् भी श्याम कुन्ज में ही बैठे बैठे.......... सुनी और पढ़ी हुई लीलाओं के चिन्तन में प्रायः खो जाती ।
 वर्षा के दिन थे ।चारों ओर हरितिमा छायी हुई थीं ।ऊपर गगन में मेघ उमड़ घुमड़ कर आ रहे थे ।आँखें मूँदे हुये मीरा गिरधर के सम्मुख बैठी है । बंद नयनों के समक्ष उमड़ती हुई यमुना के तट पर मीरा हाथ से भरी हुई मटकी को थामें बैठी है । यमुना के जल में श्याम सुंदर की परछाई देख वह पलक झपकाना भूल गई ।यह रूप -ये कारे कजरारे दीर्घ नेत्र .......... । मटकी हाथ से छूट गई और उसके साथ न जाने वह भी कैसे जल में जा गिरी । उसे लगा कोई जल में कूद गया और फिर दो सशक्त भुजाओं ने उसे ऊपर उठा लिया और घाट की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मुस्कुरा दिया । वह यह निर्णय नहीं कर पाई कि कौन अधिक मारक है - दृष्टि याँ मुस्कान ? निर्णय कैसे हो भी कैसे ? बुद्धि तो लोप हो गई, लज्जा ने देह को जड़ कर दिया और मन -? मन तो बैरी बन उनकी आँखों में जा समाया था ।

 उसे शिला के सहारे घाट पर बिठाकर वह मुस्कुराते हुए जल से उसका घड़ा निकाल लाये । हंसते हुये अपनत्व से कितने ही प्रश्न पूछ डाले उन्होंने ब्रज भाषा में ।
अमृत सी वाणी वातावरण में रस सी घोलती �प्रतीत हुईं ।

"थोड़ा विश्राम कर ले, फिर मैं तेरो घड़ो उठवाय दूँगो । कहा नाम है री तेरो ? बोलेगी नाय ? मो पै रूठी है क्या ? भूख लगी है का ? तेरी मैया ने कछु खवायो नाय ? ले , मो पै फल है ।खावेगी ?"
उन्होंने फट से बड़ा सा अमरूद और थोड़े जामुन निकाल कर मेरे हाथ पर धर दिये - "ले खा ।"

 मैं क्या कहती , आँखों से दो आँसू ढुलक पड़े । लज्जा ने जैसे वाणी को बाँध लिया था ।
" कहा नाम है तेरो ?"
"मी............रा" बहुत खींच कर बस इतना ही कह पाई ।
वे खिलखिला कर हँस पड़े ।" कितना मधुर स्वर है तेरो री ।"
 "श्याम सुंदर ! कहाँ गये प्राणाधार ! " वह एकाएक चीख उठी ।समीप ही फुलवारी से चम्पा और चमेली दौड़ी आई और देखा मीरा अतिश�य व्या�कुल थीं और आँखों से आँसू झर रहे थे ।दोनों ने मिल कर शैय्या बिछाई और उस पर मीरा को यत्न से सुला दिया ।
सांयकाल तक जाकर मीरा की स्थिति कुछ सुधरी तो वह तानपुरा ले गिरधर के सामने जा बैठी ।फि�र ह्रदय के उदगार �प्रथम �बार पद के रूप में प्रसरित हो उठे ............
मेहा बरसबों करे रे ,
आज तो रमैया म्हाँरे घरे रे ।
नान्हीं �नान्हीं बूंद मेघघन बरसे,
सूखा सरवर भरे रे ॥
घणा दिनाँ सूँ प्रीतम पायो,
बिछुड़न को मोहि डर रे ।
मीरा कहे अति नेह जुड़ाओ,
मैं लियो पुरबलो वर रे ॥
 पद पूरा हुआ तो मीरा का ह्रदय भी जैसे कुछ हल्का हो गया । पथ पाकर जैसे जल दौड़ पड़ता है वैसे ही मीरा की भाव सरिता भी शब्दों में ढलकर पदों के रूप में उद्धाम बह निकली 

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