एक समय की बात है। गंगा के किनारे एक आश्रम में गुरु जी के पास कुछ शिष्यगण बैठे हुए कुछ धार्मिक स्थलों की चर्चा कर रहे थे। एक शिष्य बोला गुरु जी अब की बार गर्मियों में गंगोत्री, यमनोत्री की यात्रा हमें आपके साथ करनी है। आपके साथ यात्रा का कुछ अलग ही आनंद है। दर्शन के साथ-साथ हर चीज का महत्व भी जीवंत हो जाता है। तभी दूसरा शिष्य कहने लगा, गुरु जी आप हमेशा कहते हैं कि ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, वो घट-घट में है, आपमें व मुझमें भी ईश्वर है। गंगा तो यहां भी बह रही है, फिर क्यों गंगोत्री, यमनोत्री जाएं और 15 दिन खराब करें। गुरु जी एक दम शांत हो गए फिर कुछ देर के बाद बोले -जमीन में पानी तो सब जगह है ना, फिर हमें जब प्यास लगे, जमीन से पानी मिल ही जाएगा तो हमें कुएं, तालाब, बावड़ी बनाने की क्या जरूरत है।
कुछ लोग एक साथ बोले, ये कैसे संभव है। जब हमें प्यास लगेगी तब ही कुंआ खोदने में कैसी समझदारी है। गुरु जी बोले बस यही तुम्हारे प्रश्न, तुम्हारी जिज्ञासा का उत्तर है। पृथ्वी में हर जगह पानी होने के बावजूद जहां वह प्रकट है या कर लिया गया है, आप वहीं तो प्यास बुझा पाते हैं। इसी तरह ईश्वर जो सूक्ष्म शक्ति है, घट-घट में व्याप्त है, ये तीर्थ स्थल, कुंए और जलाशयों की भांति, उस सूक्ष्म शक्ति के प्रकट स्थल हैं।
जहां किसी महान आत्मा के तप से, श्रम से, उसकी त्रिकालदर्शी सोच से वो सूक्ष्म-शक्ति इन स्थानों पर प्रकट हुई और प्रकृति के विराट आंचल में समा गई। जहां आज भी जब हमें अपनी आत्मशक्ति की जरूरत होती है तो इन स्थलों पर जाकर अपनी विलीन आत्म-शक्ति को प्राप्त करते हैं। दूसरे शब्दों में हमारी इच्छा शक्ति को यहां आत्मशक्ति मिलती है और हमें प्यास लगने पर कुंआ खोदने की जरूरत नहीं होती।
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