विज्ञान के इस युग में महात्माओं का आकाश-गमन एवं सिद्ध संतों का आसन-उत्थान व्यापार कुछ विचित्र-विलक्षण-सा लगता और कपोल-कल्पित जैसा प्रतीत होता है।
फिर भी यह सत्य है कि ऐसा योग-विज्ञान में एकदम असंभव भी नहीं, किन्तु भौतिक विज्ञान के गले यह तथ्य अब तक नहीं उत्तर सका कि आखिर यह संभव होता किस भाँति है।
उल्लेखनीय है कि भौतिक विज्ञान अपने पदार्थवादी सिद्धान्तों पर आधारित है और उन्हीं सब को सत्य स्वीकारता है, जो इन सिद्धान्तों की कसौटी में खरे सिद्ध होते हैं।
आकाश-गमन के संबंध में उसका एक ही असमंजस और तर्क है कि कोई भी वस्तु बिना किसी बल के सहारे गुरुत्वाकर्षण शक्ति के विरुद्ध ऊपर कैसे उठ सकती है?
पदार्थ विज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाय, तो उक्त दलील में काफी दमखम ‘नजर’ आता है। भू-उपग्रह और हवाई जहाज ऊपर उठते और उड़ते सिर्फ इसलिए दृष्टिगोचर होते हैं कि उनके साथ पदार्थपरक एक विशेष सामर्थ्य जुड़ी रहती और हर क्षण काम करती रहती है।
जब कभी यह क्षमता चुकती और खड़खड़ाती है, तो भयंकर दुर्घटनाएँ घटती नजर आती हैं और पल भर के भीतर विशाल कलेवर वाले यान और उपग्रह धूल में मिलते दिखाई पड़ते हैं। विज्ञान का यह उपरोक्त मत भी तर्क सम्मत जान पड़ता है।
तो क्या योग विज्ञान के उपरोक्त दावे को झुठला दिया जाय और यह मान लिया जाय कि यह सब भ्रम-जंजाल में डालने वाले रंगीन सपने हैं? नहीं, इस सीमा तक शंका करने की आवश्यकता नहीं है।
विज्ञान द्वारा ही इसे भी साबित किया जा सकता है कि ऐसा संभव है। हम प्रतिदिन आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को देखते हैं। वे डैने हिलाते चलते हैं और बड़ी आसानी से नभ में विचरते दृश्यमान होते हैं। उन्हें जिस रफ्तार से जिधर जाना होता है उसी गति से उनके पर भी फड़कते रहते हैं।
इस प्रक्रिया में वे एक प्रकार से गुरुत्वाकर्षण शक्ति को निष्फल-निष्क्रिय स्तर का बना देते हैं, जिससे उनके मार्ग में इस बल का कोई गतिरोध उत्पन्न नहीं होता। जब नभचरों जैसे सर्वथा निरीह जीवों के लिए यह एब संभव है, तो इस सृष्टि के सबसे बुद्धिमान-सामर्थ्यवान प्राणि-मनुष्य के लिए ऐसा क्योंकर असंभव होना चाहिए?
उसके विशाल शक्तिभण्डार में सन्निहित अद्भुत शक्तियों के लिए ऐसा क्यों कर अशक्य होना चाहिए? यह सरल भी है और शक्य भी-विज्ञान के एक सिद्धान्त द्वारा इसे भली-भाँति समझा जा सकता है।
इन दिनों विशालकाय गुब्बारों द्वारा आकाश में सैर करने का आम प्रचलन चल पड़ा है। दिन-दिन यह इतना लोकप्रिय होता जा रहा है कि आये दिन इसकी प्रतिस्पर्धाएँ होती रहती हैं और हर एक, दूसरे द्वारा स्थापित रिकार्ड को प्रायः तोड़ने का प्रयास करता है। इसके लिए तेज रफ्तार प्राप्त करने के वह नित नवीन तकनीक और तरीके खोजता और अपनाता रहता है, पर इसका जो सामान्य सिद्धान्त है, वह यह है कि गुब्बारे के अन्दर की हवा को नर्म कर हल्का बना दिया जाय।
भीतर की गर्मी जितनी और जिस अनुपात में बढ़ती जाती है, उसी अनुपात में हवा हल्की होने और ऊपर उठने लगती है। इस क्रम में एक ऐसा समय आता है, जब जल्द ही गुब्बारा जमीन छोड़ देता है। इसके कुछ क्षण पश्चात् उससे लटकता आदमी और यंत्र भी हवा में तैरने लगते हैं।
हवाई सफर के उपरान्त जब उसे नीचे उतरना होता है, तो उपकरण से निकलती आग की लपटों को धीरे-धीरे घटाता जाता है। गर्मी कम होती है, तो गुब्बारे की हवा का हल्कापन भी कम होने लगता है और अन्ततः व्यक्ति सुरक्षित धरती पर आ जाता है। गुब्बारे से उड़ने और उतरने का यही मोटा सिद्धान्त है।
योग विज्ञान में वर्णित आकाश-गमन पर फिर अकस्मात् अविश्वास क्यों होने लगता है? इस प्रश्न पर सूक्ष्मता से विचार करने पर एक ही बात उजागर होती है-शरीर की स्थूलता और उसका वजन। हर पदार्थ और प्राणी पर पृथ्वी का आकर्षण बल कार्य करता है-यह विज्ञान का अकाट्य नियम है, पर पृथ्वी की इस प्रकृति पर विचार करते समय भौतिक विज्ञान गुब्बारे वाले सिद्धान्त को प्रायः भुला देता है, इसी से इस प्रकार की उलझन पैदा होती और सच्चाई संशय में पड़ती दिखाई देती है।
उक्त सिद्धान्त के अनुसार यदि शरीर को इतना हल्का बना लिया जाय कि वह बल, गुरुत्व बल को निरस्त कर उस पर हावी हो जाय, तो शरीर के लिए ऊपर उठना और हवा में उड़ना संभव है। योग क्रिया द्वारा यही किया जाता है।
इसकी अष्ट सिद्धियों “लघिमा” के दौरान इसी क्रिया को सम्पन्न और सिद्ध करने का विधान है। जो उक्त विद्या में प्रवीण और पारंगत हो जाते हैं, उन योगियों के लिए आसान-उत्थान और आकाश-गमन जैसी बातें अत्यन्त सरल और सहज जान पड़ती है।
समय-समय पर प्रकाश में आने वाले ऐसे प्रसंग भी इसी एक तथ्य की पुष्टि करते हैं कि योग विज्ञान में आने वाले ऐसे उल्लेख सर्वथा काल्पनिक न होकर वास्तविकता के धरातल पर आधारित हैं।
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