Saturday 16 July 2016

ब्रह्म और तन्त्र____3


हिन्दु धर्म में भी तन्त्र और ब्रह्म की एकता कलियुग में अनेकों जगह देखने को मिलती है, उदाहरण स्वरूप 9 नाथ और 84 सिद्ध। अनेकों ही हिन्दू आज भी अपनें घरों में नौ नाथों में से बाबा गोरख नाथ जी को पूजते है। बाबा गोरख नाथ जी की कथा सबसे अलग है।
आज तक जितने भी सिद्ध हुए है, उन सभी में गोरख नाथ जी अजुणी है। बाबा गोरक्ष नाथ जी एक सिद्ध तान्त्रिक होते हुए पूर्ण ब्रह्म-ज्ञानी एवं 36 मंडलों के रहस्यों के जानकार थे। आज भी बाबा गोरक्ष नाथ जी जीवित है।
क्योंकि उन्होने अपनी देह का त्याग नहीं किया। आज तक संसार में 6 चिरंजीवी हुए है, किन्तु यह 6 चिरंजीवियों की जो गणना है। यह द्वापर युग तक की है, किन्तु कलयुग में बाबा गोरख नाथ जी भी चिरंजीवी है।
लगभग 500 साल पूर्व सिखों के 10 वें गुरु – गुरु गोविन्द सिहं जी ने चण्डी साधना की और तान्त्रिक सिद्धि प्राप्त की और एक बार फ़िर से ब्रह्म और तन्त्र की एकता स्थापित हुई।
इसी प्रकार रामकृष्ण-परमहंस भी सिद्ध तान्त्रिक होने के साथ-साथ पूर्ण ब्रह्म-ज्ञानी थे।
रामकृष्ण-परमहंस जी ने माता काली की सिद्धि के साथ ब्रह्म की उपासना की एवं उसे प्राप्त किया। इसी प्रकार वामाखेपा जी ने भी तारा सिद्धि के साथ-साथ ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त किया।
लगभग 2000 वर्ष पूर्व आदि-शंकराचार्य जी का जन्म हुआ और उन्होंने ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त किया, किन्तु एक समय ऐसा भी आया की जब उन्होंने आदि शक्ति के श्रीविद्या रुप की सिद्धि की एवं गरीब ब्राह्मण के झोपड़े में कनक-धारा स्तोत्र के द्वारा सोने के आंवलों कि बारिश हुई।
आज भी यह कनक धारा स्तोत्र और श्रीविद्या का श्रीयन्त्र सम्पूर्ण जगत में विख्यात है। इस प्रकार त्रैता युग से लेकर कलियुग तक का अध्ययन करने पर हमें पता चलता है, कि तन्त्र और ब्रह्म एक दूसरे के पूरक है।
ध्यान-पूर्वक समझने से हमें यह पता चलेगा कि तन्त्र की उपासना सही मायने में प्रकृति की उपासना है और ब्रह्म की उपासना या यों कहें की ‘ॐ’ या ‘सोऽहम्’ साधना उस निराकार परमात्मा की उपासना है, तो कुछ भी गलत नहीं होगा।
तन्त्र ही प्रकृति है। तन्त्र ही माया है। उस परमात्मा को जान लेना ब्रह्म-ज्ञान है और उसकी शक्तियों से हस्तगत होना ही तन्त्र है। उस परमपिता परमात्मा की शक्ति को तान्त्रिकों ने अनेकों नाम दिये है।
जैसे की चण्डी, दुर्गा, आदिशक्ति, दस-महाविद्या, नौ दुर्गा, सात माता, 64 योगनी, आदि। सही मायने में एक विशेष शक्ति को जाग्रत करने के लिऐ, उस परमात्मा के उस विशेष नाम की पूजा ही तन्त्र है।
तान्त्रिक अधिकतर परमात्मा के एक विशेष अंश को अपना इष्ट बना कर, उसकी सिद्धि करते है। उस इष्ट का जो अधिकार क्षेत्र होता है, उतने क्षेत्र में वह तान्त्रिक अपनी सिद्धि के द्वारा हस्तक्षेप कर सकता है।
हिन्दू धर्म में उस परमात्मा के अंश रुप में 33 करोड़ देवी-देवता है। इन सभी के अपने-अपने अधिकार क्षेत्र है। जैसे कि माँ सरस्वति विद्या की देवी है। अगर कोई विद्या क्षेत्र कि सिद्धि करता है, तो उसे सभी वेद शास्त्रों का ज्ञान स्वतः ही हो जायेगा।
इस प्रकार अगर कोई लक्ष्मी अर्थात् धन क्षेत्र की सिद्धि करता है, तो उसके पास कभी भी धन की कमी नहीं होगी। काली अर्थात् शक्ति क्षेत्र की साधना करने वाला, शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है। शक्ति क्षेत्र की साधना करने वाले साधक के समक्ष शत्रु टिक नहीं पाते और काल को प्राप्त हो जाते है।
इसी प्रकार सभी देवी-देवताओं का अपना-अपना अधिकार क्षेत्र है। अग्नि का अपना कार्य है, जल का अपना और वायु का अपना। जहाँ ब्रह्म की प्राप्ति के लिए कोई समय सीमा नहीं है, कि वह हमें कब प्राप्त होगा। वहीं तान्त्रिक सिद्धियाँ समय सीमा से बंधी हुई है। ऐसी शक्तियों को प्राप्त करने के लिए योग्य गुरू का होना परम-आवश्यक है।
गुरू का चयन करते वक्त भी ध्यान रखा जाता है, कि गुरू ने जिस-जिस क्षेत्र की शक्तियाँ प्राप्त कर रखी है। वह आप को वही प्रदान कर सकता है या आपको उस क्षेत्र की सिद्धि करा सकता है।
मान लीजिये कि किसी गुरू ने शक्ति क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त कर रखा है। ऐसे गुरू के पास कोई ऐसा शिष्य पहुँच जाता है, जो कि विद्या क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त करना चाहता है, तो शक्ति क्षेत्र का गुरू उस साधक को विद्या प्राप्ति हेतु साधना नहीं करा सकता।
अगर ऐसा गुरू शिष्य बनाने के चक्कर में या अहंकार वश उस शिष्य को साधना कराना भी चाहे, तो भी सिद्धि सम्भव नहीं है। ऐसा गुरू शिष्य का मार्ग निर्देशन तो कर सकता है और वह जानकार है तो प्रारम्भिक पूजा भी प्रारम्भ करा सकता है, और शिष्य को विद्या क्षेत्री गुरू ढूढ़ने का रास्ता बता सकता है।
लेकिन आज के समय में अनेकों ही गुरू एक अधिकार क्षेत्र के अधिकारी होते हुए भी, सभी क्षेत्रों के शिष्यों को दीक्षा देते है, जो की गुरू कि मर्यादा के खिलाफ है। सच्चे गुरू का कर्तव्य है, की वह शिष्य को उसी मन्त्र की दीक्षा दे, जो कि उस को अपने गुरू से प्राप्त हुआ है अथवा जिस मन्त्र से उसके गुरू ने उसको दीक्षित किया है।
मान लीजिये एक शिष्य को उसके गुरू ने गायत्री मंत्र से दीक्षित किया है और उस शिष्य ने अनुष्ठान करते हुए, गायत्री क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त किया है, तो वह शिष्य गुरू बन कर जिस भी शिष्य को दीक्षा देगा, तो वह दीक्षा गायत्री मंत्र के द्वारा ही दी जायेगी और आने वाला नया शिष्य अपनी गुरू की परम्परा को चलायेगा।
अगर गायत्री क्षेत्र का गुरू किसी भी दूसरे क्षेत्र का मंत्र या दीक्षा किसी शिष्य को देता है और वह शिष्य उस क्षेत्र की साधना कराता है, तो उसे कभी भी सफलता नहीं मिलेगी।

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