विश्व-जीवन एक बृहत् यज्ञस्वरूप है । उस यज्ञ के देवता हैं स्वयं भगवान् और प्रकृति है यज्ञदाता । भगवान् हैं शिव और प्रकृति उमा । उमा अपने अंतर में शिव-रूप को धारण करने पर भी प्रत्यक्ष में शिवरूप-विरहित हैं, प्रत्यक्ष में शिव-रूप को पाने के लिये सर्वदा लालायित । यही लालसा है विश्व-जीवन का निगूढ़ अर्थ ।
किंतु किस उपाय से मनोरथ सफल हो ? अपने स्वरूप को पा पुरुषोत्तम के स्वरूप को पाने का क्या उपाय है ? पुरुषोत्तम तक पहुंच पाने का कौन-सा पथ प्रकृति के लिये निर्दिष्ट है ?
आंखों पर अज्ञान का आवरण, चरणों में जड़ता के सहस्र बंधन । स्थूल सत्ता ने मानों अनंत सत् को भी सांत में बांध लिया है, मानों [अनंत सत्] स्वयं भी बंदी हो गया है, स्वयंरचित इस कारागार की खोयी चाभी अब और हाथ नहीं लग रही ।
जड़-प्राणशक्ति के अवश संचार से अनंत, उन्मुक्त, चित्-शक्ति विमूढ़, निलीन, अभिभूत, अचेतन हो गयी है जैसे । अनंत आनंद तुच्छ सुख-दुःख के अधीन प्राकृत चैतन्य बन छद्मवेश में घूमते-घूमते अपने स्वरूप को ही भूल गया है मानों, अब उसे खोज ही नहीं पाता, खोजते-खोजते दुःख के और भी असीम पंक में निमज्जित हो जाता है । सत्य मानों अनृत की द्विधामयी तरंग में डूब गया है । मनसातीत विज्ञानतत्त्व में अनंत सत्य का आधारस्थल है ।
विज्ञानतत्त्व की क्रीड़ा पार्थिव चैतन्य के लिये या तो निषिद्ध है या स्वल्प और विरल, मानो परदे के पीछे के क्षणिक विधुत् का उन्मेष भर हो । यहां सिर्फ सत्य और अनृत के बीच दोलायमान भीरु, खंज, विमूढ़ मानसतत्त्व घूम-फिरकर सत्य को खोजता रहता है, पाकर भी खो देता है, क्षण-भर सत्य के एक पहलू को पकड़ लेने पर दूसरे पहलू को पकड़ने को कोशिश में पहला हाथ से फिसल जाता है ।
मानसतत्त्व बहुत प्रयास करने पर सत्य का आभास या सत्य का भग्नांश पा सकता है, लेकिन सत्य का पूर्ण और यथार्थ ज्योतिर्मय अनन्त रूप उसकी पहुंच के बाहर है । जैसे ज्ञान में वैसे ही कर्म में भी वही विरोध, वही अभाव, वही विफलता । सहज सत्यकर्म के हास्यमय देवनृत्य के बजाय प्राकृत इच्छाशक्ति की शृंखलाबद्ध चेष्टा, सत्य-असत्य, पाप-पुण्य, वैध-अवैध, कर्म-अकर्म-विकर्म के जटिल पाश में वृथा छटपटाया करती है ।
वासनाहीन, वैफल्यहीन, आनंदमय, प्रेममय, ऐक्यरस में मत्त भागवती क्रियाशक्ति की गति मुक्त, अकुंठित, अस्खलित होती है, उसका सहज-स्वाभाविक विश्वमय संचारण प्राकृत इच्छाशक्ति के लिये असंभव है । इस तरह से सांत के अनृत जाल में पड़ी इस पार्थिव प्रकृति के लिये उस अनंत सत्, उस अनंत चित्-शक्ति, उस अनंत आनंद-चैतन्य को प्राप्त करने की भला क्या आशा है, उपाय ही क्या है ?
यज्ञ ही है उपाय । यज्ञ का अर्थ है आत्म-समर्पण, आत्म-बलिदान । जो कुछ तुम हो, जो कुछ तुम्हारा है, जो कुछ भविष्य में निज चेष्टा से या देवकृपा से बन सकते हो, जो कुछ कर्मप्रवाह में अर्जन या संचय कर सको, सब उसी अमृतमय को लक्ष्य कर हवि रूप में तप:-अग्नि में डालो ।
अल्प सर्वस्व का दान करने से अनंत सर्वस्व प्राप्त करोगे । यज्ञ में योग निहित है । योग में आनन्त्य, अमरत्व और परमतत्त्व के परमानन्द की प्राप्ति विहित है । यही है प्रकृति के उद्धार का पथ ।
जगती देवी इस रहस्य को जानती हैं । अतएव उस विपुल आशा से वह अनिद्रित, अशांत, दिन-रात, मास पर मास, वर्ष पर वर्ष, युग पर युग यज्ञ ही करती जा रही हैं ।
हमारे सभी कर्म, सभी प्रयास, समस्त ज्ञान, समस्त द्वेष, समस्त भ्रम, सुख-दुःख हैं उसी विश्व-यज्ञ के अंगमात्र । जगती देवी ने स्थूल की सृष्टि कर विश्वमय अग्नि के जठर में उसे डाल दिया है, बदले में पाया है प्राण-शक्ति का संचार जीव में, उदभिद में, धातु में ।
किंतु प्राण-शक्ति प्रकृति का स्वरूप नहीं, प्राणमय पुरुषोत्तम नहीं । जगती देवी ने जगत् के सभी प्राणियों को और उनके सारे प्रयासों को वैश्वानर अग्नि के क्षुधित जठर में डाल दिया है, बदले में पाया है मन:शक्ति का संचार पशु में, पक्षी में, मानव में । पर मन:शक्ति भी प्रकृति का स्परूप नहीं, मनोमय पुरुष पुरुषोत्तम नहीं ।
जगती देवी ने जगत् के सभी प्रेम-द्वेष, हर्ष-दुःख में, सुख-वेदना, पाप-पुण्य, ज्ञान- विज्ञान में, चेष्टा-अविष्कार, मति और मनीषा-बुद्धि को विश्व-मानव अग्नि के अनन्त जठर में डाल दिया है, बदले में पायेंगी विज्ञान-तत्त्व का उन्मुक्त द्वार , अनन्त सत्य का पथ, विश्व-पर्वत के आनन्द-शिखर पर आरोहण, अनन्तधाम में अनन्त पुरुषोत्तम का आलिंगन ।
पायेंगी, अभी तक पाया नहीं है । क्षीण आशा की रेखा-भर काल-गगन में दिखायी दी है । अतएव अनवरत यज्ञ चल रहा है, देवी जो कुछ भी उत्यादित कर पायी है उसी की बलि देती जा रही हैं । वे जानती हैं कि सभी के अंदर वही लीलामय अकुण्ठित मन से लीला का रसास्वादन कर रहे हैं, यज्ञ मानकर सभी चेष्टाओं, सभी तपस्याओं को ग्रहण कर रहे हैं ।
वे ही विश्व-यज्ञ को धीरे-धीरे, घुमा-फिरा, सर्पिल गति से, उत्थान-पतन द्वारा, ज्ञान में, विज्ञान में, जीवन में, मरण में निर्दिष्ट पथ से निर्दिष्ट गंतव्य धाम की ओर सर्वदा ही आगे ही आगे बढ़ाते जा रहे हैं । उन्हीं के भरोसे प्रकृति देवी तो हैं निर्भीक, अकुण्ठित और निश्चिन्त ।
सर्वत्र और सर्वदा ही भागवती प्रेरणा को समझ सर्जन और हनन, उत्पादन और विनाश, ज्ञान-अज्ञान, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, पक्व-अपक्व, कुत्सित, सुन्दर, पवित्र, अपवित्र जिसे भी हाथ में पाती हैं, सभी का उसी बृहत् चिरंतन होमकुण्ड में निक्षेपण कर रही हैं ।
स्थूल है सूक्ष्म यज्ञ की हवि:, जीव है यज्ञ का बद्ध पशु । यज्ञ के मन-प्राण-तन रूपी त्रिबन्धनयुक्त यूपकाष्ट से जीव को बांधे रख प्रकृति अहरह उसकी बलि चढ़ाती जा रही है । मन के बन्धन हैं अज्ञान, प्राण के बंधन हैं दुःख, कामना और विरोध और देह का बंधन है मृत्यु ।
प्रकृति का उपाय तो निर्दिष्ट हुआ किंतु इस बद्ध जीव का क्या उपाय हो ? उसका निस्तार न होने से प्रकृति का भी उद्देश्य सिद्ध नहीं होता, इसीलिये उपाय तो अवश्य है लेकिन वह है क्या ? उपाय है यज्ञ, आत्मदान, आत्मबलि । पर प्रकृति के अधीन न हो, स्वयं उठ खड़े हो, यजमान बन सर्वस्व दे देना होगा ।
यही विश्व का निगूढ़ रहस्य है कि पुरुष ही जैसे यज्ञ का देवता है, वैसे ही पुरुष ही यज्ञ का पशु है । जीव ही पशुरूप है । पुरुष ने अपने मन, प्राण और शरीर को बलि-रूप में, यज्ञ के प्रधान उपाय-रूप में, प्रकृति के हाथ समर्पित कर दिया है ।
उनके इस आत्मदान में यह गुप्त उद्देश्य निहित है कि एक दिन चैतन्य प्राप्त कर, प्रकृति को अपने हाथ में ले, प्रकृति को अपनी इच्छा-अनुकूल दासी, प्रणयिनी और यज्ञ को सहधर्मिणी बना वह स्वयं निर्दोष यज्ञ संपन्न करेंगे ।
इसी गुप्त कामना को पूरी करने के लिये हुई है नर की सृष्टि । पुरुषोत्तम नर-मूर्ति में वही लीला करना चाहते हैं । आत्मस्वरूप, अमरत्व, सनातन आनन्द का विचित्र आस्वादन, अनंत ज्ञान, अबाध शक्ति, अनंत प्रेम का भोग नर-देह में, नर-चैतन्य में करना होगा । यह सब आनंद तो पुरुषोत्तम के अपने अंदर है ही, पुरुष अपने अंदर सनातन रूप से सनातन भोग कर रहे हैं ।
किंतु मानव की सृष्टि कर, बहु में एकत्व, सांत में अनंत, बाह्य में आंतरिकता, इंद्रिय में अतीन्द्रिय, पार्थिव में अमर लोकत्व, इस विपरीत रस को ग्रहण करने में वे तत्पर हैं । पहले दोनों के बीच अविद्या द्वारा भेद-भाव का सर्जन कर भोग करने की इच्छा, बाद में अविद्या को विद्या के और विद्या को अविद्या के आलिंगन में बांध एकत्व में द्विधत्व को सुरक्षित रख एक ही आधार में, एक साथ समागम द्वारा दोनों बहनों का पूर्ण भोग करेंगे ।
जागरण के दिनतक हमारे अंदर मन के ऊपर, बुद्धि के उस पार, गुप्त सत्यमय विज्ञानतत्त्व में बैठ, फिर हमारे ही अंदर हृदय के पीछे चित्त का जो गुप्त स्तर है, जहां हृदय-गुहा है, जहां अंतर्निहित गुह्य चैतन्य का समुद्र है, हृदय, मन, प्राण, देह और अहंकार जिस समुद्र की छोटी-छोटी तरंगें हैं, वहीं बैठ वह पुरुष प्रकृति के अंध प्रयास, अंध अन्वेषण, द्वंद्व और प्रतिघात द्वारा ऐक्य स्थापन की चेष्टा का विविध रसास्वादन अनुभव करते हैं । ऊपर सज्ञान भोग है, नीचे अज्ञानपूर्ण भोग, इस प्रकार दोनों एक संग चल रहे हैं ।
किंतु चिरकाल इसी अवस्था में मग्न रहने से उनकी निगूढ़ प्रत्याशा, उनका चरम उद्देश्य सिद्ध नहीं होता । इसीलिये प्रत्येक मनुष्य के जागरण का दिन विहित है । अंतरस्थ देवता एक दिन अवश पुण्यहीन प्राकृत आत्म-बलि त्याग कर सज्ञान समंत्र यज्ञ संपादन करना आरंभ करेंगे; सभी प्राणियों के लिये यह निर्धारित है ।
यही सज्ञान समंत्र यज्ञ है वेदोक्त ”कर्म” । उसका उद्देश्य है द्विविध, विश्वमय बहुत्व में संपूर्णता, जिसे वेद में विश्वदेव्य और वैश्वानरत्व कहा गया है, और उसके साथ एकात्म परम-देवसत्ता में अमरत्व लाभ ।
जब विश्वदेव्य कहता हूं तो समझना चाहिये ये वेदोक्त देवतागण अर्वाचीन, साधारण लोगों के हेय इन्द्र अग्नि, वरुण नामक तुच्छ देवता नहीं, ये हैं भगवान् की ज्योतिर्मयी शक्तिसंपन्न नाना मूर्तियां ।
और यह अमरत्व पुराणोक्त तुच्छ स्वर्ग नहीं, है वैदिक ऋषियों का अभिलषित स्वर्लोक, जन्म-मृत्यु के उस पार परम धाम अनंत लोक का आधार, वेदोक्त अमरत्व, सच्चिदानंदमय अनंत सत्ता और चैतन्य ।
मानव के अंदर देवत्व का जागरण, मानव-आधार में सभी देवताओं के गठन, उन्हीं देवगणों के एकीभूत बहुत्व को अपने में प्रतिष्ठित कर परम देवत्व की सत्ता की ओर चरम आरोहण और उसी जगतबन्धु गोपाल’१ की गोद में आनंद की लीला-यही है वेद में उल्लिखित यज्ञ का उद्देश्य ।
१ वैदिक शब्द । भगवान् का गोपलत्व पुराण की सृष्टि नहीं, यह है वैदिक उपमा |
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