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चलते-चलते दो बात- यदि नीचे के चक्र, माया रूप हैं, जैसा कि कुछ मत या पंथों का मानना है और ऊपर के चक्र असली है तो जो चक्र(लोक) ब्रह्माण्ड में है वे क्या हैं?
चाहे नीचे के चक्र यानि लोक हो या ऊपर के चक्र हो, हैं तो शरीर के अन्दर ही।
जो अण्ड में है, वो पिण्ड में हैं और जो पिण्ड में हैं, वो अण्ड में हैं। यह कहना तो ठीक है किन्तु जब मृत्यु के उपरान्त जब पिण्ड जलकर ख़ाक हो जाएगा तो फिर आत्मा किस चक्र या लोक में वास करेगी।
क्योंकि सारी उम्र तो पिण्ड में अण्ड का आभास करके, पिण्ड के लोकों यानि चक्रो की साधना की है। लेकिन जब पिण्ड खत्म हो जाएगा, तो आत्मा को किस लोक में स्थान मिलेगा, फैसला तो तब ही होगा। क्योंकि मन के सहारे जिन लोको की साधना की थी, वे तो खत्म हो गये।
अब आत्मा के सामने असली लोक अर्थात मण्डल हैं। जिनके देवों की साधना नहीं की, कभी आराधना नहीं की। क्या वे देव इस आत्मा को अपने लोक में स्थान देंगे, कदापि नहीं। मन को जितना मर्जी भरमा लो, शिष्यों को जितना मर्जी बहका लो।
सत्य तो एक दिन खुल कर रहेगा, कि पिण्ड के बाहर जो है, वही सत्य है और पिण्ड के अन्दर जो है वह मिथ्या है। इसलिये कुछ संतों ने जगत को मिथ्या या माया का खेल कहा है।
जब तक सूक्ष्म-शरीर, स्थूल-शरीर से अलग हो कर ब्रह्माण्ड के सत्य लोको या मण्डलों की आराधना, सेवा, भजन, दर्शन नहीं करेगा, तब तक सब बेकार है। सूक्ष्म-शरीर को स्थूल-शरीर से अलग करने का मात्र एक ही विधान है- कुण्डलिनी साधना।
उदाहरण के तौर पर- जिस प्रकार एक छोटा बच्चा खाना पीना, बोलना-चलना, लिखना-पढ़ना आदि का प्रारम्भ तो घर से ही करता है, किन्तु कुछ समय बाद हम उसे उच्च शिक्षा हेतु अच्छे विद्यालय में प्रवेश करा देते हैं।
उसी प्रकार एक साधक के लिये साधना का प्रारम्भ तो शरीर में स्थित मण्डलों से ही होता है, किन्तु जब सूक्ष्म-शरीर, स्थूल-शरीर से अलग हो जाता है, तो ब्रह्माण्ड में स्थित उच्च लोको की साधना करके, पूर्ण ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त करके, जीव आत्मा पूर्ण कैवल्य पद को प्राप्त कर लेती है।
जिस प्रकार हमारे देश में एक अच्छे साधू या नेता की इज्जत की जाती है, उसी प्रकार उस आत्मा का भी, उच्च लोको में वैसा ही सम्मान या आदर किया जाता है।
कुन्डलनी साधना बाहुबल की साधना है। आप के साहस, आप के आत्म-विश्वास और आपकी सहन-शीलता की साधना है।
यदि हम कुण्डलिनी साधक की उपमा दे तो ऐसी होगी, जैसे एक वीर जवान अपने देश की रक्षा के लिये अपना सर्वस्व बलिदान करके सीना ताने, जान हथेली पर लिये खड़ा हो। वहीं एक साधारण साधक की उपमा ध्यान योगी की उपमा, नाम-जप करने वालों की उपमा, मात्र ऐसी है- जैसे एक समाज सुधारक की छवि होती है।
अब आपने फैसला करना है कि, आप को किस रास्ते पर चलना है। हमने जो जाना, जो पाया, जो समझा, वो आपके सामने रख दिया है। शब्दों का कभी अन्त नहीं होता, उदाहरणो की संख्या नहीं होती। समझाने वाले और समझने वाले पर निर्भर करता है कि, वो कितना समझा सकता है, और दूसरा कितना समझ सकता है। सभी बातों को लिख कर नहीं समझाया जा सकता।
रूद्रयामल में कुण्डलिनी-साधकों के लिये एक ‘उदघाटन-कवच’ दिया गया है जिसका श्रद्धा-पूर्वक पाठ करना साधकों के लिये अत्यन्त लाभप्रद माना गया है-
॥ उदघाटन-कवच ॥
मूलाधारे स्थिता देवि, त्रिपुरा चक्र नायिका ।
नृजन्म भीति-नाशार्थं, सावधाना सदाऽस्तु ॥1॥
स्वाधिष्ठानाख्य चक्रस्था, देवी श्रीत्रिपुरेशिनी ।
पशु बुद्धिं नाशयित्वा, सर्वैश्वर्य प्रदाऽस्तु मे ॥2॥
मणिपुरे स्थिता देवी, त्रिपुरेशीति विश्रुता ।
स्त्री जन्म-भीति नाशार्थं, सावधाना सदाऽस्तु ॥3॥
स्वस्तिके संस्थिता देवी, श्रीमत्-त्रिपुर सुन्दरी ।
शोक भीति परित्रस्तं, पातु मामनघं सदा ॥4॥
अनाहताख्या निलया, श्रीमत्-त्रिपुर वासिनी ।
अज्ञान भीतितो रक्षां, विदधातु सदा मम ॥5॥
त्रिपुरा श्रीरिति ख्याता, विशुद्धाख्या स्थल स्थिता ।
जरोद्-भव भयात् पातु, पावनी परमेश्वरी ॥6॥
आज्ञा चक्र स्थिता देवी, त्रिपुरा मालिनी तु या ।
सा मृत्यु भीतितो रक्षां, विदधातु सदा मम ॥7॥
ललाट पदम् संस्थाना, सिद्धा या त्रिपुरादिका ।
सा पातु पुण्य सम्भूतिर्-भीति-संघात् सुरेश्वरी ॥8॥
त्रिपुराम्बेति विख्याता, शिरः पद्मे सु-संस्थिता ।
सा पाप भीतितो रक्षां, विदधातु सदा मम ॥9॥
ये पराम्बा पद स्थान गमने, विघ्न सञ्चयाः ।
तेभ्यो रक्षतु योगेशी, सुन्दरी सकलार्तिहा ॥10॥
कुण्डलिनी जगरण के यों तो अनेकों उपाय हैं, किन्तु बाबा जी द्वारा रचित ये गुरु-स्तोत्र अपने आप में एक अनुभुत प्रयोग है। कुण्डलिनी जगरण के इच्छुक साधक यदि स-स्वर इस स्तोत्र का लगातार पाठ करते हैं तो बहुत ही जल्दी कुण्डलिनी जगरण होने लगेगी और साधकों को कुण्डलिनी जगरण के अनूठे अनुभव होने लगेंगे।
॥ गुरु-स्तोत्र ॥
॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥
दायें गुरु है, बायें गुरु है । आगे गुरु है, पीछे गुरु है ॥
ऊपर गुरु है, नीचे गुरु है । अंदर गुरु है, बाहर गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥1॥
अंड में गुरु है, पिंड में गुरु है । जल में गुरु है, थल में गुरु है ॥
पवन में गुरु है, अनल में गुरु है । नभ में गुरु है, अंतर में गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥2॥
तन में गुरु है, मन में गुरु है । घर में गुरु है, वन में गुरु है ॥
मंत्र में गुरु है, में यंत्र गुरु है । तंत्र में गुरु है, माला में गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥3॥
धूप में गुरु है, दीप में गुरु है । फूल में गुरु है, फल में गुरु है ॥
भोग में गुरु है, पूजा में गुरु है । लोक में गुरु है, परलोक में गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥4॥
जप में गुरु है, तप में गुरु है । हठ में गुरु है, यज्ञ में गुरु है ॥
जोग में गुरु है, में योग गुरु है । ज्ञान में गुरु है, ध्यान में गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥5॥
॥ ॐ तत्सत् ॥
चलते-चलते दो बात- यदि नीचे के चक्र, माया रूप हैं, जैसा कि कुछ मत या पंथों का मानना है और ऊपर के चक्र असली है तो जो चक्र(लोक) ब्रह्माण्ड में है वे क्या हैं?
चाहे नीचे के चक्र यानि लोक हो या ऊपर के चक्र हो, हैं तो शरीर के अन्दर ही।
जो अण्ड में है, वो पिण्ड में हैं और जो पिण्ड में हैं, वो अण्ड में हैं। यह कहना तो ठीक है किन्तु जब मृत्यु के उपरान्त जब पिण्ड जलकर ख़ाक हो जाएगा तो फिर आत्मा किस चक्र या लोक में वास करेगी।
क्योंकि सारी उम्र तो पिण्ड में अण्ड का आभास करके, पिण्ड के लोकों यानि चक्रो की साधना की है। लेकिन जब पिण्ड खत्म हो जाएगा, तो आत्मा को किस लोक में स्थान मिलेगा, फैसला तो तब ही होगा। क्योंकि मन के सहारे जिन लोको की साधना की थी, वे तो खत्म हो गये।
अब आत्मा के सामने असली लोक अर्थात मण्डल हैं। जिनके देवों की साधना नहीं की, कभी आराधना नहीं की। क्या वे देव इस आत्मा को अपने लोक में स्थान देंगे, कदापि नहीं। मन को जितना मर्जी भरमा लो, शिष्यों को जितना मर्जी बहका लो।
सत्य तो एक दिन खुल कर रहेगा, कि पिण्ड के बाहर जो है, वही सत्य है और पिण्ड के अन्दर जो है वह मिथ्या है। इसलिये कुछ संतों ने जगत को मिथ्या या माया का खेल कहा है।
जब तक सूक्ष्म-शरीर, स्थूल-शरीर से अलग हो कर ब्रह्माण्ड के सत्य लोको या मण्डलों की आराधना, सेवा, भजन, दर्शन नहीं करेगा, तब तक सब बेकार है। सूक्ष्म-शरीर को स्थूल-शरीर से अलग करने का मात्र एक ही विधान है- कुण्डलिनी साधना।
उदाहरण के तौर पर- जिस प्रकार एक छोटा बच्चा खाना पीना, बोलना-चलना, लिखना-पढ़ना आदि का प्रारम्भ तो घर से ही करता है, किन्तु कुछ समय बाद हम उसे उच्च शिक्षा हेतु अच्छे विद्यालय में प्रवेश करा देते हैं।
उसी प्रकार एक साधक के लिये साधना का प्रारम्भ तो शरीर में स्थित मण्डलों से ही होता है, किन्तु जब सूक्ष्म-शरीर, स्थूल-शरीर से अलग हो जाता है, तो ब्रह्माण्ड में स्थित उच्च लोको की साधना करके, पूर्ण ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त करके, जीव आत्मा पूर्ण कैवल्य पद को प्राप्त कर लेती है।
जिस प्रकार हमारे देश में एक अच्छे साधू या नेता की इज्जत की जाती है, उसी प्रकार उस आत्मा का भी, उच्च लोको में वैसा ही सम्मान या आदर किया जाता है।
कुन्डलनी साधना बाहुबल की साधना है। आप के साहस, आप के आत्म-विश्वास और आपकी सहन-शीलता की साधना है।
यदि हम कुण्डलिनी साधक की उपमा दे तो ऐसी होगी, जैसे एक वीर जवान अपने देश की रक्षा के लिये अपना सर्वस्व बलिदान करके सीना ताने, जान हथेली पर लिये खड़ा हो। वहीं एक साधारण साधक की उपमा ध्यान योगी की उपमा, नाम-जप करने वालों की उपमा, मात्र ऐसी है- जैसे एक समाज सुधारक की छवि होती है।
अब आपने फैसला करना है कि, आप को किस रास्ते पर चलना है। हमने जो जाना, जो पाया, जो समझा, वो आपके सामने रख दिया है। शब्दों का कभी अन्त नहीं होता, उदाहरणो की संख्या नहीं होती। समझाने वाले और समझने वाले पर निर्भर करता है कि, वो कितना समझा सकता है, और दूसरा कितना समझ सकता है। सभी बातों को लिख कर नहीं समझाया जा सकता।
रूद्रयामल में कुण्डलिनी-साधकों के लिये एक ‘उदघाटन-कवच’ दिया गया है जिसका श्रद्धा-पूर्वक पाठ करना साधकों के लिये अत्यन्त लाभप्रद माना गया है-
॥ उदघाटन-कवच ॥
मूलाधारे स्थिता देवि, त्रिपुरा चक्र नायिका ।
नृजन्म भीति-नाशार्थं, सावधाना सदाऽस्तु ॥1॥
स्वाधिष्ठानाख्य चक्रस्था, देवी श्रीत्रिपुरेशिनी ।
पशु बुद्धिं नाशयित्वा, सर्वैश्वर्य प्रदाऽस्तु मे ॥2॥
मणिपुरे स्थिता देवी, त्रिपुरेशीति विश्रुता ।
स्त्री जन्म-भीति नाशार्थं, सावधाना सदाऽस्तु ॥3॥
स्वस्तिके संस्थिता देवी, श्रीमत्-त्रिपुर सुन्दरी ।
शोक भीति परित्रस्तं, पातु मामनघं सदा ॥4॥
अनाहताख्या निलया, श्रीमत्-त्रिपुर वासिनी ।
अज्ञान भीतितो रक्षां, विदधातु सदा मम ॥5॥
त्रिपुरा श्रीरिति ख्याता, विशुद्धाख्या स्थल स्थिता ।
जरोद्-भव भयात् पातु, पावनी परमेश्वरी ॥6॥
आज्ञा चक्र स्थिता देवी, त्रिपुरा मालिनी तु या ।
सा मृत्यु भीतितो रक्षां, विदधातु सदा मम ॥7॥
ललाट पदम् संस्थाना, सिद्धा या त्रिपुरादिका ।
सा पातु पुण्य सम्भूतिर्-भीति-संघात् सुरेश्वरी ॥8॥
त्रिपुराम्बेति विख्याता, शिरः पद्मे सु-संस्थिता ।
सा पाप भीतितो रक्षां, विदधातु सदा मम ॥9॥
ये पराम्बा पद स्थान गमने, विघ्न सञ्चयाः ।
तेभ्यो रक्षतु योगेशी, सुन्दरी सकलार्तिहा ॥10॥
कुण्डलिनी जगरण के यों तो अनेकों उपाय हैं, किन्तु बाबा जी द्वारा रचित ये गुरु-स्तोत्र अपने आप में एक अनुभुत प्रयोग है। कुण्डलिनी जगरण के इच्छुक साधक यदि स-स्वर इस स्तोत्र का लगातार पाठ करते हैं तो बहुत ही जल्दी कुण्डलिनी जगरण होने लगेगी और साधकों को कुण्डलिनी जगरण के अनूठे अनुभव होने लगेंगे।
॥ गुरु-स्तोत्र ॥
॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥
दायें गुरु है, बायें गुरु है । आगे गुरु है, पीछे गुरु है ॥
ऊपर गुरु है, नीचे गुरु है । अंदर गुरु है, बाहर गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥1॥
अंड में गुरु है, पिंड में गुरु है । जल में गुरु है, थल में गुरु है ॥
पवन में गुरु है, अनल में गुरु है । नभ में गुरु है, अंतर में गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥2॥
तन में गुरु है, मन में गुरु है । घर में गुरु है, वन में गुरु है ॥
मंत्र में गुरु है, में यंत्र गुरु है । तंत्र में गुरु है, माला में गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥3॥
धूप में गुरु है, दीप में गुरु है । फूल में गुरु है, फल में गुरु है ॥
भोग में गुरु है, पूजा में गुरु है । लोक में गुरु है, परलोक में गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥4॥
जप में गुरु है, तप में गुरु है । हठ में गुरु है, यज्ञ में गुरु है ॥
जोग में गुरु है, में योग गुरु है । ज्ञान में गुरु है, ध्यान में गुरु है ॥
ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥ ॐ गुरु ॐ ॐ गुरु ॐ ॥5॥
॥ ॐ तत्सत् ॥
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