Saturday 16 July 2016

कबीर साहिब ने अपनी निम्नलिखित प्रसिद्ध रचना ‘कर नैनों दीदार महल में प्यारा है’ में सब कमलों का वर्णन विस्तार पूर्वक इस प्रकार किया है-


कर नैनो दीदार महल में प्यारा है ॥टेक॥
काम क्रोध मद लोभ बिसारो, सील संतोष छिमा सत धारो ।
मद्य मांस मिथ्या तजि डारो, हो ज्ञान घोड़े असवार, भरम से न्यारा है ॥1॥
धोती नेती वस्ती पाओ, आसन पद्म जुगत से लाओ ।
कुंभक कर रेचक करवाओ, पहिले मूल सुधार कारज हो सारा है ॥2॥
मूल कँवल दल चतुर बखानो, कलिंग जाप लाल रंग मानो ।
देव गनेस तह रोपा थानो, रिध सिध चँवर ढुलारा है ॥3॥
स्वाद चक्र षट्दल बिस्तारो, ब्रह्मा सावित्री रूप निहारो ।
उलटि नागिनी का सिर मारो, तहां शब्द ओंकारा है ॥4॥
नाभी अष्टकँवल दल साजा, सेत सिंहासन बिस्नु बिराजा ।
हिरिंग जाप तासु मुख गाजा, लछमी सिव आधारा है ॥5॥
द्वादस कँवल हृदय के माहीं, जंग गौर सिव ध्यान लगाई ।
सोहं शब्द तहां धुन छाई, गन करै जैजैकारा है ॥6॥
षोड़श दल कँवल कंठ के माहीं, तेहि मध बसे अविद्या बाई ।
हरि हर ब्रह्मा चँवर ढुराई, जहं शारिंग नाम उचारा है ॥7॥
ता पर कंज कँवल है भाई, बग भौरा दुह रूप लखाई ।
निज मन करत तहां ठुकराई, सौ नैनन पिछवारा है ॥8॥
कंवलन भेद किया निर्वारा, यह सब रचना पिण्ड मंझारा ।
सतसंग कर सतगुरु सिर धारा, वह सतनाम उचारा है ॥9॥
आंख कान मुख बंद कराओ अनहद झिंगा सब्द सुनाओ ।
दोनों तिल इकतार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है ॥10॥
चंद सूर एकै घर लाओ, सुषमन सेती ध्यान लगाओ ।
तिरबेनी के संघ समाओ, भोर उतर चल पारा है ॥11॥
घंटा संख सुनो धुन दोई सहस कँवल दल जगमग होई ।
ता मध करता निरखो सोई, बंकनाल धस पारा है ॥12॥
डाकिन साकिनी बहु किलकारें, जम किंकर धर्म दूत हकारें ।
सत्तनाम सुन भागें सारे, जब सतगुरु नाम उचारा है ॥13॥
गगन मंडल विच उर्धमुख कुइआ, गुरुमुख साधू भर भर पीया ।
निगुरे प्यास मरे बिन कीया, जा के हिये अंधियारा है ॥14॥
त्रिकुटी महल में विद्या सारा, घनहर गरजें बजे नगारा ।
लाला बरन सूरज उजियारा, चतुर कंवल मंझार सब्द ओंकारा है ॥15॥
साध सोई जिन यह गढ़ लीना, नौ दरवाजे परगट चीन्हा ।
दसवां खोल जाय जिन दीन्हा, जहां कुंफुल रहा मारा है ॥16॥
आगे सेत सुन्न है भाई, मानसरोवर पैठि अन्हाई ।
हंसन मिल हंसा होइ जाई, मिलै जो अमी अहारा है ॥17॥
किंगरी सारंग बजै सितारा, अच्छर ब्रह्म सुन्न दरबारा ।
द्वादस भानु हंस उजियारा, खट दल कंवल मंझार सब्द रारंकारा है ॥18॥
महासुन्न सिंध बिषमी घाटी, बिन सतगुर पावै नाही बाटी ।
ब्याघर सिंह सरप बहु काटी, तहं सहज अचिंत पसारा है ॥19॥
अष्ट दल कंवल पारब्रह्म भाई, दाहिने द्वादस अचिंत रहाई ।
बायें दस दल सहज समाई, यूं कंवलन निरवारा है ॥20॥
पांच ब्रह्म पांचों अंड बीनो, पांच ब्रह्म निःअक्षर चीन्हो ।
चार मुकाम गुप्त तहं कीन्हो, जा मध बंदीवान पुरुष दरबारा है ॥21॥
दो पर्बत के संध निहारो, भंवर गुफा ते संत पुकारो ।
हंसा करते केल अपारो, तहां गुरन दरबारा है ॥22॥
सहस अठासी दीप रचाये, हीरे पन्ने महल जड़ाये ।
मुरली बजत अखंड सदाये, तहं सोहं झुनकारा है ॥23॥
सोहं हद्द तजी जब भाई, सत्त लोक की हद पुनि आई ।
उठत सुगंध महा अधिकाई, जा को वार न पारा है ॥24॥
षोड़स भानु हंस को रूपा, बीना सत धुन बजै अनूपा ।
हंसा करत चंवर सिर भूपा, सत्त पुरुष दरबारा है ॥25॥
कोटिन भानु उदय जो होई, एते ही पुनि चंद्र लखोई ।
पुरुष रोम सम एक न होई, ऐसा पुरुष दीदारा है ॥26॥
आगे अलख लोक है भाई, अलख पुरुष की तहं ठकुराई ।
अरबन सूर रोम सम नाहीं, ऐसा अलख निहारा है ॥27॥
ता पर अगम महल इक साजा, अगम पुरुष ताहि को राजा ।
खरबन सूर रोम इक लाजा, ऐसा अगम अपारा है ॥28॥
ता पर अकह लोक हैं भाई, पुरुष अनामी तहां रहाई ।
जो पहुँचा जानेगा वाही, कहन सुनन से न्यारा है ॥29॥
काया भेद किया निर्बारा, यह सब रचना पिंड मंझारा ।
माया अवगति जाल पसारा, सो कारीगर भारा है ॥30॥
आदि माया कीन्ही चतुराई, झूठी बाजी पिंड दिखाई ।
अवगति रचन रची अंड माहीं, ता का प्रतिबिंब डारा है ॥31॥
सब्द बिहंगम चाल हमारी, कहैं कबीर सतगुर दइ तारी ।
खुले कपाट सब्द झुनकारी, पिंड अंड के पार सो देस हमारा है ॥32॥
कुण्डलिनी शक्ति-
अभी तक हमने जितना समझा है, वह सब शास्त्रों के अनुसार समझा है कि कुण्डलिनी शक्ति क्या है और कैसे काम करती है। अब अपनी बात कुण्डलनी शक्ति इन्सान के शरीर में उस परमात्मा द्वारा दी गई समस्त शक्तियों में से सबसे ज्यादा शक्तिशाली एवं अति गुप्त विद्या है।
कुण्डलिनी शक्ति के ऊपर प्रारम्भ से ही अनेको बार, अनेको व्याखायें दी जा चुकी है। तथा अनेको बार इसके ऊपर शास्त्रार्थ हो चुका है। आज के समय में साधकों का सम्प्रदाय दो हिस्सों में बट चुका है।
जो साधक संत मत को मानते हैं, वे कुण्डलिनी शक्ति से दूर रहते है, अर्थात कुण्डलनी शक्ति को जगाना और इसके बारे में जानना वो आवश्यक नहीं समझते। उनके अनुसार आज्ञा चक्र पर ध्यान लगाना और नाम का जाप करना, इसको ही वो प्रधान मानते है।
ये साधक आज्ञा चक्र से नीचे के चक्रो को कोई भी महत्व देना पसन्द नहीं करते। इनके अनुसार नीचे के चक्रो पर साधना करने का मतलब है- समय की बरबादी। इनके अनुसार कुन्डलिनी शक्ति जाग्रत हो कर आज्ञा चक्र पर ही पहुँचती है। इसलिये क्यो न आज्ञा चक्र से ही यात्रा शुरू की जाये। आज्ञा चक्र से साधना करने का कितना फायदा होता है, यह तो वही साधक जाने।
किन्तु हमारी दृष्टी में ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि बिना कुन्डलिनी शक्ति के जाग्रत हुऐ आज्ञा चक्र का जाग्रत होना असम्भव है। क्योंकि सभी चक्रो को जाग्रत करने के मूल में कुण्डलिनी शक्ति का महत्वपूर्ण योगदान है।
जो साधक सीधे ही आज्ञा चक्र से साधना प्रारम्भ करते है। सालों-साल बीत जाने पर भी उनकी मानसिक स्थिती और उनकी विचारधारा में तनिक/बिलकुल भी बदलाव नहीं आता। यदि उन से इस बारे में पूछा जाये तो उनके अनुसार कम-से-कम चार जन्मो में वो अपनी मुक्ति मानते है।
कोई उनसे पूछने वाला हो तो कि यह जन्म तो बिताना इतना मुश्किल है। आगे के तीन जन्मो के बारे में क्या बात करें।
उन साधकों के अनुसार यदि गुरू कृपा हो तो चार जन्म में मुक्ति सम्भव है और यह साधक सिर्फ मुक्ति के लिये ही साधना करते है। गुरू और नाम जाप पर इनकी पूर्ण श्रद्धा होती है। इनमे से अधिकांश साधक नीचे के चक्रो के नाम से ही डरते है, वो कहते है कि- यदि नीचे के चक्र जाग्रत हो गये तो अनेको सिद्धियाँ की प्राप्ति होगी, जिससे कि साधक मुक्ति के मार्ग से भ्रष्ट हो सकता है और सिद्धियों के लालच में फंस कर अपने आप को खराब कर लेता है।
लेकिन जब इन साधकों की नाम और गुरू के प्रति इतनी श्रद्धा और विश्वास है, तो यह साधक कैसे भटक सकते है, क्योंकि इनका पूर्ण गुरू तो हर वक्त इनके साथ है फिर भटकाव क्यों और कैसे?
हमारी नजर में कोई माने या न माने या तो इनके गुरूओं को कुण्डलिनी शक्ति जागरण का विधान, उसके नियम आदि नहीं मालूम और यदि मालूम है तो- ये अपने शिष्यों को बताना या सिखाना नहीं चाहते, क्योंकि कुण्डलिनी जागरण की प्रकिया बहुत ही गहन और जटिल है। कुण्डलिनी जागरण के दौरान गुरू-शिष्य का साथ-साथ पुरूषार्थ करना अति आवश्यक है।
मात्र प्रवचन दे कर या शास्त्रों/ग्रन्थो की काहानियाँ सुना कर या रामायण, गीता आदि का उपदेश दे कर कुण्डलिनी जागरण सम्भव नहीं है।
असल में कुण्डलिनी शक्ति के लिये पूरी मेहनत, पूर्ण आत्म-विश्वास और पूर्ण-गुरु का होना आवश्यक है। क्योंकि कुन्डलिनी शक्ति जाग्रत होने पर मात्र मोक्ष ही नहीं, भोग भी प्रदान करती है।
मोटे तोर पर आज का साधक सम्प्रदाय तीन हिस्सों में बटा हुआ है। ध्यान-योग, हठ-योग और तन्त्र योग। तंत्र को, साधक योग नही मानते। उनकी नजर में तंत्र या तो एक वीभत्स क्रिया है, या फिर एक चमत्कार दिखाने की विधि।
हमारी नजर में तंत्र का अर्थ है- तन्+प्राण= तन से मुक्ति पाने का उपाय तंत्र है, अर्थात अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय आदि सप्त शरीरो से मुक्ति पाना और आत्मा का उस परमात्मा में पूर्ण लय होना ही तंत्र है।
पूर्ण तंत्र में बिन्दू का रज से मिलन करना ही कुण्डलिनी शक्ति है, अर्थात तंत्र की सर्वोच्चय-भैरवी-साधना ही कुन्डलिनी साधना है। जैसे-जैसे साधक अपने आप को उधर्व-मुखी करना शुरू करते है।
उनकी कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत हो कर पूर्ण यात्रा को निकल पड़ती है। आदि शंकराचार्य ने इस कुण्डलिनी शक्ति का प्रारूप ‘श्री यंत्र अर्थात श्री चक्र’ को बनाया है।
बहुत ही ध्यान पुर्वक यदि हम तंत्र और संत मत का अध्ययन या विश्लेषण करे तो हमे ऐसा महसूस होगा जैसे किसी ने हमारी बुद्धि को ठग लिया हो। संत मत के अनुसार-
ब्रह्मा मरे, विष्णु मरे, मरे शंकर भगवान।
अक्षर मरे, क्षर मरे, तब प्रकटे पूर्ण भगवान॥
तंत्र के अनुसार ‘श्री चक्र’ में स्थित कामेश्वर और कामेश्वरी जहाँ वास करते हैं। जिस आसन पर विराजमान रहते है, उस आसन का पूर्व दिशा का पाया ब्रह्म-प्रेत है अर्थात वहाँ पर ब्रह्मा को प्रेत माना गया है। पश्चिमी पाया विष्णु-प्रेत अर्थात वहाँ पर श्री हरी को प्रेत रूप में माना गया है। दक्षिण दिशा का पाया रूद्र-प्रेत अर्थात यहाँ पर शिव को मृत माना गया है। उत्तर पाया ईश्वर-प्रेत माना गया है, यहाँ पर अक्षर-ब्रह्म को मृत माना गया है।
कामेश्वर और कामेश्वरी जिस फलक के उपर आसीन है, उसे सदाशिव या क्षर-ब्रहम माना गया है। असल में कामेश्वर और कामेश्वरी कोई देवी या देवता नही है, बल्कि आत्मा-रूपी कामेश्वरी ही, परब्रह्म रूपी कामेश्वर के साथ आलिंगन बद्ध है।
जहाँ संत मत सिर्फ गुरू-तत्व का ध्यान करता है। वहीं तंत्र या हठ-योगी अनेकों प्रकार की क्रियायें करके सभी प्रकार का आंनद लेते हुऐ अपनी आत्मा रूपी प्रेयसी को प्रीतम रूपी परमात्मा से मिला देता है। हठ योग की साधना का आधार अष्टाँग योग है।
इसके अंतरगत आसन, प्रणायाम, बन्द, यम-नियम मुख्य है। साथ ही ध्यान-धारणा और समाधी के द्वारा कुण्डलिनी जागरण करना इनका ध्येय है। इन साधकों की नजर में यदि प्राण-वायु की अपान-वायु में एवं अपान-वायु की प्राण-वायु में आहुति दे दी जाये तो कुण्डलिनी जागरण सम्भव हैं।
इसके लिये हठ-योगी मूल रूप से तीन बन्धो को प्रयोग करते है- मूल-बन्द, उड़ियान-बन्ध, जालन्धर-बन्ध। मूल-बन्ध अर्थात गुदा का संकोचन अर्थात अपान वायु का बाहर न निकलने देना। उड़ियान बन्ध अर्थात पूर्ण-बाह्य-कुम्भक का प्रयोग करना। जालन्धर बन्द अर्थात अपनी ठोड़ी का अपने कन्ठ से लगाना।
हमारा ध्येय किसी भी साधना को अच्छा या बुरा बताना नहीं है। जैसा की आज के समय में अधिकतर पुरूष अपने योग को बड़ा और दूसरे के योग को छोटा बताते है। साधकों की इसी विचार धारा की वजह से ही हिन्दुस्तान से अनेकों विद्याये लुप्त हो गई है।
हम एक उदाहरण दे कर समस्त साधकों को समझाने की कोशिश/प्रयास करते है। आपको समझ में आये या न आये यह हमारे बस में नहीं है। जब हम अपने बच्चे को स्कूल ले कर जाते है, तो हम हर चीज का ध्यान रखते है, जैसे की- स्कूल, उसके अध्यापक, केन्टीन और सबसे खास चीज विषय(सब्जेक्ट), बच्चों को पढ़ाये जाने वाली पुस्तकें आदि।
हम अपने बच्चे को मात्र एक ही विषय नहीं दिलवाते, उसके सभी विषयों का ख्याल रखते है। साथ में ही खेलना, कुदना, नृत्य आदि का भी ध्यान रखते है। हम अपने बच्चे को सब कुछ देते है, किन्तु वह बच्चा किसी विशेष विषय की तरफ अपना विशेष ध्यान देता है, और बाकी सभी विषयों को साधारण रूप से ग्रहण करता है।
अधिकतर ऐसा होता है की माँ-बाप उसे डॉक्टर, इंजीनियर आदि बनाना चाहते है, किन्तु वह बच्चा बनता कुछ ओर ही है। यदि बच्चे को स्कूल में होमवर्क ना मिले या उसकी चेकिंग न हो तो हम अपनी शिकायत ले कर मुख्य-अध्यापक के पास पहुँच जाते है।
हम अपने जीवन में हर चीज का ख्याल रखते है, हर चीज पर ध्यान देते है। किन्तु हमने साधना मार्ग को इतना सस्ता क्यों जान लिया? क्यों मान लिया?
क्या साधना मार्ग इतना सस्ता है कि, कोई भी साधारण व्यक्ति, किसी भी गुरू या संत के पास जा कर दीक्षा ग्रहण करे और नाम का जाप करे, तो क्या मुक्ति सम्भव है?
आज के गुरूओं और शिष्यों, दोनो ने मिल कर साधना और मुक्ति के मायने ही बदल दिये हैं। हमारी नजर में मात्र शब्द का रट्टा लगा कर, कहानियाँ, किताबें पढ़कर प्रवचन सुन कर मुक्ति सम्भव नहीं है।
मुक्ति एक महान और उच्च स्थान है। जहाँ पहुँच कर आत्मा सभी बंधनों से मुक्त हो जाती है।
कुण्डलिनी साधना के लिये हमे तपना पड़ता है। अत्यधिक मेहनत की जरूरत होती है। जैसे कोई व्यक्ति जब किसी विशेष परीक्षा की तैयारी करता है तो, वह तैयारी के दौरान हर तरफ से अपना ध्यान हटा कर अपनी शिक्षा पर केन्द्रित करता है।
मात्र कुछ दिनो के लिये वह अपना सब सुख-सुविधा का त्याग करके अपनी शिक्षा को पूर्ण करता है, और शिक्षा पूर्ण होने पर अर्थात उसको एक अच्छी नौकरी लग जाने पर वह सन्तुष्ट हो कर सारी-उम्र सभी सुखों का भोग भोगता है।
उसी प्रकार यदि एक साधक चाहे तो अपनी साधना के बल पर पूर्ण मुक्ति का फल प्राप्त कर सकता है, और मुक्त हुई जीव आत्मा शरीर में रहते हुऐ भी उन महान भोगों को भोगती है। जिस के लिये बड़े-बड़े सेठ साहुकार और धनी तरसते है।

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