Wednesday, 10 February 2016

भगवन्नाम समस्त पापों को भस्म कर देता है


कन्नौज के आचारच्युत एवं जातिच्युत ब्राह्मण अजामिल ने कुलटा दासी को पत्नी बना लिया था । न्याय - अन्याय से जैसे भी धन मिले, वैसे प्राप्त करना और उस दासी को संतुष्ट करना ही उसका काम हो गया था । माता पिता की सेवा और अपनी विवाहिता साध्वी पत्नी का पालन भी कर्तव्य है, यह बात उसे सर्वथा भूल चुकू थी । उनकी तो उसने खोज - खबर ही नहीं ली । न रहा आचार, न रहा संयम, न रहा धर्म । खाद्य - अखाद्य का विचार गया और करणीय - अकरणीय का ध्यान भी जाता रहा । अजामिल ब्राह्मण नहीं रहा, म्लेच्छप्राय हो गया । पापरच पामर जीवन हो गया उसका और महीने दो महीने नहीं पूरा जीवन ही उसकी ऐसे ही पापों में बीता ।
उस कुलटा दासी से अजामिल के कई संतानें हुईं । पहले का किया पुण्य सहायक हुआ, किसी सत्पुरुष का उपदेश काम कर गया । अपने सबसे छोटे पुत्र का नाम अजामिल ने ‘नारायण’ रखा । बुढ़ापे की अंतिम संतान पर पिता का अपार मोह होता है । अजामिल के प्राण जैसे उस छोटे बालक में ही बसते थे । वह उसी के प्यार दुलार में लगा रहता था । बालक कुछ देर को भी दूर हो जाएं तो अजामिल व्याकुल होने लगता था । इसी मोहग्रस्त दशा में जीवनकाल समाप्त हो गया । मृत्यु की घड़ी आ गयी । यमराज के भयंकर दूत हाथों में पाश लिये आ धमके और अजामिल के सूक्ष्म शरीर को उन्होंने बांध लिया । उन विकराल दूतों को देखते ही भय से व्याकुलअजामिल ने पास खेलते अपने पुत्र को कातर स्वर में पुकारा - ‘नारायण ! नारायण !’
‘नारायण !’ एक मरणासन्न प्राणी की कातर पुकार सुनी सदा सर्वत्र अप्रमत्त, अपने स्वामी के जनों की रक्षा में तत्पर रहनेवाले भगवत्पार्षदों ने और वे दौड़ पड़े । यमदूतों का पाश उन्होंने छिन्न - भिन्न कर दिया । बलपूर्वक दूर हटा दिया यमदूतों को अजामिल के पास से । बेचारे यमदूत हक्के - बक्के देखते रह गये । उनका ऐसा अपमान कहीं नहीं हुआ था । उन्होंने इतने तेजस्वी देवता भी नहीं देखे थ । सब - के - सब इंदीवर सुंदर, कमललोचन, रत्नाभरणभूषित, चतुर्भुज, शंख - चक्र - गदा - पद्म लिये, अमित तेजस्वी इन अद्भुत देवताओं से यमदूतों का कुछ वश भी नहीं चल सकता था । साहस करके वे भगवत्पार्षदों से बोले - ‘आपलोग कौन हैं ? हम तो धर्मराज के सेवक हैं । उनकी आज्ञा से पापी को उनके समक्ष ले जाते हैं । जीव के पाप - पुण्य के फल का निर्णय तो हमारे स्वामी संयमनीनाथ ही करते हैं । आप हमें अपने कर्तव्यपालन से क्यों रोकते हैं ?’
भगवत्पार्षदों ने तनिक फटकार दिया - ‘तुम धर्मराज के सेवक सही हो, किंतु तुम्हें धर्म का ज्ञान ही नहीं है । जानकर या अनजान में ही जिसने ‘भगवान नारायण’ का नाम ले लिया, वह पापी रहा कहां ? संकेत से, हंसी में, छल से, गिरने पर या और किसी भी बहाने लिया गया भगवन्नाम जीव के जन्म - जन्मांतर के पापों को वैसे ही भस्म कर देता है, जैसे अग्नि की छोटी चिनगारी सूखी लकड़ियों की महान ढेरी को भस्म कर देती है । इस पुरुष ने पुत्र के बहाने सही, नाम तो नारायण प्रभु का लिया है, फिर इसके पाप रहे कहां ? तुम एक निष्पाप को कष्ट देने की घृष्टता मत करो ।’
यमदूत क्या करते, वे अजामिल को छोड़कर यमलोक आ गये और अपने स्वामी के सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े हो गये । उन्होंने धर्मराज से ही पूछा - ‘स्वामिन ! क्या विश्व का आपके अतिरिक्त भी कोई शासक है ? हम एक पापी के लेने गये थे । उसने अपने पुत्र नारायण को पुकारा, किंतु उसके ‘नारायण’ कहते ही वहां कई तेजोमय सिद्ध पुरुष आ धमके । इन सिद्धों ने आपके पाश तोड़ डाले और हमारी बड़ी दुर्गति की । वे अंतत: हैं कौन, जो निर्भय आपकी भी अवज्ञा करते हैं ?’
दूतों की बात सुनकर यमराज ने हाथ जोड़कर किसी अलक्ष्य को मस्तक झुकाया । वे बोले - ‘दयामय भगवान नारायण मेरा अपराध क्षमा करें । मेरे अज्ञानी दूतों ने उनके जनकी अवहेलना की है ।’ इसके पश्चात वे दूतों से बोले - ‘सेवकों, समस्त जगत के जो आदिकारण हैं, सृष्टि स्थिति संहार जिनके भ्रूभंगमात्र से होता है, वे भगवान नारायण भगवान के नित्य सावधान पार्षद सदा सर्वत्र उनके जनों की रक्षा के लिये घूमते रहते हैं । मुझसे और दूसरे समस्त संकटों से वे प्रभु के जनों की रक्षा करते हैं ।’
यमराज ने बताया - ‘तुमलोग केवल उसी पापी जीव को लेने जाया करो, जिसकी जीभ से कभी किसी प्रकार भगवन्नाम न निकला हो, जिसने कभी भगवत्कथा न सुनी हो, जिसके पैर कभी भगवान के पावन लीलास्थलों में न गये हों अथवा जिसके हाथों ने कभी भगवान के श्रीविग्रह की पूजा न की हो । यमदूतों ने अपने स्वामी की यह आज्ञा उसी दिन भलीभांति रटकर स्मरण कर ली, क्योंकि इसमें प्रमाद होने का परिणाम वे भोग चुके थे ।’
यमदूतों के अदृश्य होते ही अजामिल की चेतना सजग हुई, किंतु वह कुछ पूछे या बोले, इससे पूर्म ही भगवत्पार्षद अदृष्य हो जाएं, किंतु अजामिल उनका दर्शन कर चुका था । यदि एक क्षण के कुसंग ने उसे पाप के गड्ढे में ढकेल दिया था तो एक क्षण के सत्संग ने उसे उठाकर ऊपर खड़ा कर दिया । उसका हृदय बदल चुका था । आसक्ति नष्ट हो चुकी थी । अपने अपकर्मों के लिए घोर पश्चात्ताप उसके हृदय में जाग्रत हो गया ।
तनिक सावधान होते ही अजामिल उठा । अब जैसे इस परिवार और इस संसार से उसका कोई संबंध ही न था । बिना किसी से कुछ कहे वह घर से निकला और चल पड़ा । धीरे - धीरे वह हरिद्वार पहुंच गया । वहां भगवती पतितपावनी भागीरथी में नित्य स्नान और उऩके तटपर ही आसन लगाकर भगवान का सतत भजन - यहीं उसका जीवन बन गया । आयु को तो समाप्त होना ही ठहरा, किंतु जब अजामिल की आयु समाप्त हुई, वह मरा नहीं । वह तो देह त्यागकर मृत्यु के चंगुल से सदा को छूट गया । भगवान के वे ही पार्षद विमान लेकर पधारे और उस विमान में बैठकर अजामिल भगवद्धाम चला गया ।

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