Sunday, 28 February 2016

चैतन्य महाप्रभु, वाल्मीकि और शंकराचार्य के आविर्भाव की कथा


देवगुरु बृहस्पति ने कहा - देवेंद्र ! प्राचीन काल में किसी समय वेदपारंगत विष्णुशर्मा नाम के एक ब्राह्मण थे । वे प्रसन्नचित्त से सर्वदेवमय विष्णु की पूजा करते थे, इसलिए देवतालोक भी उनकी प्रतिष्ठा करते थे, इसलिए देवतालोग भी उनकी प्रतिष्ठा करते थे । वे भिक्षावृत्ति से जीवननिर्वाह करते थे, उनकी स्त्री थी किंतु कोई पुत्र न था । एक समय उनके घर पर कोई अतिथि आया । दयालु हृदय उस महात्मा ने विष्णु शर्मा की स्त्री की आर्थिक स्थिति तथा नम्रता देख उसे तीन दिनों के लिए पारसमणि दी और कहा कि इसके स्पर्श से लोहा भी सोना हो जाता है । इतने दिनों में मैं सरयू में स्नान कर तुम्हारे पास लौट आऊंगा । उसके जाने पर ब्राह्मणी ने उस मणि से पर्याप्त सोना तैयार कर लिया । तब तक विण्णु शर्मा भी आ गये । उन्होंने अपार सुवर्ण राशि से संपन्न अपनी पत्नी को देखकर कहा - ‘जहां वह पारसमणिका स्वामी गया है, तुम भी वहीं चली जाओ । मैं अकिंचन हूं, विष्णुभक्त हूं । चोर - डाकुओं के भय से धन का संग्रह नहीं करता ।’ इस पर उनकी पतिव्रता पत्नी डर गयी और पारसमणि उसे समर्पित कर पुन: उनकी सेवा में तत्पर हो गयी । ब्राह्मण विष्णुशर्मा ने उस सारे धन एवं पारस को घर्घरा - सरयू नदी में फेंक दिया । तीन दिनों के बाद उस अतिथि ने आकर ब्राह्मणी से पूछा कि क्या तुमने पारसमणि से सोना नहीं बनाया ? उसने कहा - ‘मेरे पति ने उसे क्रोधपूर्वक ग्रहणकर घाघरा में फेंक दिया । उस दिन से मैं जिस किसी प्रकार लोहे के बर्तनों के अभाव में आग में ही भोजन बना रही हूं ।’
यह सुनकर वह यति आश्चर्यचकित हो गया । दिनभर वहीं रुका रहा । संध्यासमय ब्राह्मण के आने पर उसने रुक्षस्वर में कहा - ‘ब्राह्मण ! तुम दैवद्वारा मोहित प्रतीत होते हो, क्योंकि तुम दरिद्र भी हो और धन भी संग्रह नहीं करना चाहते हो । अत: मेरा पारस शीघ्र ही लौटा दो, नहीं तो मैं अपना प्राण त्याग दूंगा ।’ यति के इस प्रकार कहने पर विष्णु शर्मा ने कहा - ‘तुम घाघरा के किनारे जाओ, वहीं तुम्हारा पारस मिल जाएंगा ।’ यह कहकर यति के साथ वहां जाकर उसने बहुत से कंटकों से ढके अनेक पारसमणियों को उसे दिखाया । उस यति ने ब्राह्मण को नमस्कार कर नम्रतापूर्वक कहा - ‘मैंने बारह वर्षों तक भलीभांति शिव की आराधना की, तब मैंने इस शुभ रत्न को प्राप्त किया । विप्रश्रेष्ठ ! आपके दर्शनमात्र से ही मुझ लोभात्मा ने आज अनेकों पारसमणियों को प्राप्त कर लिया ।’ यह कहकर उससे शुभ ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर लिया । इधर विष्णु शर्मा ने एक हजार वर्षों तक पृथ्वी पर रहकर सूर्य की आराधना करके विष्णु लोक को प्राप्त किया । वे ही विष्णुशर्मा वैष्णव तेज धारणकर फाल्गुन के महीने में तीनों लोकों में तप रहे हैं और देवकार्य सिद्ध कर रहे हैं ।
देवेंद्र ! फाल्गुन मास में उन सूर्य की आराधना कर तुम भी सुक प्राप्त करो । उन्होंने देवताओं के साथ ऐसा ही किया । प्रसन्न हो भगवान सूर्य सूर्यमण्डल से प्रकट होकर सभी देवताओं के देखते - देखते इंद्र के शरीर में प्रविष्ट हो गये । उस तेज से इंद्र ने अपना शरीर अयोनिज विप्ररूप में धारण किया और शचीदेवी भी पृथ्वी में ब्राह्मणी के रूप में अवतीर्ण हुईं । एक वर्ष के बाद शचीदेवी के गर्भ से भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में गुरुवार को द्वादशी तिथि में ब्राह्मवेला में एक दिव्य बालक का जन्म हुआ । जो वास्तव में भगवान विष्णु के कलावतार थे । उस समय रुद्र, वसु, विश्वेदेव, मरुद्गण, साध्य, सिद्ध तथा भास्कर आदि देवों ने उस सनातन हरिरूप बालक की दिव्य स्तुति की और कलियुग में दितिपुत्रों द्वारा पीड़ित देवताओं तथा अधर्म से दु:खी पृथ्वी का उद्घार करने के लिए प्रार्थना की । यहीं आगे चलकर श्रीकृष्णचैतन्य के नाम से विख्यात हुए ।
सूतजी बोले - मुने ! स्तुति के अनन्तर सभी देवगण बृहस्पति के पास आकर कहने लगे - महाभाग ! हम सभी रुद्रगण, ये वसुगण तथा अश्विनीकुमार पृथ्वी पर किस किस अंशरूप में अवतरित होंगे, इसे आप बतलाने की कृपा करें ।
बृहस्पति ने कहा - देवगणों ! इस विषय में आप लोगों को मैं एक दूसरी बात बता रहा हूं - प्राचीन काल में मृगव्याध नाम का एक अधम ब्राह्मण था । वह मार्ग में सदा धनुर्बाण धारणकर विप्रों की हिंसा किया करता था । वह महामूर्ख ब्राह्मणों को मारकर उनके यज्ञोपवीतों को ग्रहणकर उत्साहपूर्वक शोर मचाता था । वह दुष्ट द्विजाधम तीनों वर्णों को, विशेषकर ब्राह्मणों को मारता था । उस समय ब्राह्मणों का विनाश देखकर देवगण भयभीत हो ब्रह्मा के पास आये और सभी बातें उन्हें बतायीं । यह सुनकर दु:खी हो ब्रह्मा ने सभी लोकों में गमन करनेवाले सप्तर्षियों से कहा - ‘द्विजोत्तमो ! आप सभी वहां जाकर मृगव्याध को समझायें ।’ यह सुनकर वसिष्छ आदि ऋषियों के साथ मरीचि मृगव्याध के वन में गये । धुनर्बाणधारी महाबली मृगव्याध ने उन लोगों को देखकर भयंकर वचन कहा - ‘आज मैं तुमलोगों को मारूंगा ।’ मरीचि आदि ने हंसकर कहा - ‘तुम हमलोगों को क्यों मारोगे ? कुल क् लिए मारोगे या अपने लिए, यह शीघ्र बताओ ।’ यह सुनकर उस मृगव्याध ने कहा - ‘मैं अपने कुल के लिए और अपने कल्याण के लिए (तुमलोगों को) मारूंगा ।’
यह सुनकर उन लोगों ने कहा - ‘धनुर्धर ! अपने घर में यह पूछकर शीघ्र आओ कि विप्रहत्या से किये गये पापों को कौन भोगेगा ? यह विचार करो ।’ यह सुनकर उस घोरात्मा ने अपने कुलवालों से पूछा - ‘आजतक मैंने जो पाप अर्जित किया है, उसे तुमलोग भी वैसे ही ग्रहण करो, जैसे धन को ग्रहण किया है ।’ उस अधम ब्राह्मण के इस वचन को सुनकर उसके कुटुंबियों ने कहा - ‘हमलोग तुम्हारे किये गये पाप को ग्रहण नहीं करेंगे, क्योंकि यह भूमि और ये सूर्य साक्षी हैं, हमलोगों ने कोई पाप नहीं किया है ।’ यह सुनकर उस मृगव्याध ने मुनियों के पास जाकर हाथ जोड़कर कहा - ‘महात्माओ ! जिस प्रकार मेरे पापों का क्षय हो, आपलोग वैसा उपाय बतायें ।’ मृगव्याध के यह कहने पर ऋषियों ने कहा - ‘एक उत्तम मंत्र है, उसे सुनो - वह है ‘राम का नाम ।’ यह सभी प्रकार के पापों को दूर करने वाला है । अब हमलोग जा रहे हैं, जबतक वापस तुम्हारे पास न आ जाएं, तबतक तुम इस महामंत्र अर्थात् राम नाम का जप करो ।’ यह कहकर मुनिगण तीर्थान्तरों में भ्रमण करने चले गये और वह मूर्ख व्याध विप्र ‘मरा मरा’ का हजार वर्ष तक निरंतर जप करता रहा । उसके जप के प्रभाव से वह अरण्य उत्पलों (कमलों) से परिव्याप्त हो गया और तभी से वह स्थान पृथ्वी पर उत्पलारम्य के नाम से प्रसिद्ध हो गया ।
अनन्तर सप्तर्षि वाल्मीकि बने उस मृगव्याध के पास आये और उसकी मिट्टी हटाकर उसको शुद्ध विप्रके रूप में देखकर आश्चर्यचकित होकर कहने लगे - ‘वाल्मीक से निकलने के कारण तुम वाल्मीकि कहे जाओगे । त्रिकालज्ञ महामति हे विप्र ! तुम इसी नाम से प्रसिद्ध होओगे ।’ यह कहकर वे सप्तर्षि अपने अपने स्थानपर चले गये । वाल्मीकिमुनि ने अष्टादश कल्पसमंवित शतकोटिवस्तृत तथा सभी पापों का विनाशक निर्मल पद्यबंध रामायण का निर्माण किया । अनन्तर वे शिव होकर वहीं निवास करने लगे । देवगणों ! हर को प्रिय लगनेवाले उस मृगव्याप्त शिव के चरित्र को आप लोग सुनें ।
वैवस्वत मन्वन्तर के आद्य सत्ययुग में ब्रह्मा ने उत्पलारण्य में आकर एक यज्ञ किया । उस समय वहां पर सरस्वती देवी नदी होकर आ गयीं । अनन्तर ब्रह्मा ने अपने मुख से कल्याणकारी ब्राह्मणों, बाहुओं से क्षत्रियों, ऊरु से उत्तम वैश्यों और पैरों से शुभाचारसंपन्न शूद्रों को उत्पन्न किया । द्विजराज सोम (चंद्रमा), सूर्य, तेज वीर्य की रक्षा करनेवाले कश्यप, मरीचि, रत्नाकर अर्थात् समुद्र एवं प्रजापति आदि को भी उत्पन्न किया । दक्ष के मन से अनेक कन्याएं उत्पन्न हुईं । विष्णुमाया के प्रभाव से वे कलाओं के रूप में पृथ्वी पर स्थित हुईं । भगवान ब्रह्मा ने अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्र लोक की अभिवृद्धि के लिये सोम को तथा तेरह अदिति आदि कन्याएं कश्यप को और कीर्ति आदि कन्याएं धर्म को प्रदान कीं । उन्होंने वैवस्वत मन्वन्तर में अनेक सृष्टियां कीं । ब्रह्मा की आज्ञा के अनुसार पृथ्वी पर दक्ष उन लोगों के प्रजापति हुए । यज्ञ में तत्पर दक्ष प्रजापति ने स्वयं वहां निवास किया । सभी देवगण दक्ष को नमस्कार कर वहां विचरण करते थे, किंतु भूतनाथ महादेव ने कभी उनको नमस्कार नहीं किया । इससे क्रुद्ध होकर दक्ष ने यज्ञ में उन्हें भाग नहीं दिया ।
मृगव्याध शिव क्रुद्ध होकर वीरभद्र के रूप में प्रकट हो गये । उनके साथ त्रिशिरा, त्रिनेत्र और त्रिपद शिवगण भी वहां आये । वीरभद्र आदि के द्वारा देव, मुनिगण और पितृगण पीड़ित होने लगे । उस समय यज्ञपुरुष भयभीत हो मृग होकर शीघ्रता से भागने लगा । तब शिव ने व्याधरूप को धारण किया । रुद्ररूपी व्याध के द्वारा वह मृग छिन्न भिन्न अंगवाला हो गया । तब भगवान ब्रह्मा ने मधुर स्तुतियों से रुद्रव्याध को संतुष्ट किया । संतुष्ट मृगव्याध ने दक्ष के यज्ञ को पूर्ण कराया । तुलाराशि में सूर्य के आनेपर उस रुद्र को सत्ताईस नक्षत्रवाले चंद्रमण्डल में स्थापित कर स्वयं ब्रह्मा सत्यलोक को चले गये और रुद्र चंद्र के समान रूपवान हो गये । वीरभद्र रुद्र ने यह सुनकर प्रसन्नचित्त हो अपने शरीर से एक तेज को उत्पन्न कर भैरवदत्त नामक विप्रके घर में भेजा । घोर कलियुग में वहीं शिव शंकर (शंकराचार्य) नाम से उसके पुत्ररूप में अवतरित हुए । वह बालक गुणवान, सकल शास्त्रवेत्ता एवं ब्रह्मचारी हुआ । उसने शांकरभाष्य की रचना कर शैवमत को प्रतिष्ठित किया और त्रिपुण्ड्र, अक्ष (रुद्राक्ष) माला और पञ्चाक्षर मंत्र प्रदान किया ।

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