Monday, 8 February 2016

मित्रों दुःख तभी तक सालता है जब तक हम उसके कारक को अपना मानते हैं।

एक समय की बात है, धर्म में आस्था रखने वाला व परमेश्वर को पिता मानने वाला बनिया, गौरव कुमार गुप्ता अपनी पत्नी व दो पुत्रों के साथ बानखेड़ा गाँव में रहता था। गाँव में सभी उसे बनिया पुजारी कह इज्जत करते थे। एक बार व्यपार के सिलसिले में उसे दूर देश में जाना पड़ा। वह पत्नी मीना को दोनों पुत्रों समेत सब कुछ सौंप साल भर के लिये दूसरे देश के लिये चला गया।
जब वह दूर था तब एक त्रासद दुर्घटना में उसके दोनों पुत्र मारे गये। ऐसी दुःख की घड़ी में मीना ने खुद को बड़ी मुश्किल से संभाला, वह बहुत हिम्मती थी और ईश्वर में पति की तरह उसकी आस्था अटूट थी। लेकिन उसे यह चिंता थी कि पति के लौटने पर वह उसे यह दुःखद समाचार किस प्रकार देगी क्योंकि वह दिल का मरीज़ था और पूर्व में अस्पताल में भी भर्ती रह चुका था। पत्नी को यह आशंका थी कि वह यह सदमा नहीं झेल पायेगा।
पति के आगमन की पूर्व संध्या को उसने दृढ़तापूर्वक प्रार्थना की और मन में एसी शांति हुई मानो उसे अपनी समस्या का कोई समाधान मिल गया हो। अगली सुबह बनिया घर पहुँचा तो बड़े दिनों के बाद घर वापसी पर वह पत्नी से गर्मजोशी से मिला और लड़कों के बारे में पूछा।
पत्नी ने कहा, "उनकी चिंता मत कीजिये, आप नहा-धोकर आराम करिए"।
कुछ समय के बाद वे भोजन करने के लिए बैठे, पत्नी ने उससे यात्रा के बारे में पूछा, बनिया ने उसे इस बीच घटी बातों की जानकारी दी और कहा कि ईश्वर की दया से सब ठीक हुआ। फिर उसने बच्चों के बारे में पूछा।
पत्नी कुछ असहज तो थी ही, फिर भी उसने कहा, "उनके बारे में सोचकर परेशान मत होइए. हम उनकी बात बाद में करेंगे, मैं इस वक़्त किसी और उलझन में हूँ, आप मुझे उसका उपाय बताइए"।
बनिया समझ रहा था कि कोई-न-कोई बात ज़रूर थी। उसने पूछा, "क्या हुआ? कोई बात तो है जो तुम्हें भीतर-ही-भीतर खाए जा रही है, मुझे बेखटके सब कुछ सच-सच बता दो और हम साथ बैठकर ईश्वर की मदद से उसका हल ज़रूर निकाल लेंगे".
पत्नी ने कहा, "आप जब बाहर थे तब हमारे एक मित्र ने मुझे दो बेशकीमती नगीने अहतियात से सहेजकर रखने के लिए दिए, वे वाकई बहुत कीमती और नायाब नगीने हैं! मैंने उन जैसी अनूठी चीज़ और कहीं नहीं देखी है, अब वह उन्हें लेने के लिए आनेवाला है और मैं उन्हें लौटाना नहीं चाहती, मैं चाहती हूँ कि वे हमेशा मेरे पास ही रहें, अब आप क्या कहेंगे?"
"तुम कैसी बातें कर रही हो? ऐसी तो तुम नहीं थीं? तुममें यह संसारिकता कहाँ से आ गयी?", पति ने आश्चर्य से कहा।
"सच यही है कि मैं उन्हें अपने से दूर होते नहीं देखना चाहती, अगर मैं उन्हें अपने ही पास रख सकूं तो इसमें क्या बुरा है?", पत्नी ने कहा।
बनिया बोला, "जो हमारा है ही नहीं उसके खोने का दुःख कैसा? उन्हें अपने पास रख लेना तो उन्हें चुराना ही कहलायेगा न? हम उन्हें लौटा देंगे और मैं यह कोशिश करूंगा कि तुम्हें उनसे बिछुड़ने का अफ़सोस नहीं सताए, हम आज ही यह काम करेंगे, एक साथ"।
"ठीक है. जैसा आप चाहें, हम वह संपदा लौटा देंगे, और सच यह है कि हमने वह लौटा ही दी है, हमारे बच्चे ही वे बेशकीमती नगीने थे, ईश्वर ने उन्हें सहेजने के लिए हमारे सुपुर्द किया था और आपकी गैरहाजिरी में उसने उन्हें हमसे वापस ले लिया, वे जा चुके हैं...".
बनिया पुजारी ने अपनी पत्नी को भींच लिया और वे दोनों अपनी आंसुओं की धारा में भीगते रहे। उसको अपनी पत्नी की कहानी के मर्म का बोध हो गया था। उस दिन के बाद वे साथ-साथ उस दुःख से उबरने का प्रयास करने लगे।
मित्रों दुःख तभी तक सालता है जब तक हम उसके कारक को अपना मानते हैं।
जय श्री कृष्ण जय श्री राम

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