शचीपति देवराज इंद्र कोई साधारण व्यक्ति नहीं, एक मन्वंतरपर्यन्त रहनेवाले स्वर्ग के अधिपति हैं । घड़ी - घंटों के लिए जो किसी देश का प्रधान मंत्री बन जाता है, उसके नाम से लोग घबराते हैं, फिर जिसे एकहत्तर दिव्य युगों तक अप्रतिहत दिव्य भोगों का साम्राज्य प्राप्त है, उसे गर्व होना तो स्वाभाविक है ही । इसलिए इनके गर्व भंग की कथाएं भी बहुत हैं । दुर्वासा ने इन्हें शाप देकर स्वर्ग को श्रीविहीन किया । वृत्रासुर, विश्वरूप, नमुचि आदि दैत्यों के मारने पर इन्हें बार - बार ब्रह्महत्या लगी । बृहस्पति के अपमान पर पश्चात्ताप, बलिद्वारा राज्यापहरण पर दुर्दशा तथा गोवर्धनधारण एवं पारिजातहरण आदि में भी कई बार इनका मानभंग हुआ ही है । मेघनाद, रावण, हिरण्यकशिपु आदि ने भी इन्हें बहुत निम्न दिखलाया और बार बार इन्हें दुष्यंत, खट्वांग, अर्जुनादि से सहायता लेनी पड़ी । इस प्रकार इनके गर्वभञ्जनकी अनेकानेक कथाएं हैं, तथापि ब्रह्मवैवर्तपुराण में इनके गर्वापहरण की एक विचित्र कथा है, जो इस प्रकार है -
इस बार इंद्र ने एक बड़ा विशाल प्रासाद बनवाना आरंभ किया । इसमें पूरे सौ वर्षतक इन्होंने विश्वकर्मा को छुट्टी नहीं दी । विश्वकर्मा बहुत घबराएं । वे ब्रह्माजी की शरण में गये । ब्रह्माजी ने भगवान से प्रार्थना की । भगवान एक ब्राह्मण बालक का रूप धारण कर इंद्र के पास पहुंचे और पूछने लगे - ‘देवेंद्र ! मैं आपके अद्भुत भवननिर्माम की बात सुनकर यहां आया हूं । मैं जानना चाहता हूं कि इस भवन को कितने विश्वकर्मा मिलकर बना रहे हैं और यह कब तक तैयार हो जाएंगा ?’
इंद्र बोले - ‘बड़े आश्चर्य की बात है ! क्या विश्वकर्मा भी अनेक होते हैं, जो तुम ऐसी बातें कर रहे हो ?’ बहुरूपी प्रभु बोले - ‘देवेंद्र ! तुम बस इतने में ही घबरा गये ? सृष्टि कितने ढंग की है, ब्रह्माण्ड कितने हैं, ब्रह्मा विष्णु शिव कितने हैं, उन उन ब्रह्माण्डों में कितने इंद्र और विश्वकर्मा पड़े हैं - यह कौन जान सकता है ? यदि कदाचित कोई पृथ्वी के धूलिकणों को गिन भी सके, तो भी विश्वकर्मा अथवा इंद्रों की संख्या तो नहीं ही गिनी जा सकती । जिस तरह जल में नौकाएं दिखती हैं, उसी प्रकार महाविष्णु के लोमकूपरूपी सुनिर्मल जल में असंख्य ब्रह्माण्ड तैरते दिख पड़ते हैं ।’
इस तरह इंद्र और वटु में संवाद चल ही रहा था कि वहां दो सौ गज लंबा चौड़ा चींटों का एक विशाल समुदाय दिख पड़ा । उन्हें देखते ही वटु को सहसा हंसी आ गयी । इंद्र ने उनकी हंसी का कारण पूछा । वटु ने कहा - ‘हंसताइसलिए हूं कि यहां ये चींटे दिखलायी पड़ रहे हैं, वे सब कभी पहले इंद्र हो चुके हैं, किंतु कर्मानुसार इन्हें अब चींटे की योनि प्राप्त हुई है । इसमें तनिक भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि कर्मों की गति ही ऐसी गहन है । जो आज देवलोक में है, वह दूसरे क्षण कभी कीट, वृक्ष या अन्य स्थावर योनियों को प्राप्त हो सकता है ।’ भगवान ऐसा कह ही रहे थे कि उसी समय कृष्णाजिनधारी, उज्जवल तिलक लगाएं, चटाई ओढ़े एक ज्ञानवृद्ध तथा वयोवृद्ध महात्मा वहां पहुंच गये । इंद्र ने उनकी यथालंध उपचारों से पूजा की । अब वटु ने महात्मा से पूछा - ‘महात्मन ! आपका नाम क्या है, आप कहां से आ रहे हैं, आपका निवासस्थल कहां है और आप कहां जा रहे हैं ? आपके मस्तक पर यह चटाई क्यों है तथा आपके वक्ष:स्थल पर यह लोमचक्र कैसा है ?’
आगंतुक मुनि ने कहा - थोड़ी सी आयु होने के कारण मैंने कहीं घर नहीं बनाया, न विवाह ही किया और न कोई जीविका ही खोजी । वक्ष:स्थल के लोमचक्रों के कारण लोग मुझे लोमचक्रों के कारण लोग मुझे लोमश कहा करते हैं और वर्षा तथा गर्मी से रक्षा के लिए मैंने अपने सिरपर यह चटाई रख छोड़ी है । मेरे वक्ष:स्थल के लोम मेरी आयु संख्या के प्रमाण हैं । एक इंद्र का पतन होने पर मेरा एक रोग गिर पड़ता है । यह मेरे उखड़े हुए कुछ रोमों का रहस्य भी है । ब्रह्मा के द्विपरार्धावसान पर मेरी मृत्यु कही जाती है । असंख्य ब्रह्मा मर गये और मरेंगे । ऐसी दशा में मैं पुत्र, कलत्र या गृह लेकर ही क्या करूंगा ? भगवान की भक्ति ही सर्वोपरि, सर्वसुखद तथा दुर्लभ है । वह मोक्ष से भी बढ़कर है । ऐश्वर्य तो भक्ति के व्यवधानस्वरूप तथा स्वप्नवत मिथ्या भी बढ़कर है । जानकर लोग तो उस भक्ति को छोड़कर सालोक्यादि मुक्तिचतुष्टयको भी नहीं ग्रहण करते ।
यों कहकर लोमश जी अन्यत्र चले गये । बालक भी वहीं अंतर्धान हो गया । बेचारे इंद्र का तो अब होश ही ठंडा हो गया । उन्होंने देखा कि जिसकी इतनी दीर्घ आयु है, वह तो एक घास की झोपड़ी भी नहीं बनाता, केवल चटाई से ही काम चला लेता है, फिर मुझे कितने दिन रहना है, जो इस घर के चक्कर में पड़ा हूं । बस, झट उन्होंने विश्वकर्मा को एक लंबी रकम के साथ छुट्टी दे दी और आप अत्यंत विरक्त होकर किसी वनस्थली की ओर चल पड़े । पीछे बृहस्पति जी ने उन्हें समझा बुझाकर पुन: राज्यकार्य में नियुक्त किया ।
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