Saturday, 20 February 2016

भक्त अर्जुन और श्रीकृष्ण


एक बार कैलाश के शिखर पर श्री श्री गौरीशंकर भगवद्भक्तों के विषय में कुछ वार्तालाप कर रहे थे । उसी प्रसंग में जगज्जननी श्री पार्वती जी ने आशुतोष श्रीभोलेबाबा से निवेदन किया कि भगवान ! जिन भक्तों की आप इतनी महिमा वर्णन करते हैं उनमें से किसा के दर्शन कराने की कृपा कीजिए । आपके श्रीमुख से भक्तों की महिमा सुनकर मेरे चित्त में बड़ा आह्लाद हुआ है और अब मुझे ऐसे भक्तराज के दर्शनों की अति उत्कण्ठा हो रही है । अत: कृपया शीघ्रता कीजिए ।
प्राणप्रिया उमा के ये वचन सुनकर श्रीभोलानाथ उन्हें साथ लेकर इंद्रप्रस्थ को चले और वहां कृष्ण - सखा अर्जुन के महल के द्वार पर जाकर द्वारपाल से पूछा - ‘कहो, इस समय अर्जुन कहां है ?’ उसने कहा - ‘इस समय महाराज शयनागार में पौढ़े हुए हैं ।’ यह सुनकर पार्वती जी ने उतावली से कहा, ‘तो अब हमें उनके दर्शन कैसे हो सकेंगे ?’ प्रिया को अधीर देखकर श्रीमहादेव जी ने कहा - ‘देवी ! कुछ देर शांत रहो, इतनी अधीर मत हो, भक्त को उसके इष्टदेव भगवान के द्वारा ही जगाना चाहिए, सो मैं इसका प्रयत्न करता हूं ।’ तदंतर उन्होंने समाधिस्थ होकर प्रेमाकर्षणद्वारा आनंदकंद श्रीव्रजचंद को बुलाया और कहा ‘भगवन ! कृपया अपने भक्त को जगा दीजिए, देवी पार्वती उसका दर्शन करना चाहती हैं ।’ श्रीमहादेव जी के कहने से श्यामसुंदर तुरंत ही मित्र उद्धव, देवी रुक्मिणी और सत्यभामासहित अर्जुन के शयनागार में गये और देखा कि वह अधिक थकान से सो रहा है और सुभद्रा उसके सिरहाने बैठी हुई धीरे - धीरे पंखा डुलाकर उसके स्वेद क्लांत केशों को सुखा रही है । भाई कृष्ण को आये हुए देखकर सुभद्रा हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई और उसकी जगह श्रीसत्यभामा जी विराजमान होकर पेखा डुलाने लगीं । गर्मी अधिक थी, इसलिए भगवान का इशारा पाकर उद्धव जी पंखा हौंकने लगे । इतने में ही अकस्मात सत्यभामा और उद्धव चकित - से होकर एक दूसरे की ओर ताकने लगे । भगवान ने पूछा, तुमलोग किस विचार में पड़े हो ? उन्होंने कहा, ‘महाराज, आप अंतर्यामी हैं, सब जानते हैं, हमें क्या पूछते हैं ?’ भगवान श्रीकृष्ण बोले, बताओ तो सही क्या बात है ? तब उद्धव ने कहा कि अर्जुन के प्रत्येक रोम से ‘श्रीकृष्ण कृष्ण की’ आवाज आ रही है । रुक्मिणी जी पैर दबा रही थीं, वे बोलीं, महाराज, पैरों से भी वहीं आवाज आती है । भगवान ने समीप जाकर सुना तो उन्हें भी स्पष्ट सुनायी दिया कि अर्जुन के प्रत्येक केश से निरंतर ‘जय कृष्ण कृष्ण, जय कृष्ण कृष्ण’ की ध्वनि निकल रही है । कुछ और ध्यान दिया तो विदित हुआ कि उसके शरीर के प्रत्येक रोम से यहीं ध्वनि निकल रही है । तब तो भगवान उसे जगाना भूलकर स्वयं उसके चरण दबाने लगे । भगवान के नवनीत कोमल कर कमलों का स्पर्श होने से अर्जुन की निद्रा और भी गाढ़ हो गयी ।
इधर महादेव और पार्वती को प्रतीक्षा करते हुए जब बहुत देर हो गयी तो वे मन - ही मन कहने लगे, ‘भगवान कृष्ण को गये बहुत विलंब हो गया । मालूम होता है उन्हें भी निद्रा ने घेर लिया है ।’ तब उन्होंने ब्रह्मा जी को बुलाकर अर्जुन को जगाने के लिए भेजा । किंतु अंत:पुर में पहुंचने पर ब्रह्मा जी भी अर्जुन के रोम रोम से कृष्ण - कृष्ण की ध्वनि सुनकर और स्वयं भगवान की अपने भक्त के पांव पलोटते देखकर अपने प्रेमावेश को न रोक सके, एवं अपने चारों मुखों से वेद - स्तुति करने लगे । अब क्या था, ये भी हाथ से गये । जब ब्रह्मा जी की प्रतीक्षा में भी श्रीमहादेव और पार्वती को बहुत समय हो गया तो उन्होंने देवर्षि नारद जी का आबाहन किया । अब की बार वे अर्जुन को जगाने का बीड़ा उठाकर चले, किंतु शयनागार का अद्भुत दृष्य देख सुनकर उनसे भी न रहा गया । वे भी अपनी वीणा की खूंटियां कसकर हरि कीर्तन में तल्लीन हो गये । जब उनसे कीर्तन की ध्वनि भगवान शंकर के कान में पड़ी तो उनसे भी और अधिक प्रतीक्षा न हो सकी, वे भी पार्वती जी के साथ तुरंत ही अंत:पुर में पहुंच गये । वहां अर्जुन के रोम रोम से ‘जय कृष्ण, जय कृष्ण’ का मधुर नाद सुनकर और सब विचित्र दृश्य देखकर वे भी प्रेम समुद्र की उत्ताल तरंगों में उछलने डूबने लगे । अंत में उनसे भी न रहा गया, उन्होंने भी अपना त्रिभुवन मोहन ताण्डव नृत्य आरंभ कर दिया, साथ ही श्रीपार्वती जी भी स्वर और ताल के साथ सुमधुर वाणी से हरि - गुण गाने लगीं ।
इस प्रकार वह संपूर्ण समाज प्रेम - समुद्र में डूब गया, किसी को भी अपने तन मन की सुध बुध नहीं रही, सभी प्रेमोन्मत्त हो गये । भक्तराज अर्जुन के प्रेम प्रबाह ने सभी को सराबोर कर दिया । अर्जुन तुम्हारा वह अविचल प्रेम धन्य है 

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