महाभारत में पाण्डव विजयी हुए । छावनी के पास पहुंचने पर श्रीकृष्णने अर्जुन से कहा कि ‘हे भरतश्रेष्ठ ! तू अपने गाण्डीव धनुष और दोनों अक्षय भाथों को लेकर पहले रथ से नीचे उतर जा । मैं पीछे उतरूंगा, इसी में तेरा कल्याण है ।’ यह आज नयी बात थी, परंतु अर्जुन भगवान के आज्ञानुसार नीचे उतर गये, तब बुद्धि के आधार जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण घोड़ों की लगाम छोड़कर रथ से उतरे । उनके उतरते ही रथ की ध्वजा पर बैठा हुआ दिव्य वानर तत्काल अंतर्धान हो गया । तदनंतर अर्जुन का वह विशाल रथ पहिये, धुरी, डोरी और घोड़ों समेत बिना ही अग्नि के जलने लगा और देखते ही देकते भस्म हो गया । इस घटना को देखकर सभी चकित हो गये । अर्जुन ने हाथ जोड़कर इसका कारण पूछा, तब भगवान बोले - हे परन्तप अर्जुन ! विविध शस्त्रास्त्रों से यह रथ तो पहले ही जल चुका था, मैं इसपर बैठा इसे रोके हुए था, इसी से यह अब से पूर्ण रण में भस्म नहीं हो सका । हे कौन्तेय ! तेरा कार्य सफल करके मैंने इसे छोड़ दिया, इसी से ब्रह्मास्त्र के तेज से जला हुआ यह रथ इस समय खाक हो गया है । मैं पहले न रोके रखता या आज तू पहले न उतरता तो तू भी जलकर खाक हो जाता ।
भगवान की इस लीला को देख सुनकर सभी पाण्डव आनंद से गद् गद् हो गये । महाभारत में तथा अन्य पुराणों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जिनसे अर्जुन के साथ भगवान की अपूर्व मैत्री का परिचय मिलता है । यहां तो संक्षेप में बहुत ही थोड़े से उदाहरण दिए गए हैं । इस लीला का आनंद लेने की इच्छा रखनेवालों को उपर्युक्त ग्रंथ अवश्य पढ़ने सुनने चाहिए ।
जिस समय उत्तरा के गर्भस्थ बालक परीक्षित को अश्वत्थामा ने मार दिया था और उत्तरा भगवान के सामने रोने लगी थी, उस समय विशुद्धात्मा भगवान ने सारे जगत को सुनाते हुए कहा था - ‘हे उत्तरा ! मैं कबी झूठ नहीं बोलचा, मेरा कहना सत्य ही होगा । सब देहधारी देखें, मैं अभी इस बालक को जीवित करता हूं । यदि मैंने कभी हंसी मजाक में भी झूट नहीं बोला है और मैं युद्ध में कभी पीठे नहीं लौटा हूं तो यह बालक जी उठे । मुझे यदि धर्म और विशेषकर ब्राह्मण प्यारे हैं तो जन्मते ही मरा हुआ अभिमन्यु का बालक जीवित हो जाएं । यदि यह सत्य है तो यह मृत बालक जी उठे । सत्य और धर्म मेरे अंदर नित्य ही प्रतिष्ठित रहते हैं, इनके बल से यह अभिमन्यु का मरा बालक जीवित हो जाएं । यदि कंस और केशी को मैंने धर्मानुसार मारा है, (द्वेष से नहीं) तो यह बालक जी उठे ।’ भगवान के ऐसा कहते ही बालक जी उठा ।
इस प्रसंग से भगवान के सत्य, वीरत्व, धर्म, ब्रह्मण्यता, राग - द्वेषहीनता आदि की घोषमा तो महत्त्व की हैं ही, परंतु अर्जुन के अविरोध की बात, भगवान का अर्जुन के प्रति कितना समीप प्रेम था, इसको सूचित करती है ।
भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन में कैसा अभिन्न और सच्चा प्रेम था और भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को किस आदर की दृष्टि से देखते थे इसका एक उदाहरण यहां दिया जाता है -
पाण्डवों के यहां से लौटकर आये हुए संजय से घृतराष्ट्र ने जब वहां के समाचार पूछे, तब सारा हाल कहते हुए उसने कहा कि श्रीकृष्ण अर्जुन का मैंने विलक्षण प्रेमभाव देखा है । मैं उन दोनों से बातें करने के लिए बड़े ही विनीत भाव से उनके अंत:पुर में गया । मैंने जाकर देखा कि वे दोनों महात्मा उत्तम वस्त्राभूषणों से भूषित होकर रत्नजटित सोने के महामूल्य आसनों पर बैठे थे । अर्जुन की गोद में श्रीकृष्ण के पैर थे और द्रौपदी तथा सत्यभामा की गोद में अर्जुन के दोनों पैर थे । अर्जुन ने अपने पैर के नीचे का स्वर्ण का पीढ़ा सरकाकर मुझे बैठने को कहा, मैं उसे छूकर अदब के साथ नीचे बैठ गया । तब श्रीकृष्म ने अर्जुन की प्रशंसा करते हुए और उन्हें अपने ही समान बतलाते हुए मुझसे कहा -
‘देवता, गंधर्व, राक्षस, यक्ष, मनुष्य और नागों में कोई ऐसा नहीं है जो युद्ध में अर्जुन का सामना कर सके । बल, वीर्य, तेज, शीघ्रता, लघुहस्तता, विषादहीनता और धैर्य - ये सारे गुण अर्जुन के सिवा किसी भी दूसरे मनुष्य में एक साथ विद्यमान नहीं हैं ।’
भगवान ने अर्जुन के साथ सदा सख्यत्व का व्यवहार किया और उन्हें अपनी लीलाओं में प्राय: साथ रखा । भगवान के परमधाम पधारने पर अर्जुन प्राणहीन से हो गये और शीघ्र ही हिमालय में जाकर उन्होंने शरीर छोड़ दिया । भगवान के प्रति अर्जुन का इतना गाढ़ा प्रेम था कि वे गीताज्ञान के सर्वोत्तम और सर्वप्रतम श्रोता तथा ज्ञाता होने पर भी सायुज्य मुक्ति को ग्रहण कर परमधाम में भी भगवान की सेवा में ही लगे रहे । स्वर्गारोहण के अनंतर धर्मराज युधिष्ठिर दिव्य देह धारणकर परमधाम में देखा - देदीप्यमान है, उनके समीप चक्र आदि दिव्य और घोर अस्त्र पुरुष का शरीर धारणकर उनकी सेवा कर रहे हैं । महान तेजस्वी वीर अर्जुन भी भगवान की सेवा कर रहे हैं ।
हम सबको चाहिए कि संसार के भोग्यपदार्थों से आसक्ति दूरकर अर्जुन की भांति भगवान के शरणागत हो जाएं । बोलो भक्त और उनके भगवान की जय !
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