पूर्वकाल में धुंधु नाम का एक राक्षस हुआ था । वह ब्रह्मा से वरदान पाकर देवताओं, दानवों, दैत्यों, नागों, गंधर्वों और राक्षसों के द्वारा अवध्य हो गया था तथा उसने तीनों लोकों को जीतकर अपने अधीन कर लिया था । वह अहंकार का पुतला था, अत: सदा अमर्ष में भरा रहता और सदा सबको सताया करता था । अंत में उसके मन में एक भयानक विचार उत्पन्न हुआ । वह सारे विश्व का विनाश करने पर तत्पर हो गया । इसके लिए उसने उज्जालक नामक मरु - प्रदेश में तपस्या प्रारंभ कर दी ।
उसने अपने अनुयायियों के साथ बालू के पहाड़ को हटाकर और जमीन पर लेटकर अपने ऊपर सारा बालू लाद लिया । फिर प्राणायाम की साधना के द्वारा उसकी कठिन तपस्या प्रारंभ हुई । उसकी एक घोर तपस्या का एकमात्र उद्देश्य था - विश्व का विनाश ।
इस तपस्या काल में भी उसका प्राणियों को सताने वाला काम रुका नहीं था । वह वर्ष के अंत में जब सांसें छोड़ता तब चारों ओर आग के गोले गिरने लगते, भयानक भूचाल आते, सात दिनों तक सारी पृथ्वी कांपती रहती, सारा आकाश धुएं और धुंध से ढक जाता था । इन प्रलयकारी क्रियाओं से समस्त प्राणी भयभीत रहते थे । बहुतों की मृत्यु हो जाती थी ।
उत्तंक मुनि का आश्रम मारवाड़ में था, अत: वह अत्यधिक प्रभावित होता था । उन्होंने विश्व के त्राण के लिए कमर कस ली । वे राजा बृहदश्व के पास पहुंचे । उन्होंने कहा - ‘राजन ! आप धुंधु को मार डालिए नहीं तो वह सारे विश्व का विनाश कर डालेगा । उसे आप ही मार सकते हैं । एक तो आप स्वयं समर्थ हैं, दूसरे मेरी प्रार्थना से भगवान विष्णु अपना तेज आप में आविष्ट कर देंगे ।’
उस समय राजा बृहदश्व अपने पुत्र कुवलाश्व को राज्य पर अभिषिक्त कर वन जा रहे थे । उन्होंने उत्तंक मुनि से कहा - ‘मुनिवर ! आपका विचार बहुत उदात्त है । उसका कार्यरूप में परिणत होना भी आवश्यक है, किंतु वह कार्य अब मेरा पुत्र कुवलाश्व करेगा, क्योंकि मैंने वानप्रस्थ - आश्रम के लिए अस्त्र - शस्त्र का त्याग कर दिया है ।’
कुवलाश्व ने पिता के इस आदेश को शिरोधार्य कर लिया । उसका मन विश्व के कल्याण की भावना से भर गया । उसने अपने पुत्रों और सेना के साथ युद्ध के लिए प्रस्थान कर दिया । उत्तंक मुनि भी उसके साथ थे । इस अवसर पर भगवान विष्णु अपने तेज - स्वरूप से कुवलाश्व में प्रविष्ट हो गये । विश्व में प्रसन्नता की लहर दौड़ पड़ी । बिना बजाये ही देवताओं की दुंदुभियां बज उठीं । आकाश से फूलों की वृष्टि होने लगी । सारा वातावरण दिव्य गंध से सिक्त हो गया । वायु अनुकूल होकर बहने लगी ।
कुवलाश्व दल - बल के साथ धुंधु के स्थानपर जा पहुंचे । वहां बालू के समुद्र के अतिरिक्त और कुछ दिखता न था । परिश्रम के साथ बालू का वह समुद्र खोदा जाने लगा । सात दिनों के प्रयास के बाद खुदाई पूरी हुई । तब अनुयायियों के साथ धुंधु दिखायी पड़ा । उसका स्वरूप बड़ा विकराल था । कुवलाश्व के पुत्रों ने उसे घेरकर उसपर आक्रमण कर दिया । धुंधु ने क्रुद्ध होकर उनके सभी अस्त्र - शस्त्रों को चबा डाला । तत्पश्चात उन पर अपने मुख से प्रलयकालीन अग्नि के समान आग के गोले उगलने लगा । थोड़ी ही देर में कुवलाश्व के इक्कीस हजार पुत्र जलकर खाक हो गये । केवल तीन पुत्र बच गये । यह देख राजा कुवलाश्व धुंधु पर टूट पड़े । इस बार धुंधु ने अपार जलराशि प्रकट की । महाबली कुवलाश्व ने योगबल से सबका शोषण कर लिया । फिर आग्नेयास्त्र का प्रयोग कर धुंधु को सदा के लिए सुला दिया । तभी से कुवलाश्व धुंधुमार नाम से विख्यात हुए ।
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