न्यायशास्त्र का दूसरा नाम आन्वीक्षिकी है, यह आन्वीक्षिकी ‘प्रदीप: सर्वशास्त्रणाम्’ है । न्यायमत के द्वारा विरोध का परिहार करना आस्तिक जगत के लिए विशेष आवश्यक है । इसलिए सबसे पहले इसी के अनुसार विचार करना है ।
ईश्वर एक हैं, वह परमात्मा हैं, उनमें ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न नित्य हैं, वे जगत की सृष्टि, स्थिति और संहार करते हैं, उनमें सुख - दुख नहीं है, धर्म - अधर्म नहीं है, वे सर्वगत और सनातन हैं ।
इंद्रादि देवता, असुर, मनुष्य और कीट - पतंग आदि जीवों की चेतनता जीवात्मा से ही होती है - इन सभी जीवों का चेतनभाग जीवात्मा है । जीवात्मा असंख्य हैं, प्रत्येक देवता, असुर और मनुष्य आदि में जीवात्मा पृथक - पृथक हैं । ये समस्त जीवात्मा नित्य और सनातन हैं । इन सब जीवात्माओं के जो पृथक - पृथक मन हैं, वह भी नित्य हैं ।
एक - एक मन के साथ एक - एक जीवात्मा का एक असाधारण संबंध अनीदिकाल से चला आता है, इसी संबंध के कारण जीवात्मा में ज्ञान, इच्छा, प्रयत्न, द्वेष, सुख, दु:ख, संस्कार और धर्माधर्म होते हैं ।
ईश्वर अभ्रांत हैं - ईश्वर का ज्ञान भ्रमरूप नहीं है, परंतु जीवात्मा अभ्रांत नहीं है । जीवात्मा को भ्रम ज्ञान भी होता है । इच्छा और द्वेश की उत्पत्ति उस भ्रम ज्ञान से ही होती ह । स्वर्गसुख से लेकर जितने भी विषयजन्य सुख हैं सभी एक प्रकार से दु:ख हैं । क्योंकि इन सभी सुखों के साथ दु:ख मिक्षित हैं - एक - एक सुख की प्राप्ति के लिए कितने दु:ख सहने पड़ते हैं । फिर यह सभी सुख विनाशी हैं, इसलिए उनके नाश की आशंका से दु:ख बना रहता है और नाश होने पर तो दु:ख होता ही है, अतएव इन सभी सुखों के साथ मिले हुए दु:ख को न समझकर इतना केवल सुखरूप से ग्रहण करना - यह भ्रम है, यह आत्मत्व बुद्धि भी भ्रम है । इसी भ्रम से इच्छा और द्वेष उत्पन्न होते हैं । जिस साधन के द्वारा ये कल्पित सुख होते हैं, उसे प्राप्त करने की इच्छा होती है और उसके प्रतिकूल विषय से द्वेष होता है । इन इच्छा और द्वेष से ही वैध और अवैध विविध कर्मों में प्रवृत्ति होती है । उन कर्मों से धर्माधर्म होते हैं, धर्माधर्म जन्म का कारण है और जन्म होने से ही दु:ख होता है । तदंतर दु:ख निवृत्ति के लिए साधनों के द्वारा ईश्वर - साक्षात्कार या स्वरूप साक्षात्कार करना पड़ता है । वे साधन हैं - योग आदि । इस साक्षात्कार को ही तत्त्वज्ञान कहते हैं । तत्त्वज्ञान का फल अज्ञान - निवृत्ति है, यही मोक्ष का हेतु है ।
कारण मन के साथ जीवात्मा का जो एक अनादि असाधारण संबंध चला आता है, वह जन्म के अभाव में देह न रहने के कारण सदा के लिए टूट जाता है । इस प्रकार मन का संबंध नष्ट हो जाने पर फिर इच्छा, द्वेष, प्रवृत्ति, दु:ख आदि कुछ भी नहीं हो सकते । इस दु:खशून्य अवस्था का नाम ही मुक्ति है । जीव की यह निर्दु:ख अवस्था साधनलभ्य है और ईश्वर की यह अवस्था स्वाभाविक है ।
ईश्वर भी देह धारण करता है परंतु वह देह धर्माधर्मजनित नहीं होता । क्योंकि ईश्वर में धर्माधर्म नहीं है । धर्म और अधर्म का साधारण नाम अदृष्ट है । ईश्वर का देह जीवों के अदृष्टवश उत्पन्न होता है । ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र के रूप में ईश्वर के देहधारण का प्रथम परिचय मिलता है । यह त्रिमुर्ति सृष्टि, स्थिति और संहार के अनुकूल है । संसार अनादि है, इसलिए ऐसा कोई भी समय नहीं होता जब जीव के अदृष्ट न हो । ईश्वर और जीव के देह में भेद यही है कि ईश्वर के कितने ही अधिसंख्यक देह क्यों न हों, उनका अधिष्ठाता परमात्मा एक ही है, परंतु जीव के देह इस प्रकार के नहीं हैं, जितने देह हैं, ‘साधारणत:’ उतने ही जीवात्मा हैं । हां, योगसिद्ध जीवात्मा अपनी इच्छा से एक ही साथ अनेक देह धारण कर सकता है । इसलिए ‘साधारणत:’ शब्द का व्यवहार किया गया है ।
देह संबंधी होने पर भी परमात्मा धर्म या अधर्म के आश्रित नहीं रहते । जब तक तत्त्वज्ञान नहीं होता तब तक जीवात्मा का देह जीवात्मा से धर्माधर्म कराता रहता है । परमात्मा का ज्ञान देहनिरपेक्ष है और जीवात्मा का देह सापेक्ष । जीवों के अदृष्टजनित जो परमात्मा का देह धारण होता है, उसकी जड़ में परमात्मा की इच्छा रहती है । जीव के देह धारण में इस इच्छा की अपेक्षा नहीं है । ईश्वर देह में जो मन का संबंध होता है वह भी जीवों के अदृष्टजनित ही है ।
ईश्वर या परमात्मा में जो इच्छा, ज्ञान और यत्न हैं उनमें इन तीनों ही गुणों का प्रत्येक का पूर्ण विकास है । इस त्रिमूर्ति की एक - एक पृथक मूर्ति भी है । एक गुण की मूर्ति में अन्य गुणोंका पूर्ण विकास नहीं होता । जीवादृष्ट जनित देह मन संबंध ही उस पूर्ण विकास में प्रतिबंधक है । ब्रह्मा में इच्छा, विष्णु में ज्ञान और रुद्र में प्रयत्न का पूर्ण विकास है । इच्छा में रज, ज्ञान में सत्त्व और संहार प्रयत्न में तमोगुण का रहना अन्य दर्शनों में बतलाया गया है । ब्रह्मा में ज्ञान और प्रयत्न का विकास, विष्णु में इच्छा और प्रयत्न का अर्ध्द विकास और रुद्र में ज्ञान और इच्छा का अर्ध्द विकास होता है ।
धर्मनंदन नारायण ऋषि में ईश्वरीय ज्ञानशक्ति का पूर्ण विकास है, इसलिए वे विष्णु के अवतार हैं । उऩकी मानसिक तपस्या जीवों के अदृष्ट की सहकारिमी होकर श्रीकृष्ण शरीर में हेतु बनी थी । इसी से श्रीकृष्ण को नारायण ऋषि कहा जाता है । नारायण ऋषि में इच्छा और प्रयत्न का पूर्ण विकास नहीं हुआ था । किंतु नारायण ऋषि की दूसरी मूर्ति श्रीकृष्ण में उसका पूर्ण विकास हो गया था, शरीर और मन, इच्छा और प्रयत्न के पूर्ण विकास में प्रतिबंधक थे, परंतु श्रीकृष्ण के शरीर और मन जीवों के शुभादृष्ट के प्रभाव से उस प्रतिबंध को काट चुके थे । अतएव एक ही श्रीकृष्ण मूर्ति में ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न का पूर्ण विकास हो जाने से श्रीकृष्ण को शास्त्रों में पूर्ण या स्वयं भगवान कहा है ।
न्यायमतानुसार निराकार परमात्मा का शिवस्वरूप बताया गया है । वह शिव अप्रतिबंध पूर्ण विकासयुक्त ज्ञानेच्छा प्रयत्न से प्रकाशित हैं । विष्णु के अवतार नारायण ऋषि की भांति स्वयं श्रीकृष्ण जो इनकी उपासना करते हैं, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । ईश्वर का लश्रण बतलाती हुई श्रुति कहती है - ‘यस्य ज्ञानमयं तप: ।’
न्यायशास्त्रोक्त शिवस्वरूप परमात्मा निराकार हैं और श्रीकृष्ण परमात्मा साकार हैं, बस, इनमें इतना ही भेद हैं । इससे श्रीकृष्ण की शिवारधना और आत्मध्यान वस्तुत: एक ही बात है । यह कहा जा चुका है कि मानव - शरीर का अधिष्ठाता जीवात्मा है । परमात्मा जीवात्मा से पृथक है । श्रीकृष्ण के परमात्मा या ईश्वर होने के प्रणाण ऊपर दिखलाये जा चुके हैं ।
न्याय मत
न्यायशास्त्र का दूसरा नाम आन्वीक्षिकी है, यह आन्वीक्षिकी ‘प्रदीप: सर्वशास्त्रणाम्’ है । न्यायमत के द्वारा विरोध का परिहार करना आस्तिक जगत के लिए विशेष आवश्यक है । इसलिए सबसे पहले इसी के अनुसार विचार करना है ।
ईश्वर एक हैं, वह परमात्मा हैं, उनमें ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न नित्य हैं, वे जगत की सृष्टि, स्थिति और संहार करते हैं, उनमें सुख - दुख नहीं है, धर्म - अधर्म नहीं है, वे सर्वगत और सनातन हैं ।
इंद्रादि देवता, असुर, मनुष्य और कीट - पतंग आदि जीवों की चेतनता जीवात्मा से ही होती है - इन सभी जीवों का चेतनभाग जीवात्मा है । जीवात्मा असंख्य हैं, प्रत्येक देवता, असुर और मनुष्य आदि में जीवात्मा पृथक - पृथक हैं । ये समस्त जीवात्मा नित्य और सनातन हैं । इन सब जीवात्माओं के जो पृथक - पृथक मन हैं, वह भी नित्य हैं ।
एक - एक मन के साथ एक - एक जीवात्मा का एक असाधारण संबंध अनीदिकाल से चला आता है, इसी संबंध के कारण जीवात्मा में ज्ञान, इच्छा, प्रयत्न, द्वेष, सुख, दु:ख, संस्कार और धर्माधर्म होते हैं ।
ईश्वर अभ्रांत हैं - ईश्वर का ज्ञान भ्रमरूप नहीं है, परंतु जीवात्मा अभ्रांत नहीं है । जीवात्मा को भ्रम ज्ञान भी होता है । इच्छा और द्वेश की उत्पत्ति उस भ्रम ज्ञान से ही होती ह । स्वर्गसुख से लेकर जितने भी विषयजन्य सुख हैं सभी एक प्रकार से दु:ख हैं । क्योंकि इन सभी सुखों के साथ दु:ख मिक्षित हैं - एक - एक सुख की प्राप्ति के लिए कितने दु:ख सहने पड़ते हैं । फिर यह सभी सुख विनाशी हैं, इसलिए उनके नाश की आशंका से दु:ख बना रहता है और नाश होने पर तो दु:ख होता ही है, अतएव इन सभी सुखों के साथ मिले हुए दु:ख को न समझकर इतना केवल सुखरूप से ग्रहण करना - यह भ्रम है, यह आत्मत्व बुद्धि भी भ्रम है । इसी भ्रम से इच्छा और द्वेष उत्पन्न होते हैं । जिस साधन के द्वारा ये कल्पित सुख होते हैं, उसे प्राप्त करने की इच्छा होती है और उसके प्रतिकूल विषय से द्वेष होता है । इन इच्छा और द्वेष से ही वैध और अवैध विविध कर्मों में प्रवृत्ति होती है । उन कर्मों से धर्माधर्म होते हैं, धर्माधर्म जन्म का कारण है और जन्म होने से ही दु:ख होता है । तदंतर दु:ख निवृत्ति के लिए साधनों के द्वारा ईश्वर - साक्षात्कार या स्वरूप साक्षात्कार करना पड़ता है । वे साधन हैं - योग आदि । इस साक्षात्कार को ही तत्त्वज्ञान कहते हैं । तत्त्वज्ञान का फल अज्ञान - निवृत्ति है, यही मोक्ष का हेतु है ।
कारण मन के साथ जीवात्मा का जो एक अनादि असाधारण संबंध चला आता है, वह जन्म के अभाव में देह न रहने के कारण सदा के लिए टूट जाता है । इस प्रकार मन का संबंध नष्ट हो जाने पर फिर इच्छा, द्वेष, प्रवृत्ति, दु:ख आदि कुछ भी नहीं हो सकते । इस दु:खशून्य अवस्था का नाम ही मुक्ति है । जीव की यह निर्दु:ख अवस्था साधनलभ्य है और ईश्वर की यह अवस्था स्वाभाविक है ।
ईश्वर भी देह धारण करता है परंतु वह देह धर्माधर्मजनित नहीं होता । क्योंकि ईश्वर में धर्माधर्म नहीं है । धर्म और अधर्म का साधारण नाम अदृष्ट है । ईश्वर का देह जीवों के अदृष्टवश उत्पन्न होता है । ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र के रूप में ईश्वर के देहधारण का प्रथम परिचय मिलता है । यह त्रिमुर्ति सृष्टि, स्थिति और संहार के अनुकूल है । संसार अनादि है, इसलिए ऐसा कोई भी समय नहीं होता जब जीव के अदृष्ट न हो । ईश्वर और जीव के देह में भेद यही है कि ईश्वर के कितने ही अधिसंख्यक देह क्यों न हों, उनका अधिष्ठाता परमात्मा एक ही है, परंतु जीव के देह इस प्रकार के नहीं हैं, जितने देह हैं, ‘साधारणत:’ उतने ही जीवात्मा हैं । हां, योगसिद्ध जीवात्मा अपनी इच्छा से एक ही साथ अनेक देह धारण कर सकता है । इसलिए ‘साधारणत:’ शब्द का व्यवहार किया गया है ।
देह संबंधी होने पर भी परमात्मा धर्म या अधर्म के आश्रित नहीं रहते । जब तक तत्त्वज्ञान नहीं होता तब तक जीवात्मा का देह जीवात्मा से धर्माधर्म कराता रहता है । परमात्मा का ज्ञान देहनिरपेक्ष है और जीवात्मा का देह सापेक्ष । जीवों के अदृष्टजनित जो परमात्मा का देह धारण होता है, उसकी जड़ में परमात्मा की इच्छा रहती है । जीव के देह धारण में इस इच्छा की अपेक्षा नहीं है । ईश्वर देह में जो मन का संबंध होता है वह भी जीवों के अदृष्टजनित ही है ।
ईश्वर या परमात्मा में जो इच्छा, ज्ञान और यत्न हैं उनमें इन तीनों ही गुणों का प्रत्येक का पूर्ण विकास है । इस त्रिमूर्ति की एक - एक पृथक मूर्ति भी है । एक गुण की मूर्ति में अन्य गुणोंका पूर्ण विकास नहीं होता । जीवादृष्ट जनित देह मन संबंध ही उस पूर्ण विकास में प्रतिबंधक है । ब्रह्मा में इच्छा, विष्णु में ज्ञान और रुद्र में प्रयत्न का पूर्ण विकास है । इच्छा में रज, ज्ञान में सत्त्व और संहार प्रयत्न में तमोगुण का रहना अन्य दर्शनों में बतलाया गया है । ब्रह्मा में ज्ञान और प्रयत्न का विकास, विष्णु में इच्छा और प्रयत्न का अर्ध्द विकास और रुद्र में ज्ञान और इच्छा का अर्ध्द विकास होता है ।
धर्मनंदन नारायण ऋषि में ईश्वरीय ज्ञानशक्ति का पूर्ण विकास है, इसलिए वे विष्णु के अवतार हैं । उऩकी मानसिक तपस्या जीवों के अदृष्ट की सहकारिमी होकर श्रीकृष्ण शरीर में हेतु बनी थी । इसी से श्रीकृष्ण को नारायण ऋषि कहा जाता है । नारायण ऋषि में इच्छा और प्रयत्न का पूर्ण विकास नहीं हुआ था । किंतु नारायण ऋषि की दूसरी मूर्ति श्रीकृष्ण में उसका पूर्ण विकास हो गया था, शरीर और मन, इच्छा और प्रयत्न के पूर्ण विकास में प्रतिबंधक थे, परंतु श्रीकृष्ण के शरीर और मन जीवों के शुभादृष्ट के प्रभाव से उस प्रतिबंध को काट चुके थे । अतएव एक ही श्रीकृष्ण मूर्ति में ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न का पूर्ण विकास हो जाने से श्रीकृष्ण को शास्त्रों में पूर्ण या स्वयं भगवान कहा है ।
न्यायमतानुसार निराकार परमात्मा का शिवस्वरूप बताया गया है । वह शिव अप्रतिबंध पूर्ण विकासयुक्त ज्ञानेच्छा प्रयत्न से प्रकाशित हैं । विष्णु के अवतार नारायण ऋषि की भांति स्वयं श्रीकृष्ण जो इनकी उपासना करते हैं, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । ईश्वर का लश्रण बतलाती हुई श्रुति कहती है - ‘यस्य ज्ञानमयं तप: ।’
न्यायशास्त्रोक्त शिवस्वरूप परमात्मा निराकार हैं और श्रीकृष्ण परमात्मा साकार हैं, बस, इनमें इतना ही भेद हैं । इससे श्रीकृष्ण की शिवारधना और आत्मध्यान वस्तुत: एक ही बात है । यह कहा जा चुका है कि मानव - शरीर का अधिष्ठाता जीवात्मा है । परमात्मा जीवात्मा से पृथक है । श्रीकृष्ण के परमात्मा या ईश्वर होने के प्रणाण ऊपर दिखलाये जा चुके हैं ।
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