Saturday, 27 February 2016

भीष्मपितामह - आदर्श चरित्र


भक्तराज भीष्मपितामह महाराज शांतनु के औरस पुत्र थे और गंगादेवी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे । वसिष्ठ ऋषि के शाप से आठों वसुओं ने मनुष्योनि में अवतार लिया था, जिनमें सात को तो गंगा जी ने जन्मते ही जल के प्रवाह में बहाकर शाप से छुड़ा दिया । ‘द्यौ’ नामक वसु के अंशावतार भीष्म को राजा शांतनु ने रख लिया । गंगादेवी पुत्र को उसके पिता के पास छोड़कर चली गयी । बालक का नाम देवव्रत रखा गया था ।
दास के द्वारा पालित हुई सत्यवती पर मोहित हुए धर्मशील राजा शांतनु को विषादयुक्त देखकर युक्ति से देवव्रत ने मंत्रियों द्वारा पिता के दु:ख का कारण जान लिया और पिता की प्रसन्नता के लिए सत्यवती के धर्मपिता दास के पास जाकर उसके इच्छानुसार ‘राजसिंहासन पर न बैठने और आजीवन ब्रह्मचर्य पालने की कठिन प्रतिज्ञा करके पिता का सत्यवती के साथ विवाह करवा दिया । पितृभक्ति से प्रेरित होकर देवव्रत ने अपना जन्मसिद्ध राज्याधिकार छोड़कर सदा के लिए स्त्रीसुख का भी परित्याग कर दिया, इसलिए देवताओं ने प्रसन्न होकर पुष्पवृष्टि करते हुए देवव्रत का नाम भीष्म रखा । पुत्र का ऐसा त्याग देखकर राजा शांतनु ने भीष्म को वरदान दिया कि ‘तू जबतक जीना चाहेगा तब तक मृत्यु तेरा बाल भी बांका नहीं कर सकेगी, तेरी इच्छामृत्यु होगी ।’ निष्काम पितृभक्त और आजीवन अस्खलित ब्रह्मचारी के लिए ऐसा होना कौन बड़ी बात है ? कहना नहीं होगा कि भीष्म ने आजीवन प्रतिज्ञा का पालन किया । भीष्म जी बड़े ही बीर योद्धा थे और उनमें क्षत्रियों के सब गुण मौजूद थे । अर्थात् ‘वीरता, तेज, धैर्य, कुशलता, युद्ध से कभी न हटाना, दान और ऐश्वर्यभाव - ये क्षत्रियों के स्वाभाविक कर्म हैं ।’
भीष्म ने दुर्योधन की अनीति देखकर उसे कई बार मीठे - कड़े शब्दों में समझाया था, पर वह नहीं समझा और जब युद्ध का समय आया तब पाण्डवों की ओर मन होने पर भी भीष्म ने बुरे समय में आश्रयदाता की सहायता करना धर्म समझकर कौरवों के सेनापति बनकर पाण्डवों से युद्ध किया । वृद्ध होने पर भी उन्होंने दस दिन तक तरुण योद्धा की तरह लड़कर रणभूमि में अनेक बड़े बड़े वीरों को सदा के लिए सुला दिया और अनेक को घायल किया । कौरवों की रक्षा असल में भीष्म के कारण ही कुछ दिनों तक हुई । महाभारत के अठारह दिनों के सारे संग्राम में दस दिनों का युद्ध अकेले भीष्म जी के सेनापतित्व में हुआ, शेष आठ दिनों में कई सेनापति बदले । इतना होने पर भी भीष्म जी पाण्डवों के पक्ष में सत्य देखकर उनका मंगल चाहते और यह मानते थे कि अंत में जीत पाण्डवों की होगी ।
श्रीकृष्णमहाराज को साक्षात् भगवान के रूप में सबसे पहले भीष्म जी ने ही पहचाना था । धर्मराज के राजसूय यज्ञ में युधिष्ठिर के यह पूछने पर कि ‘अग्रपूजा’ किसकी होनी चाहिए, भीष्म जी ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि ‘तेज, बल, पराक्रम तथा अन्य सभी गुणों में श्रीकृष्ण ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रथम पूजा पाने योग्य हैं ।’
महाभारत युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण शस्त्र ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा करके सम्मिलित हुए थे । वे अपनी भक्तवत्सलता के कारण सखा भक्त अर्जुन का रथ हांकने का काम कर रहे थे । बीच ही में एक दिन किसी कारणवश भीष्म ने यह प्रण कर लिया, ‘भगवान को शस्त्र ग्रहण करवा दूंगा ।’
भीष्म ने यही किया । भगवान को अपनी प्रतिज्ञा तोड़नी पड़ी । जगत्पति पीतांबरधारी वासुदेव श्रीकृष्ण बार बार सिंहनाद करते हुए हाथ में रथ का टूटा चक्का लेकर भीष्म जी की ओर ऐसे दौड़े जैसे वनराज सिंह गरजते हुए विशाल गजराज की ओर दौड़ता है । भगवान का पीला दुपट्टा कंधे से गिर पड़ा । पृथ्वी कांपने लगी । सेना में चारों ओर से ‘भीष्म मारे गये’ , ‘भीष्म मारे गये’ की आवाज आने लगी, परंतु इस समय भीष्म को जो असीम आनंद था उसका वर्णन करना सामर्थ्य के बाहर की बात है । भगवान की भक्त वत्सलता पर मुग्ध हुए भीष्म उनका स्वागत करते हुए बोले -
अर्थात् ‘हे पुण्डरीकाक्ष ! आओ, आओ ! हे देवदेव !! तुमको मेरा नमस्कार है । तुम्हारे हाथ से युद्ध में मरने पर मेरा अवश्य ही सब प्रकार से परम कल्याण हो जाेंगा । मैं आज त्रैलोक्य में सम्मानित हूं ! मुझपर तुम युद्ध में इच्छानुसार प्रहार करो, मैं तुम्हारा दास हूं ।’ अर्जुन ने पीछे से दौड़कर भगवान के पैर पकड़ लिये और उन्हें लौटाया । भगवान तो अपने भक्त की प्रतिज्ञा सत्य करने का दौड़े थे, भीष्म का वध तो अर्जुन के हाथ से ही होना था !
अंत में शिखण्डी के सामने बाण न चलाने के कारण अर्जुन के बाणों से बिंधकर भीष्म शरशय्या पर गिर पड़े । भीष्म वीरोचित शरशय्यापर सोये थे, उनके सारे शरीर में बाण बिंधे थे केवल सिर नीचे लटकता था । उन्होंने तकिया मांगा, दुर्योधनादि नरम नरम तकिया लाने लगे । भीष्म ने अंत में अर्जुन से कहा - ‘वत्स ! मेरे योग्य तकिया दो ।’ अर्जुन ने शोक रोककर तीन बाण उनके मस्तक के नीचे इस तरह मारे कि सिर तो ऊंचा उठ गया और वे बाण तकिया का काम देने लगे । इससे भीष्म बड़े प्रसन्न हुए और बोले कि -
अर्थात् ‘हे पुत्र अर्जुन ! तुमने मेरी रणशय्या के योग्य ही तकिया देकर मुझे प्रसन्न कर लिया । यदि तुम मेरी बात न समझकर दूसरा तकिया देते तो मैं नाराज होकर तुम्हें शाप दे देता । क्षात्र - धर्म में दृढ़ रहने वाले क्षत्रियों को रणांगण में प्राण - त्याग करने के लिए इसी प्रकार की बाणशय्या पर सोना चाहिए ।’
भीष्म जी शरशय्या पर बाणों से घायल पड़े थे, यह देखकर अनेक कुशल शस्त्रवैद्य बुलाये गये कि वे बाण निकालकर मरहम पट्टी करके घावों को ठीक करें, पर अपने इष्टदेव भगवान श्रीकृष्ण को सामने देखते हुए मृत्यु की प्रतीक्षा में वीरशय्यापर शांति से सोये हुए भीष्म जी ने कुछ भी इलाज न कराकर उन्हें सम्मानपूर्वक लौटा दिया । धन्य वीरता और धन्य धीरता ।
जिस प्रकार अटल और दृढ़ होकर भीष्म जी ने आजन्म अपने सत्य, धर्म और प्रतिज्ञा का पालन किया, वह कभी भूलने वाली बात नहीं है । ऐसे अद्वितीय वीर का सम्मान करने के लिए ऋषियों ने नित्य तर्पण में भी भीष्मपितामह के लिए जलांजलि देने का इस प्रकार विधान किया कि - तर्पण में क्षत्रिय ही नहीं, ब्राह्मण भी भीष्मपितामह को जलांजलि देते हैं । वास्तव में यह तर्पण करना भीष्मपितामह की ओर भारत के लोगों का सदा के लिए याद बनाये रखना है ।

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