प्राचीन ग्रंथों के अनुसार गायत्री मंत्र के प्रथम अक्षर में सफलता, दूसरे में पुरुषार्थ, तीसरे में पालन, चौथे में कल्याण, पांचवें में योग, छठे में प्रेम, सातवें में लक्ष्मी, आठवें में तेजस्विता, नवें में सुरक्षा, दसवें में बुद्धि, ग्यारहवें में दमन, बारहवें में निष्ठा, तेरहवें में धारणा, चौदहवें में प्राण, पंद्रहवें में संयम, सोलहवें में तप, सत्रहवें में दूरदर्शिता, अठारहवें में जागरण, उन्नीसवें में सृष्टि ज्ञान, बीसवें में सफलता, इक्कीसवें में साहस, बाइसवें में दमन, तेइसवें में विवेक और चौबीसवें में सेवाभाव नाम की शक्तियों का समावेश है । गायत्री मंत्र का कार्य दुर्बुद्धि का निवारण कर सद् बुद्धि देना है । इस मंत्र के जपने से चुंबक तत्व सक्रिय होकर प्रसुप्त क्षेत्रों को गतिशील कर देते हैं ।
नास्ति गंगा समं तीर्थ न देव: केशवात्पर: ।
गायत्र्यास्तु परं जाप्यं भूतं न भविष्यति ।।
अर्थात् गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं, केशव के समान कोई देव नहीं है । गायत्री से श्रेष्ठ न कोई जप हुआ न होगा । गायत्री मंत्र प्रणव (ओंकार) का विस्तृत रूप है ।
इस मंत्रोच्चारण द्वारा ब्रह्म के तेज की प्राप्ति होती है, इसलिए जहां भी गायत्री का वास होता है वहां यश, कीर्ति, ज्ञान तथा दिव्य बुद्धि सहज ही उपलब्ध हो जाती है ।
गीता मे भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है - ‘गायत्री छंदसामाहम् ।’
अर्थात् मंत्रों में मैं गायत्री मंत्र हूं । गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों में, 24 ऋषियों और 24 देवताओं की शक्तियां समाहित मानी गई हैं । अत: मंत्रोच्चार से उन देवों से संबंधित शरीरस्थ नाड़ियों में प्राणसक्ति का स्पंदन शुरू हो जाता है तथा संपूर्ण शरीर में ऑक्सीजन का संचार बढ़ जाता है । जिससे शरीर के समस्त विकार जल कर नष्ट हो जाते हैं ।
शास्त्रों में कहा गया है कि गायत्री मंत्र का श्रद्धा से विधानानुसार जप करने से शारीरिक, भौतिक तथा आध्यात्मिक बाधाओं से मुक्ति मिलती है । जीवन में नई स्फूर्ति और आशाओं का संचार होता है । सद् विचार व सद् धर्म का उदय होता है । विवेकशीलता, आत्मबल, नम्रता, संयम, प्रेम, शांति, संतोष आदि सद् गुणों की वृद्धि होती है और दुर्भाव दुख आदि नष्ट होते हैं । इसके अलावा आयु, संतान, विद्या, कीर्ति, धन और ब्रह्यातेज की वृद्धि होकर आत्मा शुद्ध हो जाती है । यह अकाल मृत्यु और सभी प्रकार क्लेशों को नष्ट करता है
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