Monday 1 February 2016

सांच को आंच नहीं


किसी नगर में एक जुलाहा रहता था| वह बहुत बढ़िया कम्बल तैयार करता था| कत्तिनों से अच्छी ऊन खरीदता और भक्ति के गीत गाते हुए आनंद से कम्बल बुनता| वह सच्चा था, इसलिए उसका धंधा भी सच्चा था, रत्तीभर भी कहीं खोट-कसर नहीं थी|
एक दिन उसने एक साहूकार को दो कम्बल दिए| साहूकार ने दो दिन बाद उनका पैसा ले जाने को कहा| साहूकार दिखाने को तो धरम-करम करता था, माथे पर तिलक लगाता था, लेकिन मन उसका मैला था| वह अपना रोजगार छल-कपट से चलाता था|
दो दिन बाद जब जुलाहा अपना पैसा लेने आया तो साहूकार ने कहा - "मेरे यहां आग लग गई और उसमें दोनों कम्बल जल गए अब मैं पैसे क्यों दूं?"
जुलाहा बोला - "यह नहीं हो सकता मेरा धंधा सच्चाई पर चलता है और सच में कभी आग नहीं लग सकती|
जुलाहे के कंधे पर एक कम्बल पड़ा था उसे सामने करते हुए उसने कहा - "यह लो, लगाओ इसमें आग|"
साहूकार बोला - "मेरे यहां कम्बलों के पास मिट्टी का तेल रखा था| कम्बल उसमें भीग गए थे| इस लिए जल गए|
जुलाहे ने कहा - "तो इसे भी मिट्टी के तेल में भिगो लो|"
काफी लोग वहां इकट्ठे हो गए| सबके सामने कम्बल को मिट्टी के तेल में भिगोकर आग लगा दी गई| लोगों ने देखा कि तेल जल गया, लेकिन कम्बल जैसा था वैसा बना रहा|
जुलाहे ने कहा - "याद रखो सांच को आंच नहीं|"
साहूकार ने लज्जा से सिर झुका लिया और जुलाहे के पैसे चुका दिए|
सच ही कहा गया है कि जिसके साथ सच होता है उसका साथ तो भगवान भी नहीं छोड़ता

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