Saturday 16 July 2016

परेशानियों में ईश्वर का सहारा

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जरूरी नहीं कि कमजोर व्यक्ति को ही सहारा चाहिए। सक्षम और समर्थ व्यक्ति भी सहारा चाहता है। जीवन में कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जहां अगर सहारा मिल जाए तो योग्यता को बल मिल जाता है।
किष्किंधा कांड में श्रीराम भगवान के सहारे का क्या महत्व है इसे अपने ढंग से लक्ष्मणजी को समझा रहे हैं। तुलसीदासजी ने बड़ी ही सुंदर चौपाई लिखी,
‘सुखी मीन जे नीर अगाधा। जिमि हरि सरन न एकउ बाधा। फूलें कमल सोह सर कैसा। निर्गुन ब्रह्म सगुन भएं जैसा।।
‘जो मछलियां अथाह जल में हैं वे सुखी हैं। जैसे श्रीहरि की शरण में चले जाने पर एक भी बाधा नहीं रहती। कमलों के फूलने से तालाब ऐसी शोभा दे रहा है, जैसे निर्गुण ब्रह्म सगुण होने पर शोभित होता है। मछली जब गहरे जल में होती है, तब वह अपने आप को सुरक्षित समझती है।
परमात्मा की कृपा का जल ऐसा ही होता है। इस कृपा के सागर में जो डूब गया उसे संसार सागर में परेशानी कम उठानी पड़ेगी। आज भी भक्ति करने के दो तरीके हैं- निराकार और साकार।
कुछ लोग मानते हैं परमात्मा का कोई आकार नहीं है और वे उसी ढंग से उस तक पहुंचते हैं। अधिकांश परमात्मा को साकार मानते हैं। चाहे वह किसी मूर्ति में हो, अवतार में हो या किसी देव पुरुष में।
तुलसीदासजी को रामजी का साकार रूप खासतौर पर वनवासी और तपस्वी रूप बहुत भाता था, इसीलिए वे कहते हैं, ‘ये वही रामजी हैं, जिनको वेद ने भी गाया, वहां वे निर्गुण हैं लेकिन यहां अपने भक्तों के लिए सगुण हो गए हैं, बिल्कुल अपने जैसे।
मनुष्य को जब परमात्मा इस रूप में मिलता है तो वह बहुत बड़ा सहारा बन जाता है। परमात्मा अवतार लेकर हमें बताता ही है कि मैं सगुण रूप में तुम्हारा सहारा बनूंगा। इस कृपा के सागर में अपने आप को सुरक्षित समझो।
श्रेष्ठ लेकर ही यहां से जाएं____
ऋषि-मुनि कहते आए हैं हैं कि हम परमात्मा का अंश हैं और हमें एक दिन उसी में मिलना है। तो क्यों न अपने भीतर उसके विराट आनंद का समावेश करें। यह आदर्श वाक्य सभी को समझ में नहीं आता।
खासतौर पर नई पीढ़ी के बच्चे आत्मा-परमात्मा की बातों से घबराने लगते हैं। एक वर्ग विज्ञान के आधार पर इसको खारिज कर देता है। कुछ लोग इस बात को सुनकर अपने भीतर उतरते हैं और भगवान को ढूंढ़ने लगते हैं। निराश हो जाते हैं तो कहा जाता है कि ये सब बकवास है।
फिर भी लोग आस्थावान होते हैं। मूर्ति पूजा में, मंदिर जाने में, कर्मकांड में लग जाते हैं, लेकिन शांत नहीं हो पाते। दोनों पक्ष ध्यान रखें, यदि आप यह मान लें कि वह परमशक्ति प्रकृति के रूप में बिखरी हुई है और हमारे भीतर वही बसा है तो हमें शांत होने में सुविधा होगी।
विज्ञान की दृष्टि से विचार किया जा सकता है कि बीमारी में हमारे शरीर से खून की कुछ बूंदे निकाली जाती हैं और उन बूंदों से पूरे शरीर में होने वाले परिवर्तन-दोष की जानकारी मिल जाती है।
अगर रक्त की एक बूंद में हमारा पूरा शरीर समाया है तो फिर हम भी उस परमात्मा की एक बूंद की तरह हैं और वह विराट हममें समाया है। एक बूंद में यदि पूरे की जानकारी हो सकती है तो एक मनुष्य में पूरा परमात्मा क्यों प्राप्त नहीं हो सकता।
विज्ञान भी इससे सहमत है। इसी विज्ञान के आधार पर हमें यह मानना चाहिए कि हमारे भीतर वह सबकुछ है, जिसे परमशक्ति या परमात्मा कहते हैं। जब इतनी बड़ी संभावना हमारे भीतर है, फिर हम छोटी-छोटी बातों से निराश क्यों हो जाते हैं, इसलिए इस भाव को सदैव बनाए रखिए कि हम श्रेष्ठ लेकर आए हैं, श्रेष्ठ लेकर जीना है, क्योंकि जाते समय श्रेष्ठ ही साथ जाएगा। बाकी सारा संसार यहीं छूट जाना है।
संतों के पास पाप मुक्ति की दृष्टि_____
किष्किंधा कांड के एक प्रसंग में श्रीराम लक्ष्मण को पाप की परिभाषा बताते हैं। इसे तुलसीदासजी ने ऐसे लिखा है,
‘गुंजत मधुकर मुखर अनूपा। सुंदर खग रव नाना रूपा।। चक्रबाक मन दुख निसि पेखी। जिमि दुर्जन पर संपति देखी।।’
भौंरों की अनूठी गूंज सुनाई दे रही है तथा कई प्रकार के सुंदर पक्षी कलरव कर रहे हैं। रात देखकर चकवा वैसे ही दुखी है जैसे दूसरे की संपत्ति देखकर दुष्ट दुखी होता है। दूसरे की संपत्ति को देखकर दुष्ट को जैसा लगता है, वह एक तरह का पाप है।
कई बार हमें लगता है कि जो कुछ दूसरों के पास है वह हमारे पास भी हो। इसमें बुराई नहीं है। बुराई उसे पाने के अनुचित प्रयास में है। जो मिला है उसमें संतोष करिए, जो दूसरे को मिला है उसमें प्रसन्न हो जाएं। ईर्ष्या आए, लोभ आए पर छीनने की वृत्ति आए तो पाप है।
फिर श्रीराम कहते हैं-
‘चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहइ न संकरद्रोही। सरदातप निसि ससि अपहरई। संत दरस जिमि पातक टरई।।’
प्यास के कारण पपीहा व्याकुल है। जैसे शंकरजी का द्रोही सुख नहीं पाता। सुख प्राप्त करने के लिए जो खीज, चिढ़, जो बेचैनी प्राप्त होती है वह भी एक तरह का पाप है। अंत में शरद ऋतु के चंद्रमा की शीतलता को संतों से जोड़ते हुए कहते हैं,
‘शरद-ऋतु के ताप को चंद्रमा हर लेता है,
जैसे संतों के दर्शन से पाप दूर हो जाते हैं। संत एक ऐसी दृष्टि दे देते हैं, जिससे हम जान जाते हैं कि भीतर से हमें कुछ और ही होना है। इसलिए यह गलतफहमी मिटा ली जाए कि संत के पास या तीर्थ में जाने से पाप मिट जाएंगे। वहां पाप मिटाने की दृष्टि दे दी जाती है।
जब भी अवसर मिले, किसी तीर्थ में, किसी संत के पास जाकर वह दृष्टि प्राप्त करें, जो हमें पाप से मुक्त होने को प्रेरित करेगी।
ऊर्जा के अपने परम स्रोत से जुड़ें___
यह रहस्यमय सवाल कई बार मुझसे पूछा गया है और लोगों ने खुद से भी पूछा है कि हम कहां से आए हैं, शरीर में आने के पहले कहां थे और इसके बाद कहां जाएंगे? एक वर्ग साइंस के हवाले से कहता है कि माता-पिता के योगदान से पैदा हुए और शरीर की क्रियाएं समाप्त होंगी तो मर गए। इसमें सोचना क्या?
परंतु एक वर्ग ऐसा भी है, जो जीवन को अध्यात्म की दृष्टि से देखता है। उसके मन में ये प्रश्न कभी न कभी जरूर आते हैं। यदि इसका उत्तर ठीक से मिल जाए तो आने और जाने के बीच में जो जीवन होता है उसका असली आनंद मिल सकेगा।
यदि इसे ठीक से नहीं समझा तो जिसे हम जी रहे हैं, उसका भी दुरुपयोग कर जाएंगे। शास्त्रों ऋषि-मुनियों ने इशारा किया है कि हमारा स्रोत, हमारे जन्म का कारण कुल-मिलाकर ऊर्जा है।
यह एक ऐसी शक्ति है, जिसका कोई रूप नहीं, कोई आकार नहीं। इस ऊर्जा के मुद्‌दे पर धर्म और विज्ञान एक हो जाते हैं। यही ऊर्जा माता-पिता के वीर्य और रज के कण के रूप में हमारे जीवन को तैयार करती है।
यह ऊर्जा कभी समाप्त नहीं होती, सतत बह रही है। जब हमें यह होश जाए कि हम आए हैं तो उस ऊर्जा से और जाएंगे भी उसी ऊर्जा से तो फिर जीवन का जो बीच का समय है उसको उस ऊर्जा से जोड़ने का प्रयास किया जाए, जो इस ब्रह्मांड में बह रही है।
इस ऊर्जा के जिस हिस्से से हम पैदा हुए, वह हमारे रोम-रोम में बह रही है। जैसे ही एकांत में उतरकर हम शरीर की सारी एकाग्रता एक स्थान पर ले आते हैं, वैसे ही उस परम तत्व से जुड़ जाते हैं।
श्री हनुमानचालीसा की एक-एक चौपाई सांस के साथ भीतर उतारें और बाहर ले जाएं। जीवन का आनंद बढ़ जाएगा। यह वही विधि है, जिससे हम उस ऊर्जा से जुड़ते हैं जो हमारा स्रोत है।

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