Sunday, 10 July 2016

सबके दाता राम

रहीमजी जब भी किसी को दान देने के लिए हाथ आगे बढ़ाते तो दान देते हुए अपनी नज़रें नीचे झुका लेते थे। यह बात सभी को खटकती थी कि रहीम वैसे तो बहुत दान करते हैं पर उन्हें दान देते हुए शर्म भी आती है।
बात संत कबीर तक भी पहुंची। उन्होंने रहीम को 4 पंक्तियां भेजीं-
ऐसी देनी देन जु, कित सीखे हो सेन।
ज्यों ज्यों कर ऊंचो करें, त्यों त्यों नीचे नैन।।
(रहीम तुमने ऐसा दान देना कहाँ से सीखा कि जैसे जैसे तुम्हारे हाथ दान के लिए ऊपर उठते है वैसे-वैसे तुम्हारी नज़रें नीचे झुक जाती हैं!!)
रहीमजी ने उत्तर लिखा उसे जिसने भी सुना रहीम का मुरीद हो गया-
देनहार कोई और है, भेजत जो दिन रैन।
लोग भरम हम पर करें, तासो नीचे नैन ।।
(मतलब देने वाला तो कोई और है। परमात्मा दिन रात वे वस्तुएं भेज रहा है परन्तु लोग यह समझते हैं कि मैं दे रहा हूँ। रहीम दे रहा है यह विचारकर मुझे शर्म आ जाती है और उसी शर्म से मेरी आँखे नीचे झुक जाती हैं।)
दान का भाव यही होना चाहिए- 

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