राक्षसों के राजा रावण की राजधानी चारों ओर समुद्र से घिरी हुई थी। वहाँ का दुर्ग (किला) भी बहुत विशाल और सुदृढ़ था। उसके चारो ओर बलवान राक्षसों का पहरा लगा रहता था। इस किले के चतुर्दिक गहरी खाई अभेध कवच की तरह इसकी सुरक्षा करती थी, जिसे पार करना अत्यन्त दुष्कर था। इसी किलेके भीतर एक वाटिका थी, जिसे अशोकवाटिका कहते थे। रावण ने माता सिता जी का हरण करके उन्हें इसी वाटिका में वन्दिनी बना रखा था। उनके आस-पास चारो ओर भयानक राक्षसों को पहरे पर बिठा रखा था। ऐसी स्थिति में किसी का भी सीता जी के पास पहुँच सकना एकदम असम्भव-जैसा था। सबसे बड़ी समस्या समुद्र को पार करने की थी। इसकी चौड़ाई सौ योजन(800 मील) थी। बिना इसको पार किये किसी के लिए भी लंका पहुँचना असम्भव था।
सब लोग इस समस्या को लेकर बहुत ही चिन्तित थे। अंगद ने सभी मुख्य-मुख्य सेनापतियों से समुद्र पार करने के विषय में अपनी-अपनी शक्ति और बलका परिचय देने को कहा। अंगद की बातें सुनकर वानर वीर गजने कहा, मैं दस योजना की छलाँग लगा सकता हूं। गवाक्ष ने बीस योजना तक जाने की बात कही। शरभ ने क्षमता तीस योजनतक बतायी। वानर श्रेष्ठ ऋषभ ने कहा, मैं चालीस योजन की छलाँग लगा सकता हूं। गन्दमादन नामक परम तेजस्वनी वानर ने एक छलाँग में पचास योजन तक चले जाने की बात बतायी। परम बलशाली वानरराज द्विविद ने कहा, मैं एक छलाँग में सत्तर योजन तक की दूरी पार कर सकता हूं।
सबकी बाते सुनकर भालुओं के सेनापति जाम्बवान ने कहा, अब मैं बहुत बूढ़ा हो चला हूं। मुझमें पहले-जैसा बल नहीं रह गया हैं। लेकिन मैं एक छलाँग में नब्बे योजन तक चला जाऊँगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है। अंगद ने कहा, मैं एक छलाँग में इस सौ योजन चौड़े समुद्र को पार कर जाऊँगा। लेकिन लौटते समय भी मुझमें इतनी ही शक्ति रह पायगी, इस बात को लेकर मेरे मन में सन्देह है।
अन्त में वृद्ध जाम्बवान ने हनुमान जी को देखा। वह उस समय चुपचाप एक किनारे शान्त बैठे हुए थे। जाम्बवान ने कहा, वीरवर हनुमान तुम पवन देवता के पुत्र हो उन्हीं के समान बलवान हो। तुम बल, बुद्धि, विवेक, शील में सर्वश्रेष्ठ हो। तुम्हारी समता करने वाला तीनों लोकों में कोई दूसरा नहीं हैं। बालपन में ही तुमने ऐसे- ऐसे अदभुत कार्य किये हो, जो दूसरों के लिये असम्भव है। लंका जाकर भगवान श्रीरामचन्द्र जी का संदेश माता सीता जी तक पहुँचाने के लिये मैं तुमसे अधिक योग्य किसी को नहीं समझता हुँ। इस सौ योजन चौड़े समुद्र को लाँघ जाना तुम्हारे लिये कौन-सी बड़ी बात है। तुम्हारा तो जन्म ही भगवान श्रीरामचन्द्र जी का कार्य पूरा करने के लिये हुआ है।
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