Wednesday 21 September 2016

आरूणी की भक्ति


प्राचीन काल में आयोद धौम्य नाम के एक ऋषि थे। पूरे आश्रम में महेर्षि की मंत्र वाणी गूंजती रहती है। गुरुजी प्रात: 4 बजे उठकर गंगा स्नान करके लौटते, तब तक शिष्यगण भी नहा-धोकर बगीची से फूल तोड़कर गुरु को प्रणाम कर उपस्थित हो जाते। आश्रम, पवित्र यज्ञ धूम्र से सुगंधित रहता। आश्रम में एक तरफ बगीचा था। बगीचे के सामने झोपड़ियों में अनेक शिष्य रहते थे।
उनमें आरूणि नाम का शिष्य बड़ा ही नम्र, सेवाभावी और आज्ञापालक था। एक बार खूब वर्षा हुई। गुरु ने आरूणी को आश्रम के खेतों की देखभाल के लिए भेजा। आरुणि ने देखा कि खेत की मेड़ एक स्थान पर टूट गई है तथा वहां से बड़े जोर से पानी की धारा बहने लगी है। आरुणि ने टूटी मेड़ पर मिट्टी जमाकर पानी रोकना चाहा किंतु बहता पानी मिट्टी को बहा ले जाता।
आखिर आरूणी पानी रोकने के लिए स्वयं ही उस टूटी हुई सीमा में लेट गया। उसके शरीर के अवरोध के कारण बहता पानी तो रुक गया, परंतु इस तरह उसे सारी रात ठंडे पानी में लेटे रहना पड़ा। इस प्रकार उसने खेत की रक्षा की।
प्रातःकाल हुआ। आश्रम के सब शिष्य जब गुरुदेव को प्रणाम करने गये तब उनमें आरूणी दिखा नहीं। गुरु शिष्यों को साथ लेकर आरूणी को ढूँढने खेत की ओर गये और आवाज लगायी।
"आरूणी...! आरूणी...!!"
आरूणी ने गुरु की आवाज सुनी। उसका शरीर तो ठंड से ठिठुर गया था, आवाज दब गयी थी, फिर भी वह उठा और गुरुदेव को प्रणाण करके बोला "क्या आज्ञा है गुरुदेव?"
गुरु आयोद धौम्य का हृदय भर आया। शिष्य की सेवा देखकर उनका गुरुत्व छलक उठा। आरूणी के अंतर में शास्त्रों का ज्ञान अपने-आप प्रकट होने लगा। गुरु ने उसका नाम उद्दालक रखा। धन्य है गुरुभक्त आरूणी !

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